Sunday, April 14, 2024

 "जागो देश के जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों,
आज देश पूकार रहा है।
त्यज दो इस चिर निंद्रा को,
हिमालय पूकार रहा है।।1।।

छोड़ आलस्य का आँचल,
दुश्मन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर,
गर्जन करते केहरि बन।।2।।

मंडरा रहे हैं संकट के घन,
इस देश के गगन में।
शोषणता व्याप्त हुयी है,
जग के जन के मन में।।3।।

घिरा हुवा है आज देश,
चहुँ दिशि से अरि सेना से।
शोषण नीति टपक रही,
पर देशों के नैना से।।4।।

भूल गयी है उन्नति का पथ,
इधर इसी की सन्तानें।
भटक गयी है सच्चे पथ से,
स्वार्थ के पहने बाने।।5।।

दीवारों में है छेद कर रही,
वो अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा,
ठोकर खाती दर दर की।।6।।

चला जा रहा आज देश,
गर्त में अवनति के गहरे।
आज इसी के विस्तृत नभ में,
पतन पताका है फहरे।।7।।

त्राहि त्राहि है मची हुयी,
देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है,
आज देश की रोने में।।8।।

अब तो जाग उठो जवानों,
जी में साहस ले कर।
काली बन अरि के सीने का,
दिखलाओ शोणित पी कर।।9।।

जग को अब तुम दिखलादो,
वीर भगत सिंघ बन कर।
वीरों की यह पावन भूमि,
वीर यहां के सहचर।।10।।

गांधी सुभाष बन कर के तुम,
भारत का मान बढ़ाओ।
जाति धर्म देश सेवा हित,
प्राणों की बलि चढ़ाओ।।11।।

मोहन बन कर के तुम जन को,
गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को तुम,
सच्ची राह दिखाओ।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Wednesday, April 10, 2024

सरस छंद "ममतामयी माँ"

माँ तुम्हारा, छत्र सर पर।
छाँव देता, दिव्य तरुवर।।
नेह की तुम, खान निरुपम।
प्रेम की हो, रश्मि चमचम।।

जीव का कर, तुम अवतरण।
शिशु का करो, पोषण भरण।।
माँ सृष्टि को, कर प्रस्फुटित।
भाव में बह, होती मुदित।।

मातृ आँचल, शीतल सुखद।
दूर करता, ये हर विपद।।
माँ की कांति, रवि सम प्रखर।
प्रीत की यह, बहती लहर।।

वात्सल्य की, प्रतिमूर्ति तुम।
भाल पर ज्यों, दिव्य कुमकुम।।
भगवान हैं, माँ के चरण।
इन बिन कहाँ, फिर है शरण।।

माँ दुलारी, ज्यों विशद नभ।
जो बनाए, हर पथ सुलभ ।।
गोद में हैं, सब तीर्थ स्थल।
तार दें जो, जीवन सकल।।

माँ तुम्हारी, ममता परम।
कोई नहीं, इसका चरम।।
पीड़ मेरी, करती शमन।
प्रति दिन करूँ, तुमको 'नमन'।।
***********

सरस छंद -

सरस छंद 14 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत नगण (111) से होना आवश्यक है। इसमें 7 - 7 मात्राओं पर यति अनिवार्य है। यह मानव जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 14 मात्राओं की मात्रा बाँट 2 5, 2 5 है। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर पद का अंत सदैव तीन लघु (111) से होना चाहिए।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-22

Thursday, April 4, 2024

"अनाथ"

यह कौन लाल है जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में,
छिपा हुआ है कौन इन विकृत पत्रों में।
कौन बिखेर रहा है दीन दशा मुख से,
बिता रहा है कौन ऐसा जीवन दुःख से।।1।।

यह अनाथ बालक है छिपा हुआ चिथड़ा में,
आनन लुप्त रखा अपना गहरी पीड़ा में।
अपना मित्र बनाया दारुण दुःख को जिसने,
ठान लिया उसके संग रहना इसने।।2।।

फटे हुए चिथड़ों में लिपटा यह मोती,
लख जग की उपेक्षा आँखें प्रतिदिन रोती।
कर में अवस्थित है टूटी एक कटोरी,
पर हा दैव! वह भी है बिल्कुल कोरी।।3।।

है अनाथ जग में कोई नहीं इसका है,
परम परमेश्वर ही सब कुछ जिसका है।
मात पिता से वंचित ये जग में भटकता,
जग का कोई जन नाता न इससे रखता।।4।।

एक सहारा इसका भिक्षा की थोड़ी आशा,
दया कर दे का स्वर ही है इसकी भाषा।
बड़ा ही कृशकाय है इसका अबल तन,
पर बड़ा गम्भीर है बालक का अंतर्मन।।5।।

लघु ललाम लोचन चंचल ही बड़े हैं,
जग भर की आशा निज में समेटे पड़े हैं।
ओठ शुष्क पड़े हैं भूख प्यास के कारण,
दुःख संसार भर का कर रखे हैं धारण।।6।।

गृह कुटिया से यह सर्वथा है बंचित,
रखता न पास यह धरोहर भी किंचित।
नगर पदमार्ग आवास इसका परम है,
उसी पर यह जीवन के करता करम है।।7।।

हाथ मुँह कर शुद्ध प्रातःकाल में यह,
भिक्षाटन को निकलता सदैव ही वह।
उदर के लिए यह घर घर में भटकता,
भिक्षा मांगता यह ईश का नाम कहता।।8।।

याचना करता यह परम दीन बन के,
टिका हुआ है ये सहारे पे जग जन के।
आनन से इसके महा दीनता टपकती,
रोम रोम से इसके करुणा छिटकती।।9।।

जग में इस अनाथ का कोई नहीं है,
भावना जग जन की स्वार्थ में रही है।
इसका सहारा केवल एक वही ईश्वर,
'नमन' उसे जो पालता यह जग नश्वर।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Friday, March 29, 2024

"डायमांटे कविता"

डायमांटे हीरे के लिए इतालवी शब्द है। यह 16 शब्द लंबी कविता है जिसका आकार हीरे के जैसा होता है। सर्व प्रथम यह कविता 1969 में एक अमेरिकन कवि 'आयरिश मैक्लान टायड' द्वारा प्रकाश में लायी गयी।

इस कविता के 16 शब्द सात पंक्तियों में सजाये जाते हैं। साथ ही शब्दों के भेद भी पूर्व निर्धारित हैं।

प्रथम और सातवीं पंक्ति - 1 शब्द (केवल संज्ञा शब्द)
दूसरी और छठी पंक्ति - 2 शब्द (केवल विशेषण शब्द)
तीसरी और पाँचवी पंक्ति - 3 शब्द (केवल क्रियायें)
चौथी पंक्ति - 4 शब्द (केवल संज्ञा शब्द)

डायमांटे कविता दो प्रकार की होती है।
(1) पर्याय डायमांटे (इसमें सातवीं पंक्ति का शब्द प्रथम पंक्ति के संज्ञा शब्द का पर्यायवाची शब्द होता है।)
(2) विलोम डायमांटे (इसमें सातवीं पंक्ति का शब्द प्रथम पंक्ति के संज्ञा शब्द का विलोम अर्थ देने वाला शब्द होता है।)

यदि कोई रचनाकार इस कविता का शीर्षक देना चाहता है तो वह प्रथम पंक्ति के शब्द को शीर्षक के रूप में भी प्रयोग कर सकता है।

अरुण (पर्याय डायमांटे कविता)

            अरुण
      प्रभापूर्ण, सुखकर
   निकला,  बढा,    फैला
आकाश, दिन, प्रकाश, कोलाहल
   चमकाता, जलाता, सताता
         तेज, ज्वलंत
              सूर्य
******   ******

पद्म (पर्याय डायमांटे कविता)

              पद्म
       कोमल, नीला
   खिला, हँसा, महका
सरोवर, विष्णु, प्रातःकाल, पंखुड़ी
   उपजता, निकलता, फैलता
       सुखद, आभायुक्त
            कमल
******   ******

धूप ( विलोम डायमांटे कविता)

              धूप
      प्रखर, कड़कती
   तपाये, झुलसाये, सताये
पंखा,   सूर्य,   पेड़,    ठण्डक
   सिहराती, लुभाती, कँपाती
      शीतल, सुहावनी
              छाँव
******   ******

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28.03.24


Friday, March 22, 2024

"प्रातः वर्णन"

उदित हुआ प्रभाकर प्रखर प्रताप लेके,
समस्त जग को सन्देश स्फूर्ति का देके।
रक्त वर्ण रम्य रश्मियाँ लेके आया,
प्राची दिशि को अरुणिमा से सजाया।।1।।

पद्म खण्ड सुंदर सरोवरों में उपजे,
तुषार बिंदुओं से प्रसस्त पल्लव सजे।
विहग समूह भी आनन्द में समाया,
मधुर कलरव से दिग दिगन्त गूँजाया।।2।।

हर्ष में खिले हैं विभिन्न पशु पक्षी गण,
क्रियाकलाप में लगा सबका ही जीवन।
हर्षोन्माद छाया चहुँ दिशि ओ गगन में, 
उठी उमंग की लहर जनमानस मन में।।3।।

प्रातः शोभा में जग उद्यान लहराया,
दिशाओं में आलोक आवरण छाया।
घोर अंधकार अभी जहां संसार में था,
नीरवता का शासन पूर्ण प्रसार में था।।4।।

कहाँ छिपा रखा था तिमिर वधु निशा ने,
रखा दूर शोभा को कौनसी दिशा ने।
कहाँ से है आयी सुबह की ये शोभा,
कहाँ छिपी थी यह अरुणिमा मन लोभा।।5।।

जीविका के कारण जाना था जिनको बाहर,
जाने लगे वे सजधज गृह को त्यज कर।
रत हुई गृहणियाँ गृह कार्यों में नाना,
आलस्य त्यज नव स्फूर्ति का पहना बाना।।6।।

जलाशय कूपों पर जन समूह छाया,
स्नान पेय हेतु जल उनको भाया।
गो पालक भी अब अकाज न दिखते,
गो दुहन की तैयारी अब वे करते।।7।।

भगवत आलयों में घण्टा घोष छाया,
वातावरण को आरतियों से गूँजाया।
जीवन्त हो उठे हैं विद्यालयों के प्रांगण,
फैलाते प्रार्थनाओं की छात्र नभ में गूँजन।।8।।

कृषक समुदाय भी कुछ खा पी कर,
चल पड़े खेतों में हल बैल ले कर।
सींच रहे मालीगण वाटिकाओं को,
दाना डाल रहे कुछ कपोत सारिकाओं को।।9।।

खिलने लगे मन्जुल कमल सरोवरों में,
आनन्द तरंग उठने लगी चकोरों में।
सुबह के ही कारण यह हर्षोल्लास छाया,
कार्य सागर में अब जग जा समाया।।10।।

नव जागृति का है यह सुंदर सवेरा,
नाना कार्यों की चाह ने जग जन को घेरा।
'नमन' इसे सब कार्य प्रारम्भ इस में होते,
जो इसमें सोते अपना सर्वस्व खोते।।11।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
(1970 की लिखी कविता)

Saturday, March 9, 2024

दोहे "शिव वंदन"

दोहा छंद

सोम बिराजे शीश पे, प्रभु गौरा के कंत।
राज करे कैलाश पर, महिमा दिव्य अनंत।।

काशी के प्रभु छत्र हैं, औघड़ दानी आप।
कष्ट निवारण कर सकल, हरिये कलिमय पाप।।

काशी पावन धाम में, जो जन‌ त्यागें प्राण।
सद्गति पाते जीव वे, होता भव से त्राण।।

त्रिपुरारी सब कष्ट को, दूर करो प्रभु आप।
कृपा-दृष्टि जिस पर पड़े, मिटते भव संताप।।

जो जग का हित साधने, करे गरल का पान।
शिव समान इस विश्व में, उसका होता मान।।

चमके मस्तक चन्द्रमा, सजे कण्ठ पर सर्प।
नन्दीश्वर तुमको 'नमन', दूर करो सब दर्प।

विश्वनाथ को कर 'नमन', दोहे रचे अनूप।
हे प्रभु वन्दन आपको, भर दीज्यो रस रूप।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
30-04-19

Thursday, March 7, 2024

ग़ज़ल (जाने की जिद है)

बह्र:- 221 2121 1221 212

जाने की जिद है या है दिखावा कहें जिसे,
छेड़ा नया क्या अब ये शगूफ़ा कहें जिसे।

घर में लगेगी आग उठेगा धुँआ सनम,
देखेंगे सारे लोग तमाशा कहें जिसे।

महबूब मान जाओ भी कुछ तो बता सबब,
हालत हमारी देख लो खस्ता कहें जिसे।

रूठा है यार दिखती न सूरत मनाने की,
कोई न दे रहा है दिलासा कहें जिसे।

रो लेंगे हम सकून से गर छोड़ जाए वो,
मरहूम कब से लज्जत-ए-गिरिया कहें जिसे।

यादों में उसकी भटकेंगें हम क़ैस की तरह,
उठ जाए चाहे क्यों न जनाज़ा कहें जिसे।

खुदगर्ज़ और लोगों सा बनना नहीं 'नमन',
हरक़त न करना लोग कि बेजा कहें जिसे।

शगूफा = झगड़े की जड़ वाली बात
लज्जत-ए-गिरिया = रोने का स्वाद
क़ैस = मजनूँ

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
20-09-18

Saturday, March 2, 2024

"दो राही"

एक पथिक था चला जा रहा अपने पथ पर
मोह माया को त्याग बढ़ रहा जीवन रथ पर।
जग के बन्धन तोड़ छोड़ आशा का आँचल
पथ पर हुवा अग्रसर लिये अपना मन चंचल।1।

जग की नश्वरता लख उसे वैराग्य हुवा था
क्षणभंगुर इस जीवन पर उसे नैराश्य हुवा था।
जग की दाहक ज्वाला से मन झुलस उठा था
नितप्रति बढ़ती तृष्णा से मन भर चुका था।2।

इस नश्वर जग के प्रति घृणा के अंकुर उपजे
ज्ञान मार्ग अपनाने के मन में भाव सजे।
विचलित हुवा जग से लख जग की स्वार्थपरता
अर्थी जग की ना देख सका वह धनसंचयता।3।

लख इन कृत्रिम कर्मों को छोड़ चला जग को
लगा विचारने मार्ग शांति देने का मन को।
परम शांति का एक मार्ग उसने वैराग्य विचारा
आत्मज्ञान का अन्वेषण जीवन का एक सहारा।4।

एक और भी राही इस जग में देह धरा था
मोह माया का संकल्प उसके जीवन में भरा था।
वृत्ती उसने अपनायी केवल स्वार्थ से पूरित
लख इस वृत्ती को वह अधम हो रहा मोहित।5।

पथ पर हुवा अग्रसर वह पाप लोभ मद के
तट पर था वह विचरता दम्भ क्षोभ नद के।
स्वार्थ दुकूल लपेटे कपटी राहों में भटकता
तृष्णा के झरने में नित वो अपनी प्यास बुझाता।6।

धन संचय ही बनाया एकमात्र जीवन का कर्म
अन्यों का शोषण करना था उसका पावन धर्म।
अपने से अबलों पर जुल्म अनेकों ढ़ाह्ता
अन्यों की आहों पर निज गेह बनाना चाहता।7।

इन दोनो पथिकों में अंतर बहुत बड़ा है
एक चाहता मुक्ति एक बन्धन में पड़ा है।
त्यज जग पहले राही ने मोक्ष मार्ग अपनाया
अपना मोह माया दूजेने जग में रुदन मचाया।8।

इस नश्वर जग में धन्यवान पहले जन
वृत्ती सुधा सम अपना करते अमर वो जीवन।
ज्ञान रश्मि से वे जग में आलोक फैलाते
जग मन उपवन में सुधा वारि बरसाते।9।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-05-1971

Saturday, February 24, 2024

भजन (कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ)

कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।
थर थर काँपत विनवत गोपिन यमुना जल बिच ठाडी गल तउ।।

सुन बोले मृदु हाँसी धर के बैठे शाख कदम्ब कन्हाई।
एक एक कर या फिर सँग में तोकु पड़ेगा बाहर आई।
बन कर भोले कान्ह कहे ये बाहर आ वस्त्रन ले जाहउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।

परम ब्रह्म का रूप तिहारा भला बुरा जो सारा जानें।
तुम्हीं बताओ अब हे ज्ञानी अनुचित कहना कैसन मानें।
चीर देय दउ सो घर जाएँ देर भई तो डाँटिन पड़हउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।

नग्न होय शुचि यमुना पैठो बात ज्ञान की हमें सिखावत।
शुद्धि मिलन की तभी भएगी तन मन से जो हो प्रायश्चत।
'बासु' कहे शुचि मन बाहर आ ब्रह्म प्रकृति का भेद मिटाहउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-12-2018

Tuesday, February 13, 2024

"कहाँ से कहाँ"

मानव तुम कहाँ थे कहाँ पहुँच चुके हो।
ज्ञान-ज्योति से जग आलोकित कर सके हो।
वानरों की भाँति तुम वृक्षों पे बसते थे।
जंगलों में रह कर निर्भय हो रमते थे।।1।।

सभ्यता की ज्योति से दूर थे भटकते।
ज्ञान की निधि से तुम दूर थे विचरते।
कौन है पराया और कौन तेरा अपना।
नहीं समझ पाते थे प्रकृति की रचना।।2।।

परुष पाषाण ही थे अस्त्र शस्त्र तेरे।
जीविका के हेतु लगते थे कितने फेरे।
तेरे थे परम पट पत्र और छालें।
वन-सम्पदा पर तुम देह को थे पाले।।3।।

बिता रहा था पशुवत बन में तु जीवन।
दूर भागता था देख अपने ही स्वजन।
मोह का न नाता वियोग का न दुख था।
धन की न तृष्णा समाज का न सुख था।।4।।

पर भिन्न पशु से हुआ तेरा तुच्छ जीवन।
मन-उपवन में जब खिला ज्ञान का सुमन।
आगे था प्रसस्त तेरे प्रगति का विशाल अम्बर।
चमक उठा उसमें तेरा ज्ञान का दिवाकर।।5।।

त्याग अंध जीवन आ गये तुम प्रकाश में।
लगी गूंजने सभ्यता तेरी हर श्वास में।
लगा बाँधने विश्व ज्ञान के तुम गुण में।
छाने लगी प्रेम शांति अब तुम्हारे गुण में।।6।।

होने लगा लघु जग फैलाने लगा पाँव अपने।
लगा साकार करने भविष्य के समस्त सपने।
रचकर के अनेक यन्त्र जीवन सुलभ बनाया।
मानवी-विकास नई ऊँचाइयों पे पहुँचाया।।7।।

आने लगा इन सब से विलास तेरे जीवन में।
ऊँच नीच के भाव आने लगे तेरे मन में।
भूल गये तुम मिलजुल के साथ चलना।
चाहने लगे तुम अन्यों के श्रम पे पलना।।8।।

कहलाते हो सभ्य यद्यपि इस युग में।
मुदित हो रहे हो इस नश्वर सुख में।
उच्च बन रहे हो अभिमान के तुम रंग में।
मस्त हो रहे घोर स्वार्थ की तरंग में।।9।।

उत्थान और पतन जग का अमिट नियम है।
जीवन और मरण का भी अटल नियम है।
आज उन्नति के शिखर पर पहुँच चुके हो।
अब पतनोन्मुख होने के लिये रुके हो।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता 

Wednesday, February 7, 2024

शिव छंद "कारगिल युद्ध"

कारगिल पहाड़ियाँ।
बर्फ पूर्ण चोटियाँ।।
देश से अभिन्न हैं।
शत्रु देख खिन्न हैं।।

ये सुना रहीं व्यथा।
धूर्त पाक की कथा।।
आक्रमण छली किया।
छल कपट दिखा दिया।।

बागडोर थी 'अटल'।
देश का सबल पटल।।
मोरचा सँभाल फट।
उठ गये जवान झट।।

छोड़ गेह द्वार को।
मात भ्रात प्यार को।।
त्यज सुहाग सेज को।
भोज युक्त मेज को।।

शौर्य पूर्ण लाल वे।
शत्रु के कराल वे।।
वीर चल पड़े तुरत।
मातृभूमि को नवत।।

गिरि शिखर बड़े विकट।
डर जरा न पर निकट।।
झाड़ियाँ विछेद कर।
मग बना बढे जबर।।

तोप गर्जने लगीं।
खूब गोलियाँ दगीं।।
वायुयान की लड़ी।
बम्ब की लगी झड़ी।।

पाक मुँह छुपा भगा।
शौर्य देश का जगा।।
जगमगा उठा वतन।
भारती तुझे 'नमन'।।
***********

शिव छंद विधान -

शिव छंद 11 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह 2121212 मापनी आधारित मात्रिक छंद है। समानिका छंद में यही मापनी वर्णिक स्वरूप में है। परंतु शिव छंद मात्रिक छंद है अतः 2 को 11 में तोड़ने की छूट है। यह रौद्र जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। 
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
28-05-22

Saturday, February 3, 2024

"इधर और उधर"

इधर चलती जनता कछुए सी धीमी चाल,
मचा भीषण आर्तनाद हमारे अंतर को जगाते;
पर हाथों में हाथ धरे हम रह गए सोचते,
क्यों कैसे की उलझन में हिचकोले खाते।
उधर वे सजा काफ़िले ए.सी.कारों के,
सड़कों पे दौड़े सरपट हड़कम्प मचाते ;
इनके ही श्रम पर पलनेवाले वे शोषक,
रह रह कर इनको ही वे आँख दिखाते ।।

इधर घोर दुःखों से भरे हुए इस सागर में,
डोल रही इनकी जीवन नौका लगातार;
पर कैसे गहरे उतरें इस सागर में हम,
और बन जाएं नव क्रांति की इनकी पतवार ।
उधर वे मगरमच्छों से उसमे तैर रहे,
जबड़े खोल और चंगुल का करके प्रसार;
सब कुछ देख रहे हम फिर भी हैं चुप,
क्योंकि मगर से वैर होता नहीं मेरे यार ।।

मरोड़ रही इधर भूख इनकी आंतड़ियां,
और आहों में ही कट जाती इनकी रातें;
पर आखिर समझ नहीं आता हमको,
हम बाँटे तो कैसे बाँटे इनको सौगातें ।
उधर बदहजमी में भी वो लेके डकारें,
नहीं छोड़ते अपनी स्वार्थ की लम्बी बातें;
पर उनकी सुनना मजबूरी रही हमारी,
नहीं तो क्या कहर बरपा दे उनकी घातें ।।

इधर अभाव की ज्वाला में दिल खौल रहा,
व्याप्त हो रही इनके पूरे तन में एक तपन;
पर कैसे ठंडक पहुँचा शांत करें हम,
इन अबलों की वो दुखभरी जलन ।
उधर भेदभाव की उनकी विषभरी नीतियां,
विषबाणों जैसी हमें दे रही चुभन;
पर उन्होंने तो हमें विषधर ही बना डाला,
करा करा उस कराल विष को सहन ।।

इधर बुरे वक़्त की लगी हुई है निरन्तर,
अश्रुधार की सावन जैसी एक झड़ी;
पर कैसे पोंछे हम इनके झड़ते आँसू,
यह एक समस्या सदैव हमारे समक्ष खड़ी ।
उधर नहीं ले रही नाम खत्म होने का,
झूठे वादों की वह द्रौपदी के चीर सी लड़ी;
पर हम अंधों के ये वादे ही हैं एक सहारा,
अब कैसे छोड़ें हम हाथों से एकमात्र छड़ी ।।

हमने करने का तो बहुत कुछ ठाना मन में,
इन दुखियों के लिए द्रवित हो कर;
पर मन की इच्छा दबी रही मन में ही,
क्योंकि कभी किया नहीं कुछ आगे बढ़कर ।
उधर उनके आगे बन्द रखी हमने आँखें,
डर डर कर कभी तो कभी सहम कर;
रख बन्दूक पराए कन्धों पर,
बनना चाहते हम परिवर्तन के सहचर ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी

Wednesday, January 24, 2024

"सुचि जन्म दिवस"

देता है जन्म दिवस पर तुझको तेरा भाई,
आशीर्वाद  संग 'सुचि' तुझे अनेक बधाई,
छब्बीस नवंबर की यह पावन बेला,
हिन्दी के उपवन में तुम यूँ ही रहो छाई।

बासुदेव अग्रवाल नमन



Monday, January 15, 2024

"भारत गौरव"

जय भारत जय पावनि गंगे,
जय गिरिराज हिमालय ;
आज विश्व के श्रवणों में,
गूँजे तेरी पावन लय ।
नमो नमो हे जगद्गुरु,
तेरी इस पुण्य धरा को ;
गुंजित करना ही सुझे,
तेरा यश इन अधरों को ।।1।।

उत्तर में नगराज हिमालय,
तेरा शीश सजाए;
दक्षिण में पावन रत्नाकर,
तेरे चरण धुलाए ।
खेतों की हरियाली तुझको,
हरित वस्त्र पहनाए ;
सरिता और शैल उस में,
मनभावन सुमन सजाए ।।2।।

गंगा यमुना और कावेरी,
की शोभा है निराली;
अपनी पावन जलधारा से,
खेतों में डाले हरियाली ।
तेरी प्यारी भूमि की,
शोभा है बड़ी निराली;
कहीं पहाड़ है कहीं नदी है,
कहीं बालू सोनाली ।।3।।

तुने अपनी ज्ञान रश्मि से,
जग में आलोक फैलाया;
अपनी धर्म भेरी के स्वर से,
तुने जग को गूँजाया ।
तेरे ऋषि मुनियों ने,
जग को उपदेश दिया था;
योग साधना से अपनी,
जग का कल्याण किया था ।।4।।

अनगिनत महाजन जन्मे,
तेरी पावन वसुधा पर;
शरणागतवत्सल वे थे,
अरु थे पर दुख कातर ।
दानशीलता से अपनी,
इनने तुमको चमकाया;
तेरे मस्तक को उनने,
अपनी कृतियों से सजाया ।।5।।

तेरी पुण्य धरा पर,
जन्मे राम कृष्ण अवतारी;
पा कर के उन रत्नों को,
थी धन्य हुई महतारी ।
अनगिनत दैत्य रिपु मारे,
धर्म के कारण जिनने;
ऋषि मुनियों के कष्टों को,
दूर किया था उनने ।।6।।

अशोक बुद्ध से जन्मे,
मानवता के सहायक;
जन जन के थे सहचर,
धर्म भेरी के निनादक ।
राणा शिवा से आए,
हिंदुत्व के वे पालक;
मर मिटे जन्म भूमि पे,
वे देश के सहायक ।।7।।

थे स्वतन्त्रता के चेरे,
भगत सुभाष ओ' गांधी;
अस्थिर न कर सकी थी,
उनको विदेशी आँधी ।
साहस के थे पुतले,
अरु धैर्य के थे सहचर;
सितारे बन के चमके,
वे स्वतन्त्रता के नभ पर ।।8।।

मातृ भूमि की रक्षा का,
है पावन कर्त्तव्य हमारा;
निर्धन दीन निसहाय,
जनों के बनें सहारा ।
नंगों को दें वस्त्र,
और भूखों को दें भोजन;
दुखियों के कष्टों का,
हम सब करें विमोचन।।9।।

ऊँच नीच की पूरी हम,
मन से त्यजें भावना;
रंग एक में रंग जाने की,
हम सब करें कामना ।
भारत के युवकों का,
हो यह पावन कर्म;
देश हमारा उच्च रहे,
उच्च रहे हमारा धर्म ।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

(यह मेरी प्रथम कविता थी जो दशम कक्षा में 02-04-1970 को लिखी थी)

Monday, January 8, 2024

छंदा सागर "मुक्तावली और मौक्तिका"

                     पाठ - 24


छंदा सागर ग्रन्थ


"मुक्तावली और मौक्तिका"


इसके पिछले पाठ में अंत्यानुप्रास पर प्रकाश डाला गया था। अंत्यानुप्रास यानी तुक दो तरह से मिलायी जाती है। पदांत का मिलान करके या ध्रुवांत के साथ समांत का मिलान करके। पदांत और समांत के मिलाने के नियमों में अंतर है। पदांत में स्वर साम्य के साथ वर्ण साम्य आवश्यक है चाहे स्वर लघु हो या दीर्घ हो परन्तु समांत के मिलान में वर्ण साम्य आवश्यक नहीं यदि आंत्य वर्ण दीर्घ मात्रिक हो। हिन्दी की रचनाओं में ध्रुवांत आधारित तुक कम ही दृष्टिगोचर होती है। इस पाठ में हम ध्रुवांत समांत पर आधारित तुकांतता की दो विधाओं का अवलोकन करने जा रहे हैं।

हिन्दी में गजल शैली में काव्य सृजन के प्रति विशेषकर नवोदित साहित्यकार वर्ग काफी उत्साहित है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए इस शैली पर आधारित दो विधाओं को नवीन अवधारणा के साथ यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 

प्रथम विधा में काव्य सृजन द्विपदी के आधार पर होता है। इसमें हर द्विपदी अपने आप में स्वतंत्र होती है पर प्रत्येक द्विपद एक ही तुकांतता में आबद्ध रहता है जिससे रचना में परस्पर कई असंबंधित द्विपदी रहते हुये भी एकरूपता परिलक्षित होती है। इस विधा को पूर्ण रूप से समझने के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दावली का सम्यक ज्ञान आवश्यक है।

मुक्ता :- प्रत्येक स्वतंत्र द्विपदी का नाम ही 'मुक्ता' दिया गया है। प्रत्येक द्विपदी कथन में पूर्वापर संबंध से मुक्त होती है तथा साथ ही विशिष्ट कथ्य शैली में वक्र रूप से कथन के कारण हर द्विपदी एक मुक्ता यानी मोती की तरह है। इसी लिए यह नाम दिया गया है।

पूर्व पद :- एक मुक्ता में दो पद रहते हैं जिसमें प्रथम पद का नाम 'पूर्व पद' है।

उत्तर पद :- मुक्ता के दूसरे पद की संज्ञा उत्तर पद दी गयी है।

मुक्तावली :-  मुक्ता की लड़ी यानी 'मुक्तावली'। एक मुक्तावली में कम से कम चार मुक्ता होने चाहिए। मुक्तावली के मुक्ताओं में पूर्वापर संबंध होना आवश्यक नहीं। मुक्ता सदैव छंदा आधारित होना चाहिए।

आमुख :- मुक्तावली के प्रथम मुक्ता का नाम आमुख दिया गया है। आमुख के दोनों पद समतुकांत होने आवश्यक हैं। आमुख की तुकांतता से ही मुक्तावली के अन्य मुक्ताओं की तुकांतता का निर्धारण होता है। आमुख को छोड़ अन्य मुक्ताओं में केवल मुक्ता का उत्तरपद आमुख की तुकांतता के अनुसार समतुकांत रहना चाहिए। अन्य मुक्ताओं के पूर्व पद में इस तुकांतता का स्वर साम्य तक भी नहीं रह सकता।

आमुखी :- आमुख और आमुखी दोनों समरूप हैं। यदि किसी मुक्तावली में पांच से अधिक मुक्ता हैं तो रचनाकार यदि चाहे तो ठीक आमुख के पश्चात एक आमुखी भी रख सकता है। एक मुक्तावली में एक से अधिक आमुखी नहीं हो सकती।

समापक :- मुक्तावली का अंतिम मुक्ता ही समापक है। एक प्रकार से यह रचना के उपसंहार का मुक्ता होता है। समापक में रचनाकार अपना नाम या उपनाम पिरो सकता है।

मुक्तावली के मुक्ताओं में पूर्वापर संबंध आवश्यक नहीं पर ध्रुवांत के कारण भावों की दिशा निश्चित हो जाती है। मुक्ताओं की परस्पर समतुकांतता के कारण यह एक बंधी हुई सरस संरचना होती है। यदि कोई रचनाकार चाहे तो एक ही भाव पर संपूर्ण मुक्तावली की रचना भी कर सकता है। 

मुक्तावली की संपूर्ण रूपरेखा आमुख से ही बन जाती है। इस रूप रेखा का प्रमुख आधार समांत और ध्रुवांत का निर्धारण है। छंदा का मात्रिक या वर्णिक विन्यास तथा समांत और ध्रुवांत की जुगलबंदी ही मुक्तावली को काव्यात्मक स्वरूप देने के लिए यथेष्ट है अतः मुक्ता के पद की रचना समांत ध्रुवांत की गहराई में जाते हुए प्रभावी वाक्य के रूप में करें। पूर्व पद में कोई अवधारणा लें, कोई भूमिका बांधें या सामान्य सा ही विचार रखें परन्तु उत्तर पद में उसका पटाक्षेप वक्रोक्ति के साथ या प्रभावी उपसंहार के रूप में करें। इसी के कारण कोई द्विपदी मुक्ता बनती है और ऐसे मुक्ताओं की लड़ी मुक्तावली।

मुक्तावली में समांत के निर्धारण में यह सदैव स्मरण रहे कि आमुख का समांत आपने जिस सीमा तक मिला दिया उससे कम आप बाद के मुक्ताओं में नहीं मिला सकते। केवल दीर्घ स्वर का साम्य समांतों में तभी हो सकता है जब आमुख के दोनों समांत में वर्ण भिन्न भिन्न हों। आमुख में यदि 'भुलाना नहीं का समांत 'रोका नहीं'  है तो बाकी मुक्ताओं में आ स्वर का समांत यथेष्ट है। परन्तु 'भुलाना नहीं' का 'सताना नहीं' ले लिया तो और मुक्ताओं में अंत के ना के साथ साथ उपांत का आ स्वर भी मिलाना होगा। इसी प्रकार आमुख में यदि 'भुलाना नहीं' को 'सुलाना नहीं' से मिला दिया तो बाद में केवल रुलाना नहीं, बुलाना नहीं आदि से ही मिला सकते हैं।
***

हिन्दी में चतुष्पदी छंदों के अधिक प्रचलन को देखते हुये इस शैली की दूसरी विधा चतुष्पदी के आधार पर निर्मित की गयी है। पहले इसकी भी परिभाषिक शब्दावली समझें।

मौक्तिक :- मौक्तिक भी ठीक मुक्ता की तरह ही है। इसमें दो के स्थान पर चार पद होते हैं। मौक्तिक सदैव छंदा आधारित होना चाहिए।

पूर्वा : चार पदों के मौक्तिक के प्रथम दो पद की संज्ञा पूर्वा है। पूर्वा का प्रथम पद पूर्व पद तथा दूसरा पद उत्तर पद कहलाता है।

अंत्या :- मौक्तिक के अंतिम दो पद की संज्ञा अंत्या है। इसका भी प्रथम पद पूर्व पद तथा दूसरा पद उत्तर पद कहलाता है।

मौक्तिका :- मौक्तिक की लड़ी ही मौक्तिका है। एक मौक्तिका में कम से कम चार मौक्तिक होने चाहिए। मौक्तिका सामान्यतः एक ही विषय पर कविता की तरह होती है पर कोई रचनाकार चाहे तो मुक्तावली की तरह इसे स्वतंत्र मौक्तिक की लड़ी के रूप में भी रच सकता है। मौक्तिका का प्रथम मौक्तिक भी आमुख कहलाता है। इसमें आमुखी नहीं होती। इसका भी अंतिम मौक्तिक समापक कहलाता है।

मौक्तिका के आमुख की पूर्वा और अंत्या समतुकांत रहती हैं। आमुख की तुकांतता से ही इसमें भी अन्य मौक्तिक की तुकांतता निश्चित होती है। अन्य मौक्तिक की अंत्या का उत्तर पद आमुख के अनुसार समतुकांत रहता है। पूर्वा के दोनों पद भी आपस में समतुकांत रहते हैं पर यह तुकांतता आमुख की तुकांतता से सदैव भिन्न होती है।

एक मौक्तिका का अवलोकन करें -

मौक्तिका (शहीदों की शहादत)
2122*3 212 (छंदा - रीबर)
(ध्रुवांत 'मन में राखलो', समांत 'आज')

भेंट प्राणों की दी जिनने आन रखने देश की,
उन जवानों के हमैशा काज मन में राखलो।।
भूल मत जाना उन्हें तुम ऐ वतन के दोस्तों,
उन शहीदों की शहादत आज मन में राखलो।।

छोड़ के घरबार सारा सरहदों पे जो डटे,
बीहड़ों में जागकर के जूझ रातें दिन कटे।
बर्फ के अंबार में से जो बनायें रास्ते,
उन इरादों का ओ यारों राज मन में राखलो।।

मस्तियाँ कैंपों में करते नाचते, गाते जहाँ,
साथ मिलके बाँटते ये ग़म, खुशी, दुख सब यहाँ।
याद घर की ये भुलाते हँस कभी तो रो कभी,
झूमती उन मस्तियों का साज मन में राखलो।।

गीत इनकी वीरता के गा रही माँ भारती,
देश का हर नौजवाँ इनकी उतारे आरती।
गर्व इनपे तुम करो इनको 'नमन' कर सर झुका  ,
हिन्द की सैना का तुम सब नाज मन में राखलो।।
***

कुण्डला मौक्तिका:- इसकी संरचना कुंडलियाँ छंद के आधार पर की गई है। यह मौक्तिका का ही एक प्रकार है।  इसमें आमुख की पूर्वा का पूर्व पद दोहा की एक पंक्ति होता है तथा उत्तर पद रोला छंद की एक पंक्ति होता है। दोहा की पंक्ति के दूसरे चरण की तुक रोला के प्रथम चरण से मिलाने से रोचकता बढ़ जाती है। कुंडलियाँ छंद की तरह दोहा की पंक्ति जिस शब्द या शब्द समूह से प्रारंभ होती है रोला की पंक्ति का समापन भी उसी शब्द या शब्द समूह से होना आवश्यक है। यह शब्द या शब्द समूह पूरी रचना में ध्रुवांत का काम करता है। यही रूप अंत्या का रहेगा। पूर्वा से ध्रुवांत का निर्धारण हो गया अतः  अंत्या के प्रारंभ में या अन्य मौक्तिक के प्रारंभ में उसका आना आवश्यक नहीं।

अन्य मौक्तिक की पूर्वा में 13+12 मात्रा के मुक्तामणि छंद के दो पद आते हैं या रोला छंद के दो पद। मेरी 'बेटी' शीर्षक की कुण्डला मौक्तिका  देखें-

कुण्डला मौक्तिका (बेटी)
(ध्रुवांत 'बेटी', समांत 'अर')

बेटी शोभा गेह की, मात पिता की शान,
घर की है ये आन, जोड़ती दो घर बेटी।।
संतानों को लाड दे, देत सजन को प्यार,
रस की करे फुहार, नेह दे जी भर बेटी।।

रिश्ते नाते जोड़ती, मधुर सभी से बोले,
रखती घर की एकता, घर के भेद न खोले।
ममता की मूरत बड़ी, करुणा की है धार,
घर का सामे भार, काँध पर लेकर बेटी।।

परिचर्या की बात हो, नारी मारे बाजी,
सेवा करती धैर्य से, रोगी राखे राजी।
आलस सारा त्याग के, करती सारे काम,
रखती अपना नाम, सभी से ऊपर बेटी।।

चले नहीं नारी बिना, घर गृहस्थ की गाडी,
पूर्ण काज सम्भालती, नारी सब की लाडी।
हक देवें, सम्मान दें, उसकी लेवें राय,
दिल को लो समझाय, नहीं है नौकर बेटी।।

जिस हक की अधिकारिणी, कभी नहीं वह पाई,
नर नारी के भेद की, पाट सकी नहिं खाई।
पीछा नहीं छुड़ाइए, देकर चुल्हा मात्र,
सदा 'नमन' की पात्र, रही जग की हर बेटी।।

आमुख 'बेटी' शब्द से प्रारंभ हो रहा है और यह रचना में ध्रुवांत का काम कर रहा है। ध्रुवांत के ठीक पहले विभिन्न समांत घर, भर, कर आदि आ रहे हैं। दोहे की पंक्ति के अंत में आये शब्द शान, प्यार, धार आदि से रोला की प्रथम यति में तुक मिलाई गयी है। अन्य मौक्तिक की पूर्वा में मुक्तामणि छंद की दो पंक्तियाँ है। यह छंद दोहे की पंक्ति का अंत जो लघु होता है, उसको दीर्घ करने से बन जाता है। अतः बहुत उपयुक्त है। मुक्तामणि की जगह रोला की दो पंक्तियाँ भी रखी जा सकती हैं। 

                  ग्रन्थ समापन


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-05-20