Saturday, April 27, 2019

मनहरण घनाक्षरी 'भारत महिमा"

उत्तर बिराज कर, गिरिराज रखे लाज,
तुंग श्रृंग रजत सा, मुकुट सजात है।

तीन ओर पारावार, नहीं छोर नहीं पार,
मारता हिलोर भारी, चरण धुलात है।

जाग उठे तेरे भाग, गर्ज गंगा गाये राग,
तेरी इस शोभा आगे, स्वर्ग भी लजात है।

तुझ को 'नमन' मेरा, अमन का दूत तू है,
जग का चमन हिन्द, सब को रिझात है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-12-16

मनहरण घनाक्षरी "समाज-सेवी"

करे खुद विष-पान, रखके सभी का मान,
रखता समाज को जो, हरदम जोड़ के।

सब को ले साथ चले, नहीं भेदभाव रखे,
एकता में बाँध रखे, बिन तोड़-फोड़ के।

थोथी बातें नहीं करे, सदा खुद आगे आये,
बने वो उदाहरण, रूढ़ियों को तोड़ के।

सर पे बिठाते लोग, ऐसे कर्मवीर को जो,
करता समाज-सेवा, स्वार्थ सब छोड़ के।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-17

घनाक्षरी सृजन के नियम

घनाक्षरी वर्णिक छंद है जिसमें 30 से लेकर 33 तक वर्ण होते हैं परंतु अन्य वर्णिक छन्दों की तरह इसमें गणों का नियत क्रम नहीं है। यह कवित्त के नाम से भी प्रसिद्ध है। घनाक्षरी गणों के और मात्राओं के बंधन में बंधा हुआ छंद नहीं है परंतु इसके उपरांत भी बहुत ही लय युक्त मधुर छंद है और यह लय कुछेक नियमों के अनुपालन से ही सधती है। अतः घनाक्षरी केवल अक्षरों को गिन कर बैठा देना मात्र नहीं है। इसमें साधना की आवश्यकता है तथा ध्यान पूर्वक लय के नियमों के अंतर्गत ही इसका सफल सृजन होता है। मैने इस छंद को नियमबद्ध करने का प्रयास किया है और मुझे विश्वास है कि इन नियमों के अंतर्गत कोई भी गंभीर सृजक लय युक्त निर्दोष घनाक्षरी सृजित कर पायेगा।

किसी भी प्रकार की घनाक्षरी में प्रथम यति 16 वर्ण पर निश्चित है। इस यति को भी यदि कोई चाहे तो 8+8 के दो विभागों में विभक्त कर सकता है। दूसरी यति घनाक्षरी के भेदों के अनुसार 30, 31, 32, या 33 वर्ण पर पड़ती है ओर यह घनाक्षरी का एक चरण हो गया। इस यति में भी 8 वर्ण के पश्चात आभ्यांतरिक यति रखी जा सकती है। इस प्रकार के चार चरणों का एक छंद होता है और चारों चरण समतुकांत होने आवश्यक है।
निम्न नियम हर प्रकार की घनाक्षरी के लिए उपयुक्त है।

चार चार अक्षरों के, शुरू से बना लो खंड,
अक्षरों का क्रम, एक दोय तीन चार है।

समकल शब्द यदि, एक ती से होय शुरू,
मत्त के नियम का न, सोच व विचार है।

चार से जो शुरू शब्द, 'नगण' या लघु गुरु।
शुरू यदि दो से तब, लघु शुरू भार है।

एक पे समाप्त शब्द, लघु गुरु नित रहे।
'नमन' घनाक्षरी का, बस यही सार है।।
*****
समकल शब्द यानि 2, 4, 6 अक्षर का शब्द।
मत्त=मात्रा
'नगण' = तीन अक्षर के शब्द में तीनों लघु।

खण्ड = 1/खण्ड = 2/खण्ड = 3/खण्ड = 4
1 2 3 4// 1 2 3 4// 1 2 3 4// 1 2 3 4

ऊपर घनाक्षरी की प्रथम यति के16 वर्ण चार चार के खंड में विभाजित किये गए हैं। द्वितीय यति भी इसी प्रकार विभाजित होगी। उनका क्रम 1,2,3,4 है। घनाक्षरी के नियम इसी बात पर आधारित हैं कि शब्द खण्ड की किस क्रम संख्या से प्रारंभ हो रहा है अथवा किस क्रम संख्या पर समाप्त हो रहा है। ऊपर के विभाजन को देखने से पता चलता है कि जो नियम प्रथम खण्ड की 1 की संख्या के लिए लागू हैं वे ही नियम पंक्ति के क्रम 5, 9, 13 के लिए भी ठीक हैं। यही बात प्रथम खण्ड की क्रम संख्या 2, 3, 4 के लिए भी समझें।

नियम1:- समकल शब्द यदि चार अक्षरों के खंड के प्रथम और तृतीय अक्षर से प्रारम्भ होता है तो वह शब्द मात्रा के नियमों से मुक्त है अर्थात उस शब्द में लघु गुरु मात्रा का कुछ भी क्रम रख सकते हैं।

नियम2:-
"चार से जो शुरू शब्द, 'नगण' या लघु गुरु"
किसी भी खण्ड की क्रम संख्या 4 से प्रारंभ शब्द के शुरू में लघु गुरु (1 2) रहता है। वह शब्द यदि त्रिकल है तो लघु गुरु से भी प्रारंभ हो सकता है या फिर शब्द में तीनों लघु हो सकते हैं। एकल इस नियम से मुक्त है, यह शब्द दीर्घ या लघु कुछ भी हो सकता है।

नियम3:-"शुरू यदि दो से तब, लघु शुरू भार है"
किसी भी खण्ड की क्रम संख्या 2 से प्रारंभ शब्द सदैव लघु से ही प्रारंभ होता है। परंतु एकल पर यह नियम लागू नहीं है।

नियम4:- "एक पे समाप्त शब्द, लघु गुरु नित रहे"
इस बात को थोड़ा ध्यान पूर्वक समझें कि क्रम संख्या 1 पर समाप्त शब्द सदैव लघु गुरु (1 2) रहना चाहिए। परन्तु प्रथम खण्ड के 1 पर तो लघु गुरु 2 अक्षरों की गुंजाइश नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि वह शब्द एकल है और सदैव दीर्घ जैसे 'है' 'जो' 'ज्यों' इत्यादि ही रहेगा। खण्ड की क्रम संख्या 1 से प्रारंभ एकल शब्द लघु जैसे 'न' 'व' इत्यादि नहीं हो सकता। तो एकल यदि किसी भी खंड के प्रथम स्थान पर है तो वह सदैव दीर्घ रहता है, अन्यथा एकल इस नियम से मुक्त है। यानि अन्य स्थानों पर एकल लघु या दीर्घ कुछ भी हो सकता है। दूसरी बात यह कि खण्ड 2, 3,4 की क्रम संख्या 1 पर समाप्त शब्द यदि एक से अधिक अक्षर का है तो उस शब्द का अंत सदैव लघु गुरु (1 2) से होना चाहिए। जैसे 'सदा', 'संपदा' 'लुभावना' आदि। एक पंक्ति देखें
"हाय तोहरा लजाना, है लुभावना सुहाना"

इसके अतिरिक्त किसी भी खण्ड के प्रारंभ के त्रिकल शब्द में गणों का अनुशासन भी आवश्यक है। किसी भी खण्ड का 1 से 3 का त्रिकल शब्द मध्य गुरु का न रखें, इससे लय में व्यवधान उत्पन्न होता है। यानि कोई भी खण्ड जगण, तगण, यगण या मगण से प्रारंभ न हो। यह अनुशासन केवल पूर्ण त्रिकल के लिए है, यदि यह त्रिकल दो शब्दों से बनता है तो यह अनुशासन लागू नहीं है।

मात्रा मैत्री निभानी भी आवश्यक है। यदि एक विषमकल शब्द आता है तो उसके तुरन्त बाद दूसरा विषमकल शब्द आये जिससे दोनों मिल कर समकल हो जाये। क्योंकि घनाक्षरी का प्रवाह समकल पर आधारित है। परन्तु दो विषमकलों के मध्य 12 से शुरू होनेवाला शब्द आ सकता है।

जैसे द्विजदेव का एक उदाहरण देखें।

घहरि घहरि घन सघन चहूंधा घेरि
छहरि छहरि विष बूंद बरसावै ना।
'द्विजदेव' की सों अब चूक मत दांव एरे
पातकी पपीहा तू पिया की धुनि गावै ना।
फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ एरे
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना ।
हौं तो बिन प्रान प्रान चहत तज्योई अब
कत नभचन्द तू अकास चढ़ि धावै ना।।

'तू पिया की' में दो विषमकलों के मध्य 12 से शुरू होने वाले शब्द को देखें। और भी बताए हुये नियमों पर गौर करें। मुझे आशा है इन नियमों का पालन करते हुए आप सफल घनाक्षरी का सृजन कर सकेंगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

Thursday, April 25, 2019

भजन "माता के दरबार चलो"

माता के दरबार चलो।
माता बेड़ा पार करेगी, करके ये स्वीकार चलो।।

जग के बन्धन यहीं रहेंगे, प्राणी क्यों भरमाया है।
मात-चरण की शरण धार के, मन से त्यज संसार चलो।।
माता के दरबार चलो।।

जितना रस लो उतना घेरे, जग की तृष्णा ऐसी है।
रिश्ते-नाते लोभ मोह का, छोड़ यहाँ व्यापार चलो।।
माता के दरबार चलो।

आदि शक्ति जगदम्ब भवानी, जग की पालनहारा है।
माँ से बढ़ कर कोउ न दूजा, मन में ये तुम धार चलो।।
माता के दरबार चलो।

नवरात्री की महिमा न्यारी, अवसर पावन आया है।
'नमन' कहे माँ के धामों में, सारे ही नर नार चलो।।
माता के दरबार चलो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-09-17

भजन "चरण-छटा श्रीजी की न्यारी"

चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।
मैं छिन छिन जाऊँ बलिहारी।।

वृषभानु और कीर्ति की प्यारी बरसाने की दुलारी।
निश्छल अरु निस्वार्थ प्रेम की मूरत यह मनहारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।।

उर में जोड़ी बसी रहे श्याम सलोने और तिहारी।
नैनों से कभी अलग ना हो ये जोड़ी प्यारी प्यारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।।

जो अनुराग रखे माता में उसकी सब विपदा टारी।
गोलोकधाम की महारानी की शोभा जग में भारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।

उर में बसो हे राधा रानी पीर हरो मेरी सारी।
शत शत 'नमन' करूँ नित ही अरु महिमा गाऊँ थारी।
चरण-छटा श्रीजी की न्यारी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-07-2016

Wednesday, April 24, 2019

प्रहरणकलिका छंद "विकल मन"

मधुकर अब क्यों गुनगुन करते।
सुलगत हिय में छटपट भरते।।
हृदय रहत आकुल अब नित है।
इन कलियन में मधु-रस कित है।।

पुहुप पुहुप पे भ्रमण करत हो।
विरहण सम आतुर विचरत हो।।
भ्रमर परखलो सब कुछ बदला।
गिरधर बिन तो कण कण पगला।।

नयन विकल श्याम-रस रत हैं।
हरि-छवि चखने मग निरखत हैं।।
यह तन मन नीरस पतझड़ सा।
जगत लगत पाहन सम जड़ सा।।

शुभ अवसर दो तव दरशन का।
व्यथित रस चखूँ दउ चरणन का।।
नटवर प्रकटो सुखकर वर दो।
सरस अमिय जीवन यह कर दो।।==================
लक्षण छंद:-

"ननभन लग" छंद रचत शुभदा।
'प्रहरणकलिका' रसमय वरदा।।

"ननभन लग" = नगण नगण भगण नगण लघु गुरु

111 111  211 111+लघु गुरु =14 वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत

उदाहरण छंद "गणपति-छवि"

गणपति-छवि अन्तरपट धर के।
नित नव रस में मन सित कर के।।
गजवदन विनायक जप कर ले।
कलि-भव-भय से नर तुम तर ले।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-08-18

प्रमिताक्षरा छंद "मधुर मिलन"

प्रमिताक्षरा छंद

सजती सदा सजन से सजनी।
शशि से यथा धवल हो रजनी।।
यह भूमि आस धर के तरसे।
कब मेघ आय इस पे बरसे।।

लगता मयंक नभ पे उभरा।
नव चाव रात्रि मन में पसरा।।
जब शुभ्र आभ इसकी बिखरे।
तब मुग्ध होय रजनी निखरे।।

सजना सजे सजनियाँ सहमी।
धड़के मुआ हृदय जो वहमी।।
घिर बार बार असमंजस में।
अब चैन है न इस अंतस में।।

मन में मची मिलन आतुरता।
अँखियाँ करे चपल चातुरता।।
उर में खिली मदन मादकता।
तन में बढ़ी प्रणय दाहकता।।
==================

प्रमिताक्षरा छंद विधान -

"सजसासु" वर्ण सज द्वादश ये।
'प्रमिताक्षरा' मधुर छंदस दे।।

"सजसासु" = सगण जगण सगण सगण।
112  121  112  112 = 12 वर्ण का वर्णिक छंद। चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
29-11-2016

Saturday, April 20, 2019

32 मात्रिक छंद "विधान"

32 मात्रिक छंद विधान -

32 मात्रिक छंद चार पदों का सम मात्रिक छंद है जो ठीक चौपाई का ही द्विगुणित रूप है। इन 32 मात्रा में 16, 16 मात्रा पर यति होती है तथा दो दो पदों में पदान्त तुक मिलाई जाती है। 16 मात्रा के चरण का विधान ठीक चौपाई छंद वाला ही है। यह राधेश्यामी छंद से अलग है। राधेश्यामी छंद के 16 मात्रिक चरण का प्रारंभ त्रिकल से नहीं हो सकता उसमें प्रारंभ में द्विकल होना आवश्यक है जबकि 32 मात्रिक छंद में ऐसी बाध्यता नहीं है।

समान सवैया / सवाई छंद विधान -

इस छंद के अंत में जब भगण (211) रखने की अनिवार्यता रहती है तो यह समान सवैया या सवाई छंद के नाम से जाना जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

32 मात्रिक छंद "जाग उठो हे वीर जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों, तुमने अब तक बहुत सहा है।
त्यज दो आज नींद ये गहरी, देश तुम्हें ये बुला रहा है।।
छोड़ो आलस का अब आँचल, अरि-ऐंठन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर, गर्जन करते केहरि सम बन।।1।।

संकट के घन उमड़ रहे हैं, सकल देश के आज गगन में।
व्यापक जोर अराजकता का, फैला भारत के जन-मन में।।
घिरा हुआ है आज देश ये, चहुँ दिशि से अरि की सेना से।
नीति युद्ध की टपक रही है, आज पड़ौसी के नैना से।।2।।

भूल गयी है उन्नति का पथ, इधर इसी की सब सन्ताने।
भटक गयी है सत्य डगर से, स्वारथ के वे पहने बाने।।
दीवारों में सेंध लगाये, वे मिल कर अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा कर, ठोकर खाय रही दर दर की।।3।।

आज चला जा रहा देश ये, अवनति के गड्ढे में गहरे।
विस्तृत नभ मंडल में इसके, पतन पताका भारी फहरे।।
त्राहि त्राहि अति घोर मची है, आज देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है, अंधी हो रोने धोने में।।4।।

अब तो जाग जवानों जाओ, तुम अदम्य साहस उर में धर।
काली बन रिपु के सीने का, शोणित पीओ अंजलि भर भर।।
सकल विश्व को तुम दिखलादो, शेखर, भगत सिंह सा बन कर।
वीरों की यह पावन भू है, वीर सदा इस के हैं सहचर।।5।।

बन पटेल, गांधी, सुभाष तुम, भारत भू का मान बढ़ाओ।
देश जाति अरु राष्ट्र-धर्म हित, प्राणों की बलि आज चढ़ाओ।।
मोहन बन कर के जन जन को, तुम गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को मिल, सत्य सनातन राह दिखाओ।।6।।

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-06-2016

Friday, April 19, 2019

ग़ज़ल (यही बस मन में ठाना है)

आज के नेताओं पर एक मुसलसल ग़ज़ल

बह्र:- 1222   1222

यही बस मन में ठाना है,
पराया माल खाना है।

डकारें हम भला क्यों लें,
जो खाया पच वो जाना है।

यही लाये लिखा के हम,
कि माले मुफ़्त पाना है।

हमारी सूँघ ले जाए,
जहाँ फौकट का दाना है।

बँधाएँ आस हम झूठी,
गरीबी को हटाना है।

गरीबी गर नहीं हटती,
गरीबों को मिटाना है।

जहाँ दंगे लड़ाई हो,
वहीं हमरा ठिकाना है।

सियासत कर बने लीडर,
यही तो अब जमाना है।

हमें जनता से क्या लेना,
'नमन' बस पद बचाना है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-09-17

ग़ज़ल (पड़े मुझको न क्षण भर कल)

बह्र:- 1222  1222

पड़े मुझको न क्षण भर कल,
मेरा मन है विकल प्रति पल।

मची मन में विकट हलचल,
बिना तेरे न कोई हल।

नहीं अब और जीना है,
ये दुनिया रोज करती छल।

सहन करने का इस तन में,
बचा है अब नहीं कुछ बल।

हुआ यादों में तेरी खो,
कलेजा राख तिल तिल जल।

तड़पता याद करके जी
हुआ है जब से तू ओझल।

'नमन' कितना जलाओगे,
सजन जिद छोड़ अब घर चल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-12-18

ग़ज़ल (न हो अब यूँ खफ़ा दोस्त)

बह्र:- 1222   1221

न हो अब यूँ खफ़ा दोस्त,
बता मेरी ख़ता दोस्त।

चलो अब मान जा दोस्त,
नहीं इतना सता दोस्त।

ज़रा भी है न बर्दाश्त,
तेरा ये फ़ासला दोस्त।

तेरे बिन रुक गये बोल,
तु ही मेरी सदा दोस्त

नहीं जब तू मेरे पास,
लगे सूनी फ़ज़ा दोस्त।

ये तुझ से ख़ल्क आबाद,
मेरी तुझ बिन कज़ा दोस्त।

फ़लक पे जब तलक चाँद,
'नमन' का आसरा दोस्त।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-10-17

ग़ज़ल (अगर तुम पास होते)

बह्र:- 1222   122

अगर तुम पास होते,
सुखद आभास होते।

जो हँस के टालते ग़म,
तो क्यों फिर_उदास होते।

न रखते मन में चिंता,
बड़े बिंदास होते।

अगर हो प्रेम सच्चा,
अडिग विश्वास होते।

लड़ें जो हक़ की खातिर,
सभी की आस होते।

रहें डूबे जो मय में,
नशे के दास होते।

भला सोचें जो सब का,
'नमन' वे खास होते।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-10-17

ग़ज़ल (तेरे वास्ते घर सदा ये)

बह्र:- 122   122   122   122

तेरे वास्ते घर सदा ये खुला है,
ये दिल मैंने केवल तुझे ही दिया है।

तगाफ़ुल नहीं और बर्दाश्त होता,
तेरी बदगुमानी मेरी तो कज़ा है।

तू वापस चली आ यही मेरी मन्नत,
किसी से नहीं कोई मुझको गिला है।

समझ मत हँसी देख मुझको न है ग़म,
ये चेह्रा तुझे देख कर ही खिला है।

लगें मुझको आसेब से ये शजर सब,
जलन दे सहर और चुभती सबा है।

मैं तड़पा बहुत हूँ जला भी बहुत हूँ,
धुआँ ये उसी आग का दिख रहा है।

'नमन' की यही इल्तिज़ा आज आखिर,
बसा भी दे घर ये जो सूना पड़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-1-2017

Wednesday, April 17, 2019

पवन छंद "श्याम शरण"

श्याम सलोने, हृदय बसत है।
दर्श बिना ये, मन तरसत है।।
भक्ति नाथ दें, कमल चरण की।
शक्ति मुझे दें, अभय शरण की।।

पातक मैं तो, जनम जनम का।
मैं नहिं जानूँ, मरम धरम का।।
मैं अब आया, विकल हृदय ले।
श्याम बिहारी, हर भव भय ले।।

मोहन घूमे, जिन गलियन में।
वेणु बजाई, जिस जिस वन में।।
चूम रहा वे, सब पथ ब्रज के।
माथ धरूँ मैं, कण उस रज के।।

हीन बना मैं, सब कुछ बिसरा।
दीन बना मैं, दर पर पसरा।।
भीख कृपा की, अब नटवर दे।
वृष्टि दया की, सर पर कर दे।।
=================
लक्षण छंद:-
"भातनसा" से, 'पवन' सजत है।
पाँच व सप्ता, वरणन यति है।।

"भातनसा" = भगण तगण नगण सगण

211   221  111  112 = 12 वर्ण, यति 5,7
चार चरण दो दो समतुकांत।
***********************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-06-17

पद्ममाला छंद "माँ के आँसू"

आँख में अश्रु लाती हो।
बाद में तू छुपाती हो।।
नैन से लो गिरे मोती।
आज तू मात क्यों रोती।।

पुत्र सारे हुए न्यारे।
जो तुझे प्राण से प्यारे।।
स्वार्थ के हैं सभी नाते।
आँख में नीर क्यों माते।।

रीत ये तो चली आई।
हैं न बेटे सगे भाई।।
व्यर्थ संसार में सारे।
नैन से क्यों झरे तारे।।

ईश की आस ही सच्ची।
और सारी सदा कच्ची।।
भक्त की टेक ले वे ही।
धीर हो सोच तू ये ही।।
==============
लक्षण छंद:-

"रारगागा" रखो वर्णा।
'पद्ममाला' रचो छंदा।।

"रारगागा" =  [रगण रगण गुरु गुरु]
(212  212  2 2)
8 वर्ण/चरण,4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।
***************
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-01-19

पंचचामर छंद "देहाभिमान"

पंचचामर छंद / नाराच छंद

कभी न रूप, रंग को, महत्त्व आप दीजिये।
अनित्य ही सदैव ये, विचार आप कीजिये।।
समस्त लोग दास हैं, परन्तु देह तुष्टि के।
नये उपाय ढूँढते, सभी शरीर पुष्टि के।।

शरीर का निखार तो, टिके न चार रोज भी।
मुखारविंद का रहे, न दीप्त नित्य ओज भी।।
तनाभिमान त्याग दें, कभी न नित्य देह है।
असार देह में बसा, परन्तु घोर नेह है।।

समस्त कार्य ईश के, मनुष्य तो निमित्त है।
अचेष्ट देह सर्वथा, चलायमान चित्त है।।
अधीन चित्त प्राण के, अधीन प्राण शक्ति के।
अरूप ब्रह्म-शक्ति ये, टिकी सदैव भक्ति के।।

अतृप्त ही रहे सदा, मलीन देह वासना।
तुरन्त आप त्याग दें, शरीर की उपासना।।
स्वरूप 'बासुदेव' का, समस्त विश्व में लखें।
प्रसार दिव्य भक्ति का, समग्र देह में चखें।।
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पंचचामर छंद / नाराच छंद विधान -

पंचचामर छंद जो कि नाराच छंद के नाम से भी जाना जाता है, १६ वर्ण प्रति पद का वर्णिक छंद है।

लघु गुरु x 8 = 16 वर्ण, यति 8+8 वर्ण पर। चार पद दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
4-07-17

Tuesday, April 16, 2019

ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"

सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो।
सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।
बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।
जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।

घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।
नर-समाज में हुई नहीं थी, आस कभी तेरी पूरी।
तेरे थे अधिकार संकुचित, जरा नहीं थी आज़ादी
नारी तुम केवल साधन थी, बढ़वाने की आबादी।।2।।

बंधनकारी तेरे वास्ते, आज्ञा शास्त्रों की नारी।
घर के अंदर कैद रही तुम, रीत रिवाजों की मारी।
तेरे सर पर सदा जरूरी, किसी एक नर का साया।
वह पति या फिर पिता, पुत्र हो, आवश्यक उसकी छाया।।3।।

देश गुलामी में जब जकड़ा, तेरी पीड़ा थी भारी।
यवनों की कामुक नज़रों का, केंद्र देह तेरा नारी।
कर गह यवन पकड़ ले जाते, शासक उठवाते डोली।
गाय कसाई घर जाती लख, बन्द रही सबकी बोली।।4।।

यौवन की मदमाती नारी, भारी थी जिम्मेदारी।
तेरे हित पीछे समाज में, इज्जत पहले थी प्यारी।
पीहर छुटकारा पाने को, बाल अवस्था में व्याहे।
दे दहेज का नाम श्वसुर-गृह, कीमत मुँहमाँगी चाहे।।5।।

घृणित रीतियाँ ये अपनाना, कैसी तब थी लाचारी।
आन, अस्मिता की रक्षा की, तुम्ही मोहरा थी नारी।
सदियों की ये तुझे गुलामीे, गहरी निद्रा में लायी।
पर स्वतन्त्रता नारी तुझको, अब तक उठा नहीं पायी।।6।।

हुआ सवेरा कभी देश में, पूरा रवि नभ में छाया।
पर समाज इस दास्य-नींद से, अब तक जाग नहीं पाया।
नारी नारी की उन्नति में, सबसे तगड़ा रोड़ा है।
घर से ही पनपे दहेज अरु, आडम्बर का फोड़ा है।।7।।

नहीं उमंगें और न उत्सव, जब धरती पे आती हो।
नेग बधाई बँटे न कुछ भी, हृदय न तुम हर्षाती हो।
कर्ज समझ के मात पिता भी, निर्मोही बन जाते हैं।
खींच लकीरें लिंग-भेद की, भेद-भाव दर्शाते हैं।।8।।

सभ्य देश में समझी जाती, जन्म पूर्व पथ की रोड़ी।
हद तो अब विज्ञान रहा कर, कसर नहीं कुछ भी छोड़ी।
इस समाज में भ्रूण-परीक्षण, लाज छोड़ तेरा होता।
गर्भ-मध्य तेरी हत्या कर, मानव मानवता खोता।।9।।

घर से विदा तुझे करने की, चिंता जब लग जाती है।
मात पिता के आड़े दुविधा, जब दहेज की आती है।
छलनी होता मन जब सुनती, घर में इसी कहानी को।
कोमल मन बेचैन कोसता, बोझिल बनी जवानी को।।10।।

पली हुई नाजों से कन्या, जब पति-गृह में है आती।
सास बहू में घोर लड़ाई, अधिकारों की छा जाती।
माँ की ममता मिल पाती क्या, पीहर में जो छोड़ी थी।
छिन्न भिन्न होने लग जाती, आशाएँ जो जोड़ी थी।।11।।

तेरी पीड़ा लख इस जग में, कोई सीर नहीं बाँटा।
इस समाज ने तुझे सदा से, समझा आँखों का काँटा।
जीवन की गाड़ी के पहिये, नर नारी दोनों होते।
नारी जिसने सहा सहा ही, 'नमन' उसे जगते सोते।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-2016

ताटंक छंद "विधान"

ताटंक छंद सम पद मात्रिक छंद है। इस छंद में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं।

प्रत्येक पद दो विभाग में बंटा हुआ रहता है जिनकी यति 16-14 मात्रा पर निर्धारित होती है। अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है।

प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है। किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है। यानी सम चरण का अंत 3 गुरु से होना आवश्यक है।

16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की अंतिम 6 मात्रा सदैव 3 गुरु होती है तथा बची हुई 8 मात्राएँ दो चौकल हो सकती हैं या फिर एक अठकल हो सकती है। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया

Thursday, April 11, 2019

हरिगीतिका छंद "माँ और उसका लाल"

ये दृश्य भीषण बाढ़ का है गाँव पूरा घिर गया।
भगदड़ मची चारों तरफ ही नीर प्लावित सब भया।।
माँ एक इस में घिर गयी है संग नन्हे लाल का।
वह कूद इस में है पड़ी रख आसरा जग पाल का।।

आकंठ डूबी बाढ़ में माँ माथ पर ले छाबड़ी।
है तेज धारा मात को पर क्या भला इससे पड़ी।।
वह पार विपदा को करे अति शीघ्र बस मन भाव ये।
सर्वस्व उसका लाल सर पर है सुरक्षित चाव ये।।

सन्तान से बढ़कर नहीं कुछ भी धरोहर मात की।
निज लाल के हित के लिये चिंता करे हर बात की।।
माँ जूझती, संकट अकेली लाख भी आये सहे।
मर मर जियें हँस के सदा पर लाल उसका खुश रहे।।

बाधा नहीं कोई मुसीबत पार करना ध्येय हो।
मन में उमंगें हो अगर हर कार्य करना श्रेय हो।।
हो चाह मन में राह मिलती पाँव नर आगे बढ़ा।
फिर कूद पड़ इस भव भँवर में भंग बढ़ने की चढ़ा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-09-18