Tuesday, March 26, 2019

नील छंद "विरहणी"

नील छंद / अश्वगति छंद

वो मन-भावन प्रीत लगा कर छोड़ चले।
खावन दौड़त रात भयानक आग जले।।
पावन सावन बीत गया अब हाय सखी।
आवन की धुन में उन के मन धीर रखी।।

वर्षण स्वाति लखै जिमि चातक धीर धरे।
त्यों मन व्याकुल साजन आ कब पीर हरे।।
आकुल भू लख अंबर से जल धार बहे।
आतुर ये मन क्यों पिय का वनवास सहे।।

मोर चकोर अकारण शोर मचावत है।
बागन की छवि जी अब और जलावत है।।
ये बरषा विरहानल को भड़कावत है।
गीत नये उनके मन को न सुहावत है।।

कोयल कूक लगे अब वायस काँव मुझे।
पावस के इस मौसम से नहिं प्यास बुझे।।
और बचा कितना अब शेष बिछोह पिया।
नेह-तृषा अब शांत करो लगता न जिया।।
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नील छंद / अश्वगति छंद विधान -

नील छंद जो कि अश्वगति छंद के नाम से भी जाना जाता है, १६ वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है।

"भा" गण पांच रखें इक साथ व "गा" तब दें।
'नील' सुछंदजु  षोडस आखर की रच लें।।

"भा" गण पांच रखें इक साथ व "गा"= 5 भगण+गुरु

(211×5 + गुरु) = 16 वर्ण। चार चरण, दो दो या चारों चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
9-1-17

धुनी छंद "फाग रंग"

फागुन सुहावना।
मौसम लुभावना।
चंग बजती जहाँ।
रंग उड़ते वहाँ।

बालक गले लगे।
प्रीत रस हैं पगे।
नार नर दोउ ही।
नाँय कम कोउ ही।।

राग थिरकात है।
ताल ठुमकात है।
झूम सब नाचते।
मोद मन मानते।।

धर्म अरु जात को।
भूल सब बात को।
फाग रस झूमते।
एक सँग खेलते।।
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लक्षण छंद:-

"भाजग" रखें  गुनी।
'छंद' रचते 'धुनी'।।

"भाजग" = भगण  जगण  गुरु
211 121 2 = 7 वर्ण।
चार चरण दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल
तिनसुकिया
5-3-17

धार छंद "आज की दशा"

अत्याचार।
भ्रष्टाचार।
का है जोर।
चारों ओर।।

सारे लोग।
झेलें रोग।
हों लाचार।
खाएँ मार।।

नेता नीच।
आँखें मीच।
फैला कीच।
राहों बीच।।

पूँजी जोड़।
माथा मोड़।
भागे छोड़।
नाता तोड़।।

आशा नाँहि।
लोगों माँहि।
खोटे जोग।
का है योग।।

सारे आज।
खोये लाज।
ना है रोध।
कोई बोध।।
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लक्षण छंद:-

"माला" राख।
पाओ 'धार'।।

"माला" = मगण लघु
222 1 = 4 वर्ण
4 चरण, 2-2 या चारों चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-03-2017

दोधक छंद "आत्म मंथन"

दोधक छंद / बंधु छंद

मन्थन रोज करो सब भाई।
दोष दिखे सब ऊपर आई।
जो मन माहिं भरा विष भारी।
आत्मिक मन्थन देत उघारी।।

खोट विकार मिले यदि कोई।
जान हलाहल है विष सोई।
शुद्ध विवेचन हो तब ता का।
सोच निवारण हो फिर वा का।।

भीतर झाँक जरा अपने में।
क्यों रहते जग को लखने में।।
ये मन घोर विकार भरा है।
किंतु नहीं परवाह जरा है।।

मत्सर, द्वेष रखो न किसी से।
निर्मल भाव रखो सब ही से।
दोष बचे उर माहिं न काऊ।
सात्विक होवत गात, सुभाऊ।।
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दोधक छंद / बंधु छंद विधान - 

दोधक छंद जो कि बंधु छंद के नाम से भी जाना जाता है, ११ वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है।

"भाभभगाग" इकादश वर्णा।
देवत 'दोधक' छंद सुपर्णा।।

"भाभभगाग" = भगण भगण भगण गुरु गुरु
211  211  211  22 = 11 वर्ण। चार चरण, दो दो सम तुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन,
तिनसुकिया
28-11-2016

तोटक छंद "विरह"

सब ओर छटा मनभावन है।
अति मौसम आज सुहावन है।।
चहुँ ओर नये सब रंग सजे।
दृग देख उन्हें सकुचाय लजे।।

सखि आज पिया मन माँहि बसे।
सब आतुर होयहु अंग लसे।।
कछु सोच उपाय करो सखिया।
पिय से किस भी विध हो बतिया।।

मन मोर बड़ा अकुलाय रहा।
विरहा अब और न जाय सहा।।
तन निश्चल सा बस श्वांस चले।
किस भी विध ये अब ना बहले।।

जलती यह शीत बयार लगे।
मचले  मचले कुछ भाव जगे।।
बदली नभ की न जरा बदली।
पर मैं बदली अब हो पगली।।
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लक्षण छंद:-

जब द्वादश वर्ण "ससासस" हो।
तब 'तोटक' पावन छंदस हो।।

"ससासस" = चार सगण
112  112  112  112 = 12 वर्ण
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-07-17

Friday, March 22, 2019

तिलका छंद "युद्ध"

गज अश्व सजे।
रण-भेरि बजे।।
जब स्यंद हिले।
सब वीर खिले।।

ध्वज को फहरा।
रथ रौंद धरा।।
बढ़ते जब ही।
सिमटे सब ही।।

बरछे गरजे।
सब ही लरजे।।
जब बाण चले।
धरणी दहले।।

नभ नाद छुवा।
रण घोर हुवा।
रज खूब उड़े।
घन ज्यों उमड़े।।

तलवार चली।
धरती बदली।।
लहु धार बही।
भइ लाल मही।।

कट मुंड गए।
सब त्रस्त भए।।
धड़ नाच रहे।
अब हाथ गहे।।

शिव तांडव सा।
खलु दानव सा।।
यह युद्ध चला।
सब ही बदला।।

जब शाम ढ़ली।
चँडिका हँस ली।।
यह युद्ध रुका।
सब जाय चुका।।
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लक्षण छंद:-

"सस" वर्ण धरे।
'तिलका' उभरे।।
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"सस" = सगण सगण
(112 112),
दो-दो चरण तुकांत (6वर्ण प्रति चरण )
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-01-19

चन्द्रिका छंद "वचन सार"

सुन कर पहले, कथ्य को तोलना।
समझ कर तभी, शब्द को बोलना।।
गुण यह जग में, बात से मान दे।
सरस अमिय का, सर्वदा पान दे।।

मधुरिम कथनी, प्रेम की जीत दे।
कटु वचन वहीं, तोड़ ही प्रीत दे।।
वचन पर चले, साख व्यापार की।
कथन पर टिकी, रीत संसार की।।

मुख अगर खुले, सत्य वाणी कहें।
असत वचन से, दूर कोसों रहें।।
जग-मन हरता, सत्यवादी सदा।
यह बहुत बड़ी, मानवी संपदा।।

छल वचन करे, भग्न विश्वास को।
कपट हृदय तो, प्राप्त हो नाश को।।
व्रण कटु वच का, ठीक होता नहीं।
मधु बयन जहाँ, हर्ष सारा वहीं।।
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लक्षण छंद:-

"ननततु अरु गा", 'चन्द्रिका' राचते।
यति सत अरु छै, छंद को साजते।।

"ननततु अरु गा" = नगण नगण तगण तगण गुरु
(111 111 2   21 221  2)
दो दो चरण समतुकांत, 7, 6 यति।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-01-18

चंचला छंद "बसन्त वर्णन"

छा गयी सुहावनी बसन्त की छटा अपार।
झूम के बसन्त की तरंग में खिली बहार।।
कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज।
पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।।

धार पीत चूनड़ी समस्त क्षेत्र हैं विभोर।
झूमते बयार संग ज्यों समुद्र में हिलोर।।
यूँ लगे कि मस्त वायु छेड़ घूँघटा उठाय।
भू नवीन व्याहता समान ग्रीव को झुकाय।।

कोयली सुना रही सुरम्य गीत कूक कूक।
प्रेम-दग्ध नार में रही उठाय मूक हूक।।
बैंगनी, गुलाब, लाल यूँ भए पलाश आज।
आ गया बसन्त फाग खेलने सजाय साज।।

आम्र वृक्ष स्वर्ण बौर से लदे झुके लजाय।
अप्रतीम ये बसन्त की छटा रही लुभाय।।
हास का विलास का सुरम्य भाव दे बसन्त।
काव्य-विज्ञ को प्रदान कल्पना करे अनन्त।।
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लक्षण छंद:-

"राजराजराल" वर्ण षोडसी रखो सजाय।
'चंचला' सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।।
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"राजराजराल" = रगण जगण रगण जगण रगण लघु
21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण में। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-12-2016

घनश्याम छंद "दाम्पत्य-मन्त्र"

विवाह पवित्र, बन्धन है पर बोझ नहीं।
रहें यदि निष्ठ, तो सुख के सब स्वाद यहीं।।
चलूँ नित साथ, हाथ मिला कर प्रीतम से।
रखूँ मन आस, काम करूँ सब संयम से।।

कभी रहती न, स्वारथ के बस हो कर के।
समर्पण भाव, नित्य रखूँ मन में धर के।।
परंतु सदैव, धार स्वतंत्र विचार रहूँ।
जरा नहिं धौंस, दर्प भरा अधिकार सहूँ।।

सजा घर द्वार, रोज पका मधु व्यंजन मैं।
लखूँ फिर बाट, नैन लगा कर अंजन मैं।।
सदा मन माँहि, प्रीत सजाय असीम रखूँ।
यही रख मन्त्र, मैं रस धार सदैव चखूँ।।

बसा नव आस, जीवन के सुख भोग रही।
निरर्थक स्वप्न, की भ्रम-डोर कभी न गही।।
करूँ नहिं रार, साजन का मन जीत जिऊँ।
यही सब धार, जीवन की सुख-धार पिऊँ।।
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लक्षण छंद:-

"जजाभभभाग", में यति छै, दश वर्ण रखो।
रचो 'घनश्याम', छंद अतीव ललाम चखो।।

 "जजाभभभाग" = जगण जगण भगण भगण भगण गुरु]
121  121  211   211   211  2 = 16 वर्ण

यति 6,10 वर्णों पर, 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-4-17

Saturday, March 16, 2019

चौपाई छंद "कलियुगी शतानन"

सिया राम चरणों में वंदन। मेटो अब कलयुग का क्रंदन।।
जब जब बढ़े पाप का भारा। तब तब प्रभु तुम ले अवतारा।।

त्रेता माहि भया रिपु भारी। सुर नर मुनि का कष्टनकारी।।
रावण नाम सकल जग जानी। दस शीशों का वह अभिमानी।।

कलयुग माहि जनम पुनि लीन्हा। घोर तपस्या विधि की कीन्हा।।
त्रेता से रावण को चीन्हा। सोच विचारि ब्रह्म वर दीन्हा।।

चार माथ का संकट भारी। विधि जाने कितना दुखकारी।।
ब्रह्मा चतुराई अति कीन्ही।वैसी विपदा वर में दीन्ही।।

जस जस अत्याचार बढ़ाये। त्यों त्यों वह नव मस्तक पाये।।
शत शीशों तक वर न रुकेगा। धर्म करेगा तभी थमेगा।।

वर का मर्म न समझा पापी। आया मोद मना संतापी।।
पा अद्भुत वर विकट निशाचर। पातक घोर करे निशि वासर।।

रावण ने फैलाई माया। सूक्ष्म रूप में घर घर आया।।
भाँत भाँत के भेष बनाकर। पैठे मानव-मन में जा कर।।

जहँ जहँ देखे कमला वासा। सहज लक्ष्य लख फेंके पासा।।
साहूकार सेठ उद्योगी। हुये सभी रावण-वश रोगी।।

वशीभूत स्वारथ के कर के। बुद्धि विवेक ज्ञान को हर के।।
व्याभिचार शोषण फैलाया। ठगी लूट का तांडव छाया।।

ब्रह्मा का वर टरै न टारे। शीश लगे बढ़ने मतवारे।।
त्रेता का जो वीर दशानन। शत शीशों का भया शतानन।।

अधिकारी भक्षक बन बैठे। सत्ता भीतर गहरे पैठे।।
आराजक हो लूट मचाये। जहँ जहँ लिछमी तहँ तहँ छाये।।

शत आनन के चेले चाँटे। संशाधन अपने में बाँटे।।
त्राहि त्राहि सर्वत्र मची है। माया रावण खूब रची है।।

पीड़ित शोषित जन हैं सारे। आहें विकल भरे दुखियारे।।
सुनहु नाथ अब लो अवतारा। करहु देश का तुम उद्धारा।।

इस शत आनन का कर नाशा। मेटो भूमण्डल का त्रासा।।
तुम बिन नाथ कौन जग-त्राता। 'बासुदेव' तव यश नित गाता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-07-2016

चौपइया छंद *राखी*

पर्वों में न्यारी, राखी प्यारी, सावन बीतत आई।
करके तैयारी, बहन दुलारी, घर आँगन महकाई।।
पकवान पकाए, फूल सजाए, भेंट अनेकों लाई।
वीरा जब आया, वो बँधवाया, राखी थाल सजाई।।

मन मोद मनाए, बलि बलि जाए, है उमंग नव छाई।
भाई मन भाए, गीत सुनाए, खुशियों में बौराई।।
डाले गलबैयाँ, लेत बलैयाँ, छोटी बहन लडाई।
माथे पे बिँदिया, ओढ़ चुनरिया, जीजी मंगल गाई।।

जब जीवन चहका, बचपन महका, तुम थी तब हमजोली।
मिलजुल कर खेली, तुम अलबेली, आए याद ठिठोली।।
पूरा घर चटके, लटकन लटके, आंगन में रंगोली।
रक्षा की साखी, है ये राखी, बहना तुम मुँहबोली।।

हम भारतवासी, हैं बहु भाषी, मन से भेद मिटाएँ।
यह देश हमारा, बड़ा सहारा, इसका मान बढ़ाएँ।।
बहना हर नारी, राखी प्यारी, सबसे ही बँधवाएँ।
त्योहार अनोखा, लागे चोखा, हमसब साथ मनाएँ।।
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चौपइया छंद *विधान*

यह  प्रति चरण 30 मात्राओं का सममात्रिक छंद है। 10, 8,12 मात्राओं पर यति। प्रथम व द्वितीय यति में अन्त्यानुप्रास तथा छंद के चारों चरण समतुकांत। प्रत्येक चरणान्त में गुरु (2) आवश्यक है, चरणान्त में दो गुरु होने पर यह छंद मनोहारी हो जाता है।
इस छंद का प्रत्येक यति में मात्रा बाँट निम्न प्रकार है।
प्रथम यति: 2 - 6 - 2
द्वितीय यति: 6 - 2
तृतीय यति: 6 - 2 - 2 - गुरु

(भए प्रगट कृपाला दीन दयाला इसी छंद में है।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-08-2016

चंचरीक छंद "बाल कृष्ण"

चंचरीक छंद / हरिप्रिया छंद

घुटरूवन चलत श्याम, कोटिकहूँ लजत काम,
सब निरखत नयन थाम, शोभा अति प्यारी।
आँगन फैला विशाल, मोहन करते धमाल,
झाँझन की देत ताल, दृश्य मनोहारी।।
लाल देख मगन मात, यशुमति बस हँसत जात,
रोमांचित पूर्ण गात, पुलकित महतारी।
नन्द भी रहे निहार, सुख की बहती बयार,
बरसै यह नित्य धार, जो रस की झारी।।

करधनिया खिसक जात, पग घूँघर बजत जात,
मोर-पखा सर सजात, लागत छवि न्यारी।
माखन मुख में लिपाय, मुरली कर में सजाय,
ठुमकत सबको रिझाय, नटखट सुखकारी।
यह नित का ही उछाव, सब का इस में झुकाव,
ब्रज के संताप दाव, हरते बनवारी।।
सुर नर मुनि नाग देव, सब को ही हर्ष देव,
बरनत कवि 'बासुदेव', महिमा ये सारी।।
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चंचरीक छंद / हरिप्रिया छंद विधान -

चंचरीक छंद को हरिप्रिया छंद के नाम से भी जाना जाता है। यह छंद चार पदों का प्रति पद 46 मात्राओं का सम मात्रिक दण्डक है। इसका यति विभाजन (12+12+12+10) = 46 मात्रा है। मात्रा बाँट - 12 मात्रिक यति में 2 छक्कल का तथा अंतिम यति में छक्कल+गुरु गुरु है। इस प्रकार मात्रा बाँट 7 छक्कल और अंत गुरु गुरु का है। सूर ने अपने पदों में इस छंद का पुष्कल प्रयोग किया है। तुकांतता दो दो पद या चारों पद समतुकांत रखने की है। आंतरिक यति में भी तुकांतता बरती जाय तो अति उत्तम अन्यथा यह नियम नहीं है।

यह छंद चंचरी छंद या चर्चरी छंद से भिन्न है। भानु कवि ने छंद प्रभाकर में "र स ज ज भ र" गणों से युक्त वर्ण वृत्त को चंचरी छंद बताया है जो 26 मात्रिक गीतिका छंद ही है। जिसका प्रारूप निम्न है।
21211  21211  21211  212

केशव कवि ने रामचन्द्रिका में भी इसी विधान के अनुसार चंचरी छंद के नाम से अनेक छंद रचे हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-08-17

Thursday, March 14, 2019

हरिगीतिका छंद "भैया दूज"

तिथि दूज शुक्ला मास कार्तिक, मग्न बहनें चाव से।
भाई बहन का पर्व प्यारा, वे मनायें भाव से।
फूली समातीं नहिं बहन सब, पाँव भू पर नहिं पड़ें।
लटकन लगायें घर सजायें, द्वार पर तोरण जड़ें।

कर याद वीरा को बहन सब, नाच गायें झूम के।
स्वादिष्ट भोजन फिर पका के, बाट जोहें घूम के।
करतीं तिलक लेतीं बलैयाँ, अंक में भर लें कभी।
बहनें खिलातीं भ्रात खाते, भेंट फिर देते सभी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-10-2016

गीतिका छंद "चातक पक्षी"

मास सावन की छटा सारी दिशा में छा गयी।
मेघ छाये हैं गगन में यह धरा हर्षित भयी।।
देख मेघों को सभी चातक विहग उल्लास में।
बूँद पाने स्वाति की पक्षी हृदय हैं आस में।।

पूर्ण दिन किल्लोल करता संग जोड़े के रहे।
भोर की करता प्रतीक्षा रात भर बिछुड़न सहे।।
'पी कहाँ' है 'पी कहाँ' की तान में ये बोलता।
जो विरह से हैं व्यथित उनका हृदय सुन डोलता।।

नीर बरखा बूँद का सीधा ग्रहण मुख में करे।
धुन बड़ी पक्की विहग की अन्यथा प्यासा मरे।।
एक टक नभ नीड़ से लख धैर्य धारण कर रखे।
खोल के मुख पूर्ण अपना बाट बरखा की लखे।।

धैर्य की प्रतिमूर्ति है यह सीख इससे लें सभी।
प्रीत जिससे है लगी छाँड़ै नहीं उसको कभी।।
चातकों सी धार धीरज दुख धरा के हम हरें।
लक्ष्य पाने की प्रतीक्षा पूर्ण निष्ठा से करें।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-07-2017

गीतिका/हरिगीतिका छंद विधान

गीतिका छंद :- ये चार पदों का एक सम-मात्रिक छंद है. प्रति पंक्ति 26 मात्राएँ होती हैं तथा प्रत्येक पद 14-12 अथवा 12-14 मात्राओं की यति के अनुसार होता है.
इसका वर्ण विन्यास निम्न है।
2122  2122  2122  212

चूँकि गीतिका छंद एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है परंतु 3 री, 10 वीं, 17 वीं और 24 वीं मात्रा सदैव लघु होगी। अंत सदैव गुरु वर्ण से होता है। इसे 2 लघु नहीं किया जा सकता।
चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत।

हरिगीतिका छंद :- इसकी भी लय गीतिका छंद वाली ही है तथा गीतिका छंद के प्राम्भ में गुरु वर्ण बढ़ा देने से हरिगीतिका हो जाती है। यह चार पदों का एक सम-मात्रिक छंद है. प्रति पंक्ति 28 मात्राएँ होती हैं तथा यति 16 और 12 मात्राओं पर होती है। यति 14 और 14 मात्रा पर भी रखी जा सकती है। गुप्त जी का उदाहरण देखें:-

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती।
भगवान ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।

गीतिका छंद में एक गुरु बढ़ा देने से इसका वर्ण विन्यास निम्न प्रकार होता है।
2212  2212  2212  2212

चूँकि हरिगीतिका छंद एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है परंतु 5 वीं, 12 वीं, 19 वीं, 26 वीं मात्रा सदैव लघु होगी। अंत सदैव गुरु वर्ण से होता है। इसे 2 लघु नहीं किया जा सकता।
चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत।

इस छंद की धुन  "श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन" वाली है।

एक उदाहरण:-
मधुमास सावन की छटा का, आज भू पर जोर है।
मनमोद हरियाली धरा पर, छा गयी चहुँ ओर है।
जब से लगा सावन सुहाना, प्राणियों में चाव है।
चातक पपीहा मोर सब में, हर्ष का ही भाव है।।
(बासुदेव अग्रवाल रचित)

Tuesday, March 12, 2019

ग़ज़ल (सारी मुसीबतों की)

बह्र:- (221  2122)*2

सारी मुसीबतों की, जड़ पाक तू नकारा,
आतंकियों का गढ़ तू, है झूठ का पिटारा।

औकात कुछ नहीं पर, आता न बाज़ फिर भी, 
तू भूत जिसको लातें, खानी सदा गवारा।

किस बात की अकड़ है, किस जोर पे तू नाचे,
रह जाएगा अकेला, कर लेगा जग किनारा।

तुझसा नमूना जग में, मिलना बड़ा है मुश्किल,
अब तुझ पे हँस रहा है, दुनिया का हर सितारा।

सद्दाम से दिये चल, हिटलर से टिक न पाये,
किस खेत की तू मूली, जाएगा यूँ ही मारा।

सदियों से था, वो अब भी, आगे वही रहेगा,
तेरा तो बाप बच्चे, हिन्दोस्तां हमारा।

हर हिन्द वासी कहता, नापाक पाक सुनले,
तुझको बचा सके बस, अब हिन्द का सहारा।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-2-18

ग़ज़ल (ये हुस्न मौत का तो)

बह्र:- (221  2122)*2

ये हुस्न मौत का तो सामान हो न जाए,
मेरी ये जिंदगी अब तूफान हो न जाए।

बातें जुदाई की तू मुझसे न यूँ किया कर,
सुनके जिन्हें मेरा जी हलकान हो न जाए।

तूने दिया जफ़ा से हरदम वफ़ा का बदला,
इस सिलसिले में उल्फ़त कुर्बान हो न जाए।

वापस वो जब से आई मन्नत ये तब से मेरी,
तकरार फिर से अब इस दौरान हो न जाए।

तब तक दिखे न हमको सब में हमारी सूरत,
जब तक जगत ये पूरा भगवान हो न जाए।

मतलब परस्त इंसां को रब न दे तु इतना,
पा के जिसे कहीं वो हैवान हो न जाए।

ये इल्तिज़ा 'नमन' की उससे कभी किसी का,
नुक्सान हो न जाए, अपमान हो न जाए।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-1-18

ग़ज़ल (गर्दिश में सितारे हों जिसके)

बह्र:- (221  1222  22)*2

गर्दिश में सितारे हों जिसके, दुनिया को भला कब
भाता है,
वो लाख पटक ले सर अपना, लोगों से सज़ा ही पाता है।

मुफ़लिस का भी जीना क्या जीना, जो घूँट लहू के पी जीए,
जितना वो झुके जग के आगे, उतनी ही वो ठोकर खाता है।

ऐ दर्द चला जा और कहीं, इस दिल को भी थोड़ी राहत हो,
क्यों उठ के गरीबों के दर से, मुझको ही सदा तड़पाता है।

इतना भी न अच्छा बहशीपन, दौलत के नशे में पागल सुन,
जो है न कभी टिकनेवाली, उस चीज़ पे क्यों इतराता है।

भेजा था बना जिसको रहबर, पर पेश वो रहज़न सा आया,
अब कैसे यकीं उस पर कर लें, जो रंग बदल फिर आता है।

माना कि जहाँ नायाब खुदा, कारीगरी हर इसमें तेरी,
पर दिल को मनाएँ कैसे हम, रह कर जो यहाँ घबराता है।

ये शौक़ 'नमन' ने पाला है, दुख दर्द पिरौता ग़ज़लों में,
बेदर्द जमाने पर हँसता, मज़लूम पे आँसू लाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-03-18

ग़ज़ल (भाषा बड़ी है प्यारी)

बह्र:- (22  122  22)*2

भाषा बड़ी है प्यारी, जग में अनोखी हिन्दी,
चन्दा के जैसे  सोहे, नभ में निराली हिन्दी।

इसके लहू में संस्कृत, थाती बड़ी है पावन,
ये सूर, तुलसी, मीरा, की है बसाई हिन्दी।

पहचान हमको देती, सबसे अलग ये जग में,
मीठी  जगत में सबसे, रस की पिटारी हिन्दी।

हर श्वास में ये बसती, हर आह से ये निकले,
बन  के  लहू ये बहती, रग में ये प्यारी हिन्दी।

इस देश में है भाषा, मजहब अनेकों प्रचलित,
धुन एकता की  डाले, सब में सुहानी हिन्दी।

हम नाज़ इस पे करते, सुख दुख इसी में बाँटें,
भारत का पूरे जग में, डंका बजाती हिन्दी।

शोभा हमारी इससे, करते 'नमन' हम इसको,
सबसे रहे ये ऊँची,  मन में  हमारी हिन्दी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-09-2016

Friday, March 8, 2019

कामरूप छंद "आज की नारी"

कामरूप छंद / वैताल छंद

नारी न अबला, पूर्ण सबला, हो गई है आज।
वह भव्यता से, दक्षता से, सारती हर काज।।
हर क्षेत्र में रत, कर्म में नत, आज की ये नार।
शासन सँभाले, नभ खँगाले,सामती घर-बार।।

होती न विचलित, वो समर्पित, आत्मबल से चूर।
अवरोध जग के, कंट मग के, सब करे वह दूर।।
धर आस मन में, स्फूर्ति तन में, धैर्य के वह साथ।
आगे बढ़े नित, चित्त हर्षित, रख उठा कर माथ।।

परिचारिका बन, जीत ले मन, कर सके हर काम।
जग से जुड़ी वह, ताप को सह, अरु कमाये नाम।।
जो भी करे नर, वह सके कर, सद्गुणों की खान।
सच्ची सहायक, मोद दायक, पूर्ण निष्ठावान।।

पीड़ित रही हो, दुख सही हो, खो सदा अधिकार।
हरदम दिया है, सब किया है, फिर बनी क्यों भार।।
कहता 'नमन' यह, क्यों दमन सह, अब रहें सब नार।
शोषण तुम्हारा, शर्मशारा, ये हमारी हार।।

कामरूप छंद / वैताल छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन',
तिनसुकिया
08-10-17