Saturday, July 20, 2019

मुक्तक (यमक युक्त)

सितम यूँ खूब ढ़ा लो।
या फिर तुम मार डालो।
मगर मुझ से जरा तुम।
मुहब्बत तो बढ़ालो।।
***

दुआ रब की तो पा लो।
बसर अजमेर चालो।
तमन्ना औलिया की।
जरा मन में तो पालो।।
***

अरी ओ सुन जमालो,
मुझे तुम आजमा लो,
ठिकाना अब तेरा तू,
मेरे दिल पे जमा लो।
***

ये ऊँचे ख्वाब ना लो।
जमीं पे पाँ टिका लो।
अरे छोड़ो भी ये जिद।
मुझे अपना बना लो।।
***

खरा सौदा पटा लो।
दया मन में बसा लो।
गरीबों की दुआ से।
सभी संताप टालो।।
***

तराने आज गा लो।
सभी को तुम रिझा लो।
जो सोयें हैं उन्हें भी।
खुशी से तुम जगा लो।।
***

1222 122
(काफ़िया=आ; रदीफ़=लो)
**********

सड़न से नाक फटती, हुई सब जाम नाली;
यहाँ रहना है दूभर, सजन अब चल मनाली;
किसी दूजी जगह का, कभी भी नाम ना ली;
खफ़ा होना वहाँ ना, यहाँ तो मैं मना ली।

(1222  122)*2
**********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-10-17

Friday, July 19, 2019

दोहा गीतिका (भूख)

काफ़िया = ई; रदीफ़ = भूख

दुनिया में सबसे बड़ी, है रोटी की भूख।
पाप कराये घोरतम, जब बिलखाती भूख।।

आँतड़ियाँ जब ऐंठती, जलने लगता पेट।
नहीं चैन मन को पड़े, समझो जकड़ी भूख।।

मान, प्रतिष्ठा, ओहदा, कभी न दें सन्तोष।
ज्यों ज्यों इनकी वृद्धि हो, त्यों त्यों बढ़ती भूख।।

कमला तो चंचल बड़ी, कहीं न ये टिक पाय।
प्राणी चाहे थाम रख, धन की ऐसी भूख।।

भला बूरा दिखता नहीं, चढ़े काम का जोर।
पशुवत् मानव को करे, ये जिस्मानी भूख।।

राजनीति के पैंतरे, नेताओं की चाल।
कुर्सी की इस देश में, सबसे भारी भूख।।

'नमन' भूख पर ही टिका, लोगों का व्यवहार।
जग की है फ़ितरत यही, सब पर हाबी भूख।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-12-2017

कुर्सी की महिमा (कुण्डलिया))

महिमा कुर्सी की बड़ी, इससे बचा न कोय।
राजा चाहे रंक हो, कोउ न चाहे खोय।
कोउ न चाहे खोय, वृद्ध या फिर हो बालक।
समझे इस पर बैठ, सभी का खुद को पालक।
कहे 'बासु' कविराय, बड़ी इसकी है गरिमा।
उन्नति की सौपान, करे मण्डित ये महिमा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-12-2018

सूर घनाक्षरी

8,8,8,6

मिलते विषम दोय, सम-कल तब होय,
सम ही कवित्त को तो, देत बहाव है।

आदि न जगन रखें, लय लगातार लखें,
अंत्य अनुप्रास से ही, या का लुभाव है।

शब्द रखें भाव भरे, लय ऐसी मन हरे,
भरें अलंकार जा का, खूब प्रभाव है।

गाके देखें बार बार, अटकें न मझधार,
रचिए कवित्त जा से, भाव रिसाव है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-4-17

"गुर्वा विधान"

"गुर्वा" विधान:-

मेरे द्वारा प्रतिपादित यह "गुर्वा" हिन्दी साहित्य में काव्य की एक नवीन विधा है। यह हाइकु जैसी लघु संरचना है। जापानी में हाइकु, ताँका, सेदोका इत्यादि और अंग्रेजी में हाइकु, ईथरी आदि लघु कविताएं सिलेबल की गिनती पर आधरित हैं और बहुत प्रचलित हैं। ये कविताएं अपने लघु विन्यास में भी गहनतम भावों का समावेश कर सकती हैं। हिन्दी साहित्य में भी हाइकु, ताँका, सेदोका, चौका, पिरामिड आदि विधाएँ बहुत प्रचलित हो गई हैं। पर हिन्दी में ये विधाएँ जापानी, अंग्रेजी की तरह सिलेबल की गणना पर आधारित न होकर अक्षरों की गणना पर आधारित हैं। इसलिए इन का कलेवर उतना विस्तृत नहीं है। सिलेबल में ध्वनि के अनुसार एक से अधिक अक्षरों का प्रयोग होना सामान्य बात है।

मेरे द्वारा निष्पादित यह 'गुर्वा' कुल 3 पंक्तियों की संरचना है जिसमें 3 पंक्तियों में क्रमशः छह, पांच और छह गुरु वर्ण होते हैं। इस तरह की संरचना हाइकु, ताँका इत्यदि के रूप में हिन्दी में पहले से प्रचलित है पर मेरी यह नवीन विधा उन सब से इस अर्थ में भिन्न है कि प्रचलित विधाओं में अक्षरों की गिनती होती है जबकि इस नवीन विधा में केवल गुरु की गिनती होती है। इसमें पंक्ति का मान निर्धारित गुरु की संख्या से आँका जाता है, इसीलिए इसके लक्षण को सार्थक करता हुआ इसका छोटा सा नाम 'गुर्वा' दिया गया है। इसके तीन पद में क्रमशः 6 - 5 - 6 गुरू होने आवश्यक हैं। इसके उपरांत भी यह गुर्वा मात्रा या वर्णों की संख्या में बंधा हुआ नहीं है। इसे आगे और स्पष्ट किया जायेगा।

हिन्दी छंद शास्त्र में मात्राओं की गणना लघु और गुरु वर्ण के आधार पर होती है। लघु वर्ण के उच्चारण में जितना समय लगता है, गुरु वर्ण के उच्चारण में उसका दुगुना लगता है। लघु का मात्रा भार 1 तथा गुरु का 2 की संख्या से दिगदर्शित किया जाता है।

गुर्वा में हमारा प्रयोजन केवल गुरु से है। लघु वर्ण इस में गणना से मुक्त रहते हैं। गुर्वा की पंक्ति में आये प्रत्येक शब्द के गुरु वर्ण गिने जाते हैं। शब्द में आये एकल लघु नहीं गिने जाते, वे गणनामुक्त होते हैं। आगे लघु वर्ण और गुरु वर्ण पर प्रकाश डालते हुये इसे सोदाहरण और स्पष्ट किया जायेगा।

लघु वर्ण:- स्वतंत्र अक्षर जैसे क, म, ह आदि या संयुक्त वर्ण जैसे स्व, क्य, प्र आदि जब अ, इ, उ, ऋ और अँ से युक्त हों तो ऐसे अक्षर लघु कहलाते हैं। उदाहरण- क, चि, तु, कृ, हँ, क्ति आदि।

गुरु वर्ण:- स्वतंत्र या संयुक्त अक्षर जब आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः से युक्त हों तो ऐसे अक्षर गुरु कहलाते हैं। उदाहरण- का,  टी, फू, ये, जै, मो, रौ, दं, पः, प्रा, स्वी आदि।

इसके अतिरिक्त लघु वर्ण के पश्चात यदि संयुक्त वर्ण हो तो उस में जुड़े आर्ध वर्ण का भार उस लघु वर्ण पर आ जाता है और वह लघु वर्ण गुरु गिना जाता है। जैसे- अश्व, शुभ्र, प्रयुक्त, पवित्र में अ, शु, यु, वि गुरु वर्ण के रूप में गिने जाते हैं। अश्व शब्द में अ वर्ण अपने आप में लघु है परंतु उच्चारण में आधे श का इस पर भार लेकर उच्चरित किया जाता है इसलिये छंद शास्त्र के अनुसार इस अ को गुरु गिना जायेगा। श्व में कोई मात्रा नहीं लगी हुई है अतः वह लघु है। इस प्रकार अश्व शब्द में एक गुरु और एक लघु है। गुर्वा के लिये इस शब्द से एक गुरु प्राप्त होगा और श्व लघु गणनामुक्त है। संयुक्त वर्ण के पहले यदि गुरु है तो वह गुरु ही रहता है। जैसे - साध्य शब्द में सा पहले ही गुरु है, ध्य के आधे ध का भार पड़ने से भी यह गुरु ही रहेगा। साध्य शब्द से गुर्वा के लिये एक गुरु प्राप्त होगा और ध्य लघु गणनामुक्त रहेगा।

ह के साथ यदि आधा न, म , ल जुड़ा हुआ है तो ऐसे संयुक्त वर्ण के पहले आये लघु को कुछ शब्दों में गुरुत्व प्राप्त नहीं होता। जैसे- कन्हैया, तुम्हारा, मल्हार आदि में क, तु, म लघु ही रहते हैं। जिन्हें, इन्हे में जि, इ लघु ही रहते हैं। मल्हार से हमें केवल एक गुरु प्राप्त होगा। म और र दोनों लघु गणनामुक्त हैं। तुम्हारा शब्द में म्हा और रा के दो गुरु गिने जायेंगे। यह अपवाद की श्रेणी का शब्द है जिस में तु को गुरुत्व प्राप्त नहीं होता और यह लघु ही रहता है जो गुर्वा में गणनामुक्त है।

शाश्वत दीर्घ:- किसी भी शब्द में एक साथ आये दो लघु से शाश्वत दीर्घ बनता है जिसे एक गुरु के रूप में गिना जाता है। जैसे- दो अक्षरों के शब्द- तुम, हम, गिरि, ऋतु, रिपु आदि एक गुरु गिने जायेंगे। दो से अधिक अक्षरों के शब्द में एक साथ आये दो लघु वर्ण। जैसे- मानव, भीषण, कटुता में नव, षण और कटु एक गुरु गिना जायेगा। इन तीनों शब्दों में दो दो गुरु हैं। तक्षक में भी दो गुरु गिने जायेंगे। संयुक्त क्ष का त पर भार आने से त को गुरुत्व प्राप्त हो गया तथा क्षक शाश्वत दीर्घ के रूप में गुरु है। तीन अक्षरों के शब्द जिसमें तीनों अक्षर लघु हों तो अंतिम दो लघु मिल कर एक गुरु गिने जाते हैं और शब्द का प्रथम लघु गणनामुक्त रहता है। जैसे- कमल, अडिग, मधुर आदि में एक गुरु गिना जायेगा। हलचल, मधुकर, सविनय आदि में 2 गुरु गिने जायेंगे। घबराहट में 3 गुरु गिने जाते हैं- घब, रा और हट। समन्वय में स लघु, म= गुरु (न्व संयुक्त वर्ण), न्वय= गुरु। कुल 2 गुरु स गणनामुक्त। 'विचारणीय' में चा और णी केवल दो गुरु हैं। वि, र, य तीन लघु होने पर भी लघु का जोड़ा नहीं है। इसलिये ये गणनामुक्त हैं और गुर्वा के लिये इस शब्द में केवल दो गुरु हैं। 'विरचा' में भी दो गुरु हैं, विर और चा।

गुर्वा में गुरु का निर्धारण पंक्ति में आये एक एक शब्द के आधार पर करने से यह बहुत ही सरल है।

(1) एक अक्षर के बिना मात्रा के न, व गणनामुक्त हैं। था, है, क्यों, भी आदि एक गुरु के शब्द हैं।

(2) दो अक्षर के शब्द में दो गुरु होने के लिये या तो दोनों अक्षर दीर्घ मात्रिक हों या दुसरा अक्षर दीर्घ मात्रा के साथ संयुक्ताक्षर हो जिससे कि प्रथम अक्षर को गुरुत्व प्राप्त हो जाये। ऊपर बताये गये अपवादों पर ध्यान रहे। अन्य स्थिति में एक गुरु गिना जायेगा।

(3) तीन अक्षर के शब्द में एक गुरु तभी हो सकता है जब तीनों अक्षर लघु रहे, जैसे - प्रबल, पतित आदि। या जगणात्मक शब्द हो, जैसे -  उपाय, विचार, स्वतंत्र आदि। दोगुरु के मध्य का लघु गणनामुक्त है। जैसे - मेमना, ढोकला, देखना, छोकरी, नाशिनी। इन सब में दो गुरु गिने जायेंगे। त्रिअक्षरी में तीन गुरु होने के लिये तीनों अक्षर दीर्घमात्रिक हों या विश्वासी जैसे शब्दों में एक लघु को गुरुत्व प्राप्त हो।

तीन से अधिक अक्षरों के शब्दों में साथ साथ आये दो लघु पर विशेष ध्यान रखें। क्योंकि इनका मान एक गुरु का हैं। आचमन में आ और मन के मध्य का च गणनामुक्त तथा इस शब्द में दो गुरु हैं।

(4) सामासिक शब्द में गुरु गणना विग्रह के पश्चात मूल शब्दों में की जाती है। जैसे- मध्यप्रदेश में  2 गुरु गिने जायेंगे न कि 3। मध्य =1 और प्रदेश = 1 जबकि शब्द के मध्य में ध्य, प्र दो लघु एक साथ हैं। ऐसे ही रामकृपा में भी राम =1 और कृपा = 1, अलग अलग गुरु विचार होगा।  कुल दो गुरु। सोचविचार में सोच = 1 और विचार = 1, कुल दो गुरु। ऐसे शब्दों में दोनों शब्द अपना स्वतंत्र अर्थ रखते हैं।

जिन रचनाकारों को मात्रा गणना का सम्यक ज्ञान है और जो छंदबद्ध सृजन करने में सिद्धहस्त हैं उनके लिये इस विधा में लघु वर्ण का गणनामुक्त रहने के अतिरिक्त कुछ भी नया नहीं है।सर्वशक्तिमान में र्व, क्ति और न तीनों गणनामुक्त हैं। इस शब्द में तीन लघु हैं पर लघु की जोड़ी एक भी नहीं है। र्व, क्ति संयुक्त हैं जिनका भार स और श पर आ रहा है इसलिये स और श को गुरुत्व प्राप्त हो गया। इस प्रकार इस शब्द में तीन गुरु हुये।

पंक्तियों की स्वतंत्रता:- इस विधा में भी हाइकु, ताँका, चौका की तरह पंक्तियों की स्वतंत्रता रखना अत्यन्त आवश्यक है। हर पंक्ति अपने आप में स्वतंत्र होनी चाहिये। यह केवल 17 गुरु की संरचना है और उसी में गागर में सागर भरना होता है अतः चमत्कारिक बात कहें। रचनाकार शब्द चित्र खींच सकता है, अपने चारों ओर के परिवेश का वर्णन कर सकता है या कुछ भी अनुभव जनित भावों को अभिव्यक्त कर सकता है।

समतुकांतता:- रचना की तीन पंक्तियों में से कोई भी दो पंक्तियों में समतुकांतता आवश्यक है। तीनों पंक्तियाँ भी समतुकांत हो सकती हैं। यह तुकांतता शब्दांत में केवल स्वर साम्य की भी रखी जा सकती है। जैसे आ के साथ आ की, ई के साथ ई की, आअ के साथ आअ, एअ के साथ एअ, अअ के साथ अअ आदि।

मैं 'गुर्वा' की अपनी प्रथम रचना माँ शारदा के चरणों में अर्पित करते हुये इस विधान को और स्पष्ट करता हूँ।

शारद वंदन "गुर्वा" :-

वंदन वीणा वादिनी, (2, 2, 2 तीन शब्दों में = 6 गुरु।)
मात ज्ञान की दायिनी, (1, 1, 1, 2 चार शब्दों में 5 गुरु।)
काव्य बोध का मैं कांक्षी। (1, 1, 1, 1, 2 पांच शब्दों में = 6 गुरु।)

(रचना में 8, 8, 8 कुल 24 वर्ण। 13, 13, 14 कुल 40 मात्रा।)

लक्षण "गुर्वा" :-

रस शर ऋतु क्रम से रखें, (1, 1, 1, 1, 1, 1 छह शब्दों में = 6 गुरु।)
मात्र दीर्घ का कर गणन, (1, 1, 1, 1, 1 पांच शब्दों में 5 = गुरु।)
'गुर्वा' मुखरित कर चखें। (2, 2, 1, 1 चार शब्दों में =  6 गुरु।)

(प्रथम पंक्ति में षट रस, पंच शर, षट ऋतु संख्यावाचक हैं। रचना में 11, 10, 10 कुल 31 वर्ण। 13, 13, 13 कुल 39 मात्रा।)

आप स्वयं देखें कि केवल गुरु वर्ण की गणना की अवधारणा, शब्द में एकल रूप से आये लघु वर्णों की गणना से छूट आपके समक्ष सृजन के नव आयाम खोल रही है। इन छूट से हिन्दी में भी यह विधा जापानी और इंगलिश में प्रचलित सिलेबल गणना जितना विस्तृत कलेवर ग्रहण कर रही है। सिलेबल का निर्धारण उच्चारण पर आधारित रहता है जबकि गुरु गणना, इसमें छूट आदि स्वरूप पर आधारित है जिस में संदेह का स्थान नहीं। इतनी छूट सृजकों की कल्पना को नवीन ऊँचाइयाँ प्रदान कर रही है। साथ ही पंक्तियों को अनेक छंदों की लय के अनुसार ढाला जा सकता है। तुकांतता रचना को कविता का स्वरूप देती है। पंक्तियाँ निश्चित की हुई गुरु की संख्या से आबद्ध हैं फिर भी गुर्वा वर्णों की संख्या और मात्रा की संख्या या उनके क्रम के बंधन में बंधा हुआ नहीं है। इसकी यह स्वतंत्रता सृजक को अनंत आकाश उपलब्ध कराती है जिसमें वह कल्पना की उन्मुक्त उड़ान भर सके।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-06-19

Tuesday, July 16, 2019

मौक्तिक दाम छंद "विनायक वंदन"

गजानन विघ्न करो सब दूर।
करो तुम आस सदा मम पूर।।
नवा कर माथ करूँ नित जाप।
कृपा कर के हर लो भव-ताप।।

प्रियंकर रूप सजे गज-भाल।
छटा अति मोहक तुण्ड विशाल।।
गले उपवीत रखो नित धार।
भुजा अति पावन सोहत चार।।

धरें कर में शुभ अंकुश, पाश।
करें उनसे रिपु, दैत्य विनाश।।
बिराजत हैं कमलासन नाथ।
रखें सर पे शुभदायक हाथ।।

दयामय विघ्न विनाशक आप।
हरो प्रभु जन्मन के सब पाप।।
बसो हिय पूर्ण करो सब काज।
रखो प्रभु भक्तन की पत आज।।
=============
विधान छंद:-

पयोधर चार मिलें क्रमवार।
भुजा तुक में कुल पाद ह चार।।
रचें सब छंद महा अभिराम।
कहावत है यह मौक्तिक दाम।।

पयोधर = जगन ।ऽ। के लिए प्रयुक्त होता है।
भुजा= दो का संख्यावाचक शब्द
121  121  121 121 = 12वर्ण

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-01-18

मोटनक छन्द "भारत की सेना"

सेना अरि की हमला करती।
हो व्याकुल माँ सिसकी भरती।।
छाते जब बादल संकट के।
आगे सब आवत जीवट के।।

माँ को निज शीश नवा कर के।
माथे रज भारत की धर के।।
टीका तब मस्तक पे सजता।
डंका रिपु मारण का बजता।।

सेना करती जब कूच यहाँ।
छाती अरि की धड़कात वहाँ।।
डोले तब दिग्गज और धरा।
काँपे नभ ज्यों घट नीर भरा।।

ये देख छटा रस वीर जगे।
सारी यह भू रणक्षेत्र लगे।।
गावें महिमा सब ही जिनकी।
माथे पद-धूलि धरूँ उनकी।।
=================
लक्षण छंद:-

"ताजाजलगा" सब वर्ण शुभं।
राचें मधु छंदस 'मोटनकं'।।

"ताजाजलगा"= तगण जगण जगण लघु गुरु।
221 121 121 12 = 11 वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत।
******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-03-2017

मलयज छंद "प्रभु-गुण"

सुन मन-मधुकर।
मत हिय मद भर।।
करत कलुष डर।
हरि गुण उर धर।।

सरस अमिय सम।
प्रभु गुण हरदम।।
मन हरि मँह रम।
हर सब भव तम।।

मन बहुत विकल।
हलचल प्रतिपल।।
पड़त न कछु कल।
हरि-दरशन हल।।

प्रभु-शरण लखत।
यह सर अब नत।।
तव चरण पड़त।
रख नटवर पत।।
=============
लक्षण छंद:-

"ननलल" लघु सब।
'मलयज' रच तब।

 "ननलल" = नगण नगण लघु लघु।
8 लघु, 4चरण समतुकांत
******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-01-17

मनोज्ञा छंद "होली"

भर सनेह रोली।
बहुत आँख रो ली।।
सजन आज होली।
व्यथित खूब हो ली।।

मधुर फाग आया।
पर न अल्प भाया।।
कछु न रंग खेलूँ।
विरह पीड़ झेलूँ।।

यह बसंत न्यारी।
हरित आभ प्यारी।।
प्रकृति भी सुहायी।
नव उमंग छायी।।

पर मुझे न चैना।
कटत ये न रैना।।
सजन याद आये।
न कुछ और भाये।।

विकट ये बिमारी।
मन अधीर भारी।।
सुख समस्त छीना।
अति कठोर जीना।।

अब तुरंत आ के।
हृदय से लगा के।।
सुध पिया तु लेवो।
न दुख और देवो।।
=============
लक्षण छंद:-

"नरगु" वर्ण सप्ता।
रचत है 'मनोज्ञा'।।

"नरगु" = नगण रगण गुरु
111 212 + गुरु = 7-वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत।
*****************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-03-17

Thursday, July 11, 2019

मत्त सवैया मुक्तकमाला (2019 चुनाव)

राधेश्यामी छंद / मत्त सवैया

हर दल जो टुकड़ा टुकड़ा था, इस बार चुनावों ने छाँटा;
बाहर निकाल उसको फेंका, ज्यों चुभा हुआ हो वो काँटा;
जो अपनी अपनी डफली पर, बस राग स्वार्थ का गाते थे;
उस भ्रष्ट तंत्र के गालों पर, जनता ने मारा कस चाँटा।

इस बार विरोधी हर दल ने, ऐसा भारी झेला घाटा;
चित चारों खाने सभी हुए, हर ओर गया छा सन्नाटा।
जन-तंत्र-यज्ञ की वेदी में, उन सबकी आहुति आज लगी;
वे राजनीति को हाथ हिला, जल्दी करने वाले टा टा।

भारत में नव-उत्साह जगा, रिपु के घर में क्रंदन होगा;
बन विश्व-शक्ति उभरेंगे हम, जग भर में अब वंदन होगा;
हे मोदी! तुम कर्मठ नरवर, गांधी की पुण्य धरा के हो;
अब ओजपूर्ण नेतृत्व तले, भारत का अभिनंदन होगा।

तुम राष्ट्र-प्रेरणा के नायक, तुम एक सूत्र के दायक हो;
जो सकल विश्व को बेध सके, वैसे अमोघ तुम सायक हो;
भारत भू पर अवतरित हुये, ये भाग्य हमारा आज प्रबल;
तुम धीर वीर तुम शक्ति-पुंज, तुम जन जन के अधिनायक हो।

लिंक ---> राधेश्यामी छंद / मत्त सवैया विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-05-19

राधेश्यामी छंद / मत्त सवैया 'विधान'

राधेश्यामी छंद / मत्त सवैया

राधेश्यामी छंद मत्त सवैया के नाम से भी प्रसिद्ध है। पंडित राधेश्याम ने राधेश्यामी रामायण 32 मात्रिक पद में रची। छंद में कुल चार पद होते हैं तथा क्रमागत दो-दो पद तुकान्त होते हैं। प्रति पद पदपादाकुलक छंद का दो गुना होता है l तब से यह छंद राधेश्यामी छंद के नाम से प्रसिद्धि पा गया।

पदपादाकुलक छंद के एक चरण में 16 मात्रा होती हैं , आदि में द्विकल (2 या 11) अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल (21 या 12 या 111) वर्जित होता है।

राधेश्यामी छंद का मात्रा बाँट इस प्रकार तय होता है:
2 + 12 + 2 = 16 मात्रा (पद का प्रथम चरण)
2 + 12 + 2 = 16 मात्रा (पद का द्वितीय चरण)
द्विकल के दोनों रूप (2 या 1 1) मान्य है। तथा 12 मात्रा में तीन चौकल, अठकल और चौकल या चौकल और अठकल हो सकते हैं। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है।

चौकल:- (1) प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है। 'करो न' सही है जबकि 'न करो' गलत है।
(2) चौकल में पूरित जगण जैसे सरोज, महीप, विचार जैसे शब्द वर्जित हैं।

अठकल:- (1) प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द समाप्त होना वर्जित है। 'राम कृपा हो' सही है जबकि 'हो राम कृपा' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। यह ज्ञातव्य हो कि 'हो राम कृपा' में विषम के बाद विषम शब्द पड़ रहा है फिर भी लय बाधित है।
(2) 1-4 और 5-8 मात्रा पर पूरित जगण शब्द नहीं आ सकता।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

राधिका छंद "संकीर्ण मानसिकता"

अपने में ही बस मग्न, लोग क्यों सब हैं।
जीवन के सारे मूल्य, क्षीण क्यों अब हैं।।
हो दिशाहीन सब लोग, भटकते क्यों हैं।
दूजों का हर अधिकार, झटकते क्यों हैं।।

आडंबर का सब ओर, जोर है भारी।
दिखते तो स्थिर-मन किंतु, बहुत दुखियारी।।
ऊपर से चमके खूब, हृदय है काला।
ये कैसा भीषण रोग, सभी ने पाला।।

तन पर कपड़े रख स्वच्छ, शान झूठी में।
करना चाहें अब लोग, जगत मुट्ठी में।।
अब सिमट गये सब स्नेह, स्वार्थ अति छाया।
जीवन का बस उद्देश्य, लोभ, मद, माया।।

मानव खोया पहचान, यंत्रवत बन कर।
रिश्तों का भूला सार, स्वार्थ में सन कर।।
खो रहे योग्य-जन सकल, अपाहिज में मिल।
छिपती जाये लाचार, काग में कोकिल।।

नेता अभिनय में दक्ष, लोभ के मारे।
झूठे भाषण से देश, लूटते सारे।।
जनता भी केवल उन्हें, बिठाये सर पे।
जो ले लुभावने कौल, धमकता दर पे।।

झूठे वादों की बाढ़, चुनावों में अब।
बहुमत कैसे भी मिले, लखे नेता सब।।
हित आज देश के गौण, स्वार्थ सर्वोपर।
बिक पत्रकारिता गयी, लोभ में खो कर।।

है राजनीति सर्वत्र, खोखले नारे।
निज जाति, संगठन, धर्म, लगे बस प्यारे।।
ओछे विचार की बाढ़, भयंकर आयी।
कैसे जग-गुरु को आज, सोच ये भायी।।

मन से सारी संकीर्ण, सोच हम त्यागें।
रख कर नूतन उल्लास, सभी हम जागें।।
हम तुच्छ स्वार्थ से आज, तोड़ लें नाता।
धर उच्च भाव हम बनें, हृदय से दाता।।
***************
राधिका छंद *विधान*

इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 13,9 पर यति होती है, यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है, कुल चार चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं l इसका मात्रा बाँट निम्न प्रकार से है।

2 6 2 3 = 13 मात्रा, प्रथम यति। द्विकल के दोनों रूप (2, 1 1) और त्रिकल के तीनों रूप (2 1, 1 2, 1 1 1) मान्य हैं। छक्कल के नियम लगेंगे जैसे प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द का समाप्त नहीं होना तथा प्रथम चार मात्रा में पूरित जगण (विचार आदि) नहीं हो सकते।

3 2 2 2 = 9 मात्रा, द्वितीय यति। द्विकल त्रिकल के सभी रूप मान्य।
===============
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-12-2018


जब मन में हो हनुमान, राम तो अपने।
सब बन जाते हैं काम, पूर्ण हो सपने।।
मन में रख के विश्वास, करो सब पूजा।
जो हर ले सारे कष्ट, नहीं है दूजा।।
*******

बेजान साज पर थिरक, रहीं क्यों अंगुल।
ये रात मिलन की रही, बीत हो व्याकुल।
अब साज हृदय का मचल, रहा बजने को।
सब तरस रहें हैं अंग, सजन सजने को।।

मुक्तामणि छंद "गणेश वंदना"

मात पिता शिव पार्वती, कार्तिकेय गुरु भ्राता।
पुत्र रत्न शुभ लाभ हैं, वैभव सकल प्रदाता।।
रिद्धि सिद्धि के नाथ ये, गज-कर से मुख सोहे।
काया बड़ी विशाल जो, भक्त जनों को मोहे।।

भाद्र शुक्ल की चौथ को, गणपति पूजे जाते।
आशु बुद्धि संपन्न ये, मोदक प्रिय कहलाते।।
अधिपति हैं जल-तत्त्व के, पीत वस्त्र के धारी।
रक्त-पुष्प से सोहते, भव-भय सकल विदारी।।

सतयुग वाहन सिंह का, अरु मयूर है त्रेता।
द्वापर मूषक अश्व कलि, हो सवार गण-नेता।।
रुचिकर मोदक लड्डुअन, शमी-पत्र अरु दूर्वा।
हस्त पाश अंकुश धरे, शोभा बड़ी अपूर्वा।।

विद्यारंभ विवाह हो, गृह-प्रवेश उद्घाटन।
नवल कार्य आरंभ हो, या फिर हो तीर्थाटन।।
पूजा प्रथम गणेश की, संकट सारे टारे।
काज सुमिर इनको करो, विघ्न न आए द्वारे।।

भालचन्द्र लम्बोदरा, धूम्रकेतु गजकर्णक।
एकदंत गज-मुख कपिल, गणपति विकट विनायक।।
विघ्न-नाश अरु सुमुख ये, जपे नाम जो द्वादश।
रिद्धि सिद्धि शुभ लाभ से, पाये नर मंगल यश।।

ग्रन्थ महाभारत लिखे, व्यास सहायक बन कर।
वरद हस्त ही नित रहे, अपने प्रिय भक्तन पर।।
मात पिता की भक्ति में, सर्वश्रेष्ठ गण-राजा।
'बासुदेव' विनती करे, सफल करो सब काजा।।
===========
विधान:-

दोहे का लघु अंत जब, सजता गुरु हो कर के।
'मुक्तामणि' प्रगटे तभी, भावों माँहि उभर के।।

मुक्तामणि चार चरणों का 25 मात्रा प्रति चरण का सम पद मात्रिक छंद है जो 13 और 12 मात्रा के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है। 13 मात्रिक खण्ड ठीक दोहे वाले विधान का होता है। दो दो चरण समतुकांत होते हैं। मात्रा बाँट:
विषम पद- 8+3 (ताल)+2 कुल 13 मात्रा।
सम पद- 8+2+2 कुल 12 मात्रा।
अठकल की जगह दो चौकल हो सकते हैं।द्विकल के दोनों रूप (1 1 या 2) मान्य हैं।
*******************
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-09-2016

मरहठा छंद "कृष्ण लीलामृत"

धरती जब व्याकुल, हरि भी आकुल, हो कर लें अवतार।
कर कृपा भक्त पर, दुख जग के हर, दूर करेंं भू भार।।
द्वापर युग में जब, घोर असुर सब, देन लगे संताप।
हरि भक्त सेवकी, मात देवकी, सुत बन प्रगटे आप।।

यमुना जल तारन, कालिय कारन, जो विष से भरपूर।
कालिय शत फन पर, नाचे जम कर, किया नाग-मद चूर।।
दावानल भारी, गौ मझधारी, फँस कर व्याकुल घोर।
कर पान हुताशन, विपदा नाशन, कीन्हा माखनचोर।।

विधि माया कीन्हे, सब हर लीन्हे, गौ अरु ग्वालन-बाल।
बन गौ अरु बालक, खुद जग-पालक, मेटा ब्रज-जंजाल।।
ब्रह्मा इत देखे, उत भी पेखे, दोनों एक समान।
तुम प्रभु अवतारी, भव भय हारी, ब्रह्म गये सब जान।।

ब्रज विपदा हारण, सुरपति कारण, आये जब यदुराज।
गोवर्धन धारा, सुरपति हारा, ब्रज का साधा काज।
मथुरा जब आये, कुब्जा भाये, मुष्टिक चाणुर मार।
नृप कंस दुष्ट अति, मामा दुर्मति, वध कर, दी भू तार।।

शिशुपाल हने जब, अग्र-पूज्य तब, राजसूय था यज्ञ।
भक्तन के तारक, दुष्ट विदारक, राजनीति मर्मज्ञ।।
पाण्डव के रक्षक, कौरव भक्षक, छिड़ा युद्ध जब घोर।
बन पार्थ शोक हर, गीता दे कर, लाये तुम नव भोर।।

ब्रज के तुम नायक, अति सुख दायक, सबका देकर साथ।
जब भीड़ पड़ी है, विपद हरी है, आगे आ तुम नाथ।।
हे कृष्ण मुरारी! जनता सारी, विपदा में है आज।
कर जोड़ सुमरते, विनती करते, रखियो हमरी लाज।
*************
मरहठा छंद विधान:-

यह प्रति चरण कुल 29 मात्रा का छंद है। इसमें यति विभाजन 10, 8,11 मात्रा का है।
मात्रा बाँट:-
प्रथम यति 2+8 =10 मात्रा
द्वितीय यति 8,
तृतीय यति 8+3 (ताल यानि 21) = 11 मात्रा
अठकल की जगह दो चौकल लिये जा सकते हैं। अठकल चौकल के सब नियम लगेंगे।
4 चरण सम तुकांत या दो दो चरण समतुकांत। अंत्यानुप्रास हो तो और अच्छा।
===========

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-10-2016

बरवै छंद "शिव स्तुति"

सदा सजे शीतल शशि, इनके माथ।
सुरसरिता सर सोहे, ऐसो नाथ।।

सुचिता से सेवत सब, है संसार।
हे शिव शंकर संकट, सब संहार।

आक धतूरा चढ़ते, घुटती भंग।
भूत गणों को हरदम, रखते संग।।

गले रखे लिपटा के, सदा भुजंग।
डमरू धारी बाबा, रहे मलंग।।

औघड़ दानी तुम हो, हर लो कष्ट।
दुख जीवन के सारे, कर दो नष्ट।।

करूँ समर्पित तुमको, सारे भाव।
दूर करो हे भोले, भव का दाव।।
==============
बरवै छंद विधान:-

यह बरवै दोहा भी कहलाता है। बरवै अर्ध-सम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 12-12 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ हाती हैं। विषम चरण के अंत में गुरु या दो लघु होने चाहिए। सम चरणों के अन्त में ताल यानि 2 1 होना आवश्यक है। मात्रा बाँट विषम चरण का 8+4 और सम चरण का 4+3 है। अठकल की जगह दो चौकल हो सकते हैं। अठकल और चौकल के सभी नियम लगेंगे।
********************
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-08-2016

Saturday, July 6, 2019

212*4 बह्र के गीत

1) छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
    ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए
2) कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों
3) बेखुदी में सनम उठ गए जो कदम
4) जिस गली में तेरा घर न हो बालमा
5) मेरे महबूब में क्या नहीं क्या नहीं   
6) दिल ने मज़बूर इतना ज़ियादा किया
7) ऐ वतन ऐ वतन तेरे सर की कसम
8) खुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी
9) हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी

गज़ल (याद आती हैं जब)

बह्र:- 212  212  212  212

याद आती हैं जब आपकी शोखियाँ,
और भी तब हसीं होती तन्हाइयाँ।

आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,
दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।

डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,
हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।

गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,
उनकी शायद रहीं कुछ हों मज़बूरियाँ।

मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,
शब सी काली ये आतीं न दुश्वारियाँ।

हुस्नवालों से दामन बचाना ए दिल,
मात दानिश को दें उनकी नादानियाँ।

आग मज़हब की जो भी लगाते 'नमन',
इसमें अपनी ही वे सेंकते रोटियाँ।

दानिश=अक्ल, बुद्धि

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
3-4-18

ग़ज़ल (गीत खुशियों के गाते)

बह्र:- 212*3 + 2

गीत खुशियों के गाते चलेंगे,
जख्म दिल के मिटाते चलेंगे।

रंग अपना जमाते चलेंगे,
रोतों को हम हँसाते चलेंगे।

जो मुहब्बत से महरूम तन्हा,
दिल में उनको बसाते चलेंगे।

झेले जेर-ओ-जबर अब तलक सब,
जग में सर अब उठाते चलेंगे।

सुनले अहल-ए-जहाँ कम नहीं हम,
सबसे आगे ही आते चलेंगे।

काम ऐसे करेंगे सभी मिल,
सबको दुनिया में भाते चलेंगे।

दोस्ती को 'नमन' करते हरदम,
नफ़रतों को भुलाते चलेंगे।

जेर-ओ-जबर=जबरदस्ती नीचे लाना, अस्त व्यस्तता
अहल-ए-जहाँ=दुनियाँ वालों

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-06-17

गीतिका (राम सुमिरन बिना गत नहीं)

(मापनी:- 212  212  212)

राम सुमिरन बिना गत नहीं,
और चंचल ये मन रत नहीं।

व्यर्थ सब कुछ है संसार में,
नाम-जप की अगर लत नहीं।

हैं दिखावे ही जप-तप सभी,
भाव यदि हैं समुन्नत नहीं।

प्राप्त नर-तन का होना वृथा,
भक्ति प्रभु की जो अक्षत नहीं।

लाभ उसकी न चर्चा से कुछ,
बात जो शास्त्र-सम्मत नहीं।

नर वे पशुवत हैं, पर-पीड़ लख
भाव जिनके हों आहत नहीं।

नैन प्यासे 'नमन' मन विकल,
प्रभु-शरण बिन कहीं पत नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-04-18

ग़ज़ल (दरिया है बहुत गहरा)

बह्र:- (221  1222)*2

दरिया है बहुत गहरा, कश्ती भी पुरानी है,
हिम्मत की मगर दिल में, कम भी न रवानी है।

ज़ज़्बा हो जो बढ़ने का, कुछ भी न लगे मुश्किल,
कुछ करने की जीवन में, ये ही तो निशानी है।

दिल उनसे मिला जब से, बदली है फ़ज़ा तब से,
मदहोश नज़ारे हैं, हर शय ही सुहानी है।

बचपन के सुहाने दिन, रह रह के वे याद-आएं,
आँखों में हैं मंज़र सब, हर बात ज़ुबानी है।

औक़ात नहीं कुछ भी, पर आँख दिखाए वो
टकरायेगा हम से तो, मुँह की उसे खानी है।

सिरमौर बने जग का, भारत ये वतन प्यारा,
ये आस हमें पूरी, अब कर के दिखानी है।

जिस ओर 'नमन' देखे, मुफ़लिस ही भरें आहें,
अब सब को गरीबी ये, जड़ से ही मिटानी है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-06-19