Sunday, August 4, 2019

ग़ज़ल (आप का साथ मिला)

बह्र: 2122 1122 1122  22

आप का साथ मिला, मुझ को सँवर जाना था,
पर लिखा मेरे मुक़द्दर में बिखर जाना था।

आ सका आपके नज़दीक न उल्फ़त में सनम,
तो मुझे इश्क़ में क्या हद से गुज़र जाना था।

पहले गर जानता ग़म इस में हैं दोनों के लिये,
इस मुहब्बत से मुझे तब ही मुकर जाना था।

जब भी वो आँख दिखाता है, ख़ता खाता है,
शर्म गर होती उसे कब का सुधर जाना था।

जो लड़े हक़ के लिये, सर पे कफ़न रखते थे,
अहले दुनिया से भला क्यों उन्हें डर जाना था।

सात दशकों से अधिक हो गये आज़ादी को,
देश का भाग्य तो इतने में निखर जाना था।

जो समझते हैं 'नमन' देश को जागीर_अपनी,
ये नशा उनका अभी तक तो उतर जाना था।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-02-19

Saturday, August 3, 2019

2122 1122 1122 22 बह्र के गीत

1 वो मेरी नींद मेरा चैन मुझे लौटा दो

2 ऐ सनम जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है

3 तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी

4 जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग

5 कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी

6 कोई फरियाद तेरे दिल में छुपी हो जैसे

ग़ज़ल (प्यार फिर झूठा जताने आये)

बह्र:- 2122  1122  22/112

प्यार फिर झूठा जताने आये,
साथ ले सौ वे बहाने आये।

बार बार_उन से मैं मिल रोई हूँ,
सोच क्या फिर से रुलाने आये।

दुनिया मतलब से ही चलती, वरना
कौन अब किसको मनाने आये।

राख ये जिस्म तो पहले से ही,
क्या बचा जो वे जलाने आये।

फिर नये वादों की झड़ लेकर वो,
आँसु घड़ियाली बहाने आये।

और अब कितना है ठगना बाकी,
जो वही मुँह ले रिझाने आये।

'बासु' नेताजी से पूछे जनता,
कौन सा भेष दिखाने आये।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-12-2018

ग़ज़ल (उनके हुस्न का गज़ब जलाल है)

बह्र:- 212  1212  1212

उनके हुस्न का गज़ब जलाल है,
ये बनाने वाले का कमाल है।

चहरा मरमरी गढ़ा ये क्या खुदा,
काम ये बहुत ही बेमिशाल है।

जब से रूठ के गये हैं जाने मन,
हम सके नहीं मना मलाल है।

नूर आँख का हुआ ये दूर क्या,
पूछिये न क्या हमारा हाल है।

रात रात बात चाँद से करें,
दिन गुज़रता जैसे कोई साल है।

इस अँधेरी शब की होगी क्या सहर,
दिल में अब तो एक ही सवाल है।

अब 'नमन' की हर ग़ज़ल के दर्द में,
उनका ही रहे छिपा खयाल है।

जलाल- तेज, चमक

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-19

ग़ज़ल (वो जब भी मिली)

बह्र:- 12112*2

वो जब भी मिली, महकती मिली,
गुलाब सी वो, खिली सी मिली।

हो गगरी कोई, शराब की ज्यों,
वो वैसी मुझे, छलकती मिली।

दिखाई पड़ीं, वे जब भी मुझे,
उन_आँखों में बस, खुमारी मिली।

लगाने की दिल, ये कैसी सज़ा,
वफ़ा की जगह, जफ़ा ही मिली।

कभी वो मुझे, बताए ज़रा,
जो मुझ में उसे, ख़राबी मिली।

गिला भी किया, ज़रा भी अगर,
पुरानी मगर, सफाई मिली।

'नमन' तो चला, भलाई की राह,
उसे तो सदा, बुराई मिली।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-07-19

Saturday, July 20, 2019

मौक्तिका (नव वर्ष स्वागत)

1222*4 (विधाता छंद पर आधारित)
(पदांत का लोप, समांत 'आएगा')

नया जो वर्ष आएगा, करें मिल उसका हम स्वागत;
नये सपने नये अवसर, नया ये वर्ष लाएगा।
करें सम्मान इसका हम, नई आशा बसा मन में;
नई उम्मीद ले कर के, नया ये साल आएगा।

मिला के हाथ सब से ही, सभी को दें बधाई हम;
जहाँ हम बाँटते खुशियाँ, वहीं बाँटें सभी के ग़म।
करें संकल्प सब मिल के, उठाएँगे गिरें हैं जो;
तभी कुछ कर गुजरने का, नया इक जोश छाएगा।

दिलों में मैल है बाकी, पुराने साल का कुछ गर;
मिटाएँ उसको पहले हम, नये रिश्तों से सब जुड़ कर।
कसक मन की मिटा करके, दिखावे को परे रख के;
दिलों की गाँठ को खोलें, तभी नव वर्ष भाएगा।

गरीबी ओ अमीरी के, मिटाएँ भेद भावों को;
अशिक्षित ना रहे कोई, करें खुशहाल गाँवों को।
'नमन' नव वर्ष में जागें, ये' सपने सब सजा दिल में;
तभी ये देश खुशियों के, सुहाने गीत गाएगा।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-12-16

सावन विरह-गीत

सावन मनभावन तन हरषावन आया।
घायल कर पागल करता बादल छाया।।

क्यों मोर पपीहा मन में आग लगाये।
सोयी अभिलाषा तन की क्यों ये जगाये।
पी की यादों ने क्यों इतना मचलाया।
सावन -----

ये झूले भी मन को ना आज रिझाये।
ना बाग बगीचों की हरियाली भाये।
बेदर्द पिया ने कैसा प्यार जगाया।
सावन------

जब उमड़ घुमड़ के बैरी बादल कड़के।
तड़के जब बिजली आतुर जियरा धड़के।
याद करूँ ऐसे में पिय ने जब चिपटाया।
सावन-----

झूम झूम के सावन बीते क्या कहती।
यादों में उनकी ही मैं खोई रहती।
क्यों सखि ऐसे में निष्ठुर ने बिसराया।
सावन-----

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-07-16

मुक्तक (सामयिक समस्या)

सिमटा ही जाये देश का देहात शह्र में।
लोगों के खोते जा रहे जज़्बात शह्र में।
सरपंच गाँव का था जो आ शह्र में बसा।
खो बैठा पर वो सारी ही औक़ात शह्र में।।

221  2121  1221  212
*********

खड़ी समस्या कर के कुछ तो, पैदा हुए रुलाने को,
इनको रो रो बाकी सारे, हैं कुहराम मचाने को,   
यदि मिलजुल हम एक एक कर, इनको निपटाये होते,
सुरसा जैसे मुँह फैला ये, आज न आतीं खाने को।

(ताटंक छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-06-19

मुक्तक (उम्मीद,ईमान)

जो बने उम्मीद के थे वे क़िले अब ढ़ह गये;
जो महल ख्वाबों के थे वे आँसुओं में बह गये;
पर समझ अब आ गया है ढंग मुझ को जीने का;
जिंदगी जीता हूँ हँस तो ग़म सिमट के रह गये।

(2122*3  +  212)
*********

बड़ा जग में ईमान सब मानते हैं,
डिगेंगें न इससे क्या सब ठानते हैं,
बहुत कम ही ईमान वाले बचें अब,
बचें उनको भी हम कहाँ जानते हैं।

(122×4)
*********

कफ़स में क़ैद पंछी की तरह अरमान मेरे हैं,
अभी मज़बूरियाँ ऐसी हुए बेगाने अपने हैं,
मगर है हौसला जिंदा, न दे ये टूटने मुझ को,
झलक उम्मीद की पाने अभी खामोश सपने हैं।

(1222*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
9-4-17

मुक्तक (राजनीति-1)

हम जैसों के अच्छे दिन तो, आ न सकें कुछ ने ठाना,
पास हमारे फटक न सकते, बुरे दिवस कुछ ने माना,
ये झुनझुना मगर अच्छा है, अच्छे दिन के ख्वाबों का,
मात्र खिलौना कुछ ने इसको, जी बहलाने का जाना 

(ताटंक छंद आधारित)
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(फाइव ट्रिलियन अर्थव्यवस्था पर)

आज देश में जहाँ देख लो काले घन मँडराये हैं,
मँहगाई की बारिश में सब जमकर खूब नहाये हैं,
अच्छे दिन का अर्थ व्यवस्था में कुछ छोंक लगाने को,
पंजे पर दर्जन भर जीरो रख अब सपना लाये हैं।

(ताटंक छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-11-18

मुक्तक (ढोंगी बाबाओं पर व्यंग)

काम क्रोध के भरे पिटारे, कलियुग के ये बाबा,
गये बेच खा मन्दिर मस्ज़िद, काशी हो या काबा,
चकाचौंध इनकी झूठी है, बचके रहना इनसे,
भोले भक्तों को ठगने का, सारा शोर शराबा।

सार छंद आधारित
*********

लिप्त रहो जग के कर्मों में, ये कैसा सन्यास बता,
भगवा धारण करने से नहिं, आत्म-शुद्धि का चले पता,
राजनीति आश्रम से करते, चंदे का व्यापार चले,
मन की तृप्त न हुई कामना, त्यागी से क्यों रहे जता।

लावणी छंद आधारित
**********
(राम रहीम पर व्यंग)

'अड्डा झूठा कोठा' खोला, ढोंगी काम-कमीन,
'शैतानों का दूत' भूत सा, कुत्सित कीट मलीन,
जग आगे बेटी जो कन्या, राखै बना रखैल,
कारागृह में भेजें इसको, संपद सारी छीन।

सरसी छंद आधारित
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-05-19

मुक्तक (यमक युक्त)

सितम यूँ खूब ढ़ा लो।
या फिर तुम मार डालो।
मगर मुझ से जरा तुम।
मुहब्बत तो बढ़ालो।।
***

दुआ रब की तो पा लो।
बसर अजमेर चालो।
तमन्ना औलिया की।
जरा मन में तो पालो।।
***

अरी ओ सुन जमालो,
मुझे तुम आजमा लो,
ठिकाना अब तेरा तू,
मेरे दिल पे जमा लो।
***

ये ऊँचे ख्वाब ना लो।
जमीं पे पाँ टिका लो।
अरे छोड़ो भी ये जिद।
मुझे अपना बना लो।।
***

खरा सौदा पटा लो।
दया मन में बसा लो।
गरीबों की दुआ से।
सभी संताप टालो।।
***

तराने आज गा लो।
सभी को तुम रिझा लो।
जो सोयें हैं उन्हें भी।
खुशी से तुम जगा लो।।
***

1222 122
(काफ़िया=आ; रदीफ़=लो)
**********

सड़न से नाक फटती, हुई सब जाम नाली;
यहाँ रहना है दूभर, सजन अब चल मनाली;
किसी दूजी जगह का, कभी भी नाम ना ली;
खफ़ा होना वहाँ ना, यहाँ तो मैं मना ली।

(1222  122)*2
**********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-10-17

Friday, July 19, 2019

दोहा गीतिका (भूख)

काफ़िया = ई; रदीफ़ = भूख

दुनिया में सबसे बड़ी, है रोटी की भूख।
पाप कराये घोरतम, जब बिलखाती भूख।।

आँतड़ियाँ जब ऐंठती, जलने लगता पेट।
नहीं चैन मन को पड़े, समझो जकड़ी भूख।।

मान, प्रतिष्ठा, ओहदा, कभी न दें सन्तोष।
ज्यों ज्यों इनकी वृद्धि हो, त्यों त्यों बढ़ती भूख।।

कमला तो चंचल बड़ी, कहीं न ये टिक पाय।
प्राणी चाहे थाम रख, धन की ऐसी भूख।।

भला बूरा दिखता नहीं, चढ़े काम का जोर।
पशुवत् मानव को करे, ये जिस्मानी भूख।।

राजनीति के पैंतरे, नेताओं की चाल।
कुर्सी की इस देश में, सबसे भारी भूख।।

'नमन' भूख पर ही टिका, लोगों का व्यवहार।
जग की है फ़ितरत यही, सब पर हाबी भूख।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-12-2017

कुर्सी की महिमा (कुण्डलिया))

महिमा कुर्सी की बड़ी, इससे बचा न कोय।
राजा चाहे रंक हो, कोउ न चाहे खोय।
कोउ न चाहे खोय, वृद्ध या फिर हो बालक।
समझे इस पर बैठ, सभी का खुद को पालक।
कहे 'बासु' कविराय, बड़ी इसकी है गरिमा।
उन्नति की सौपान, करे मण्डित ये महिमा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-12-2018

सूर घनाक्षरी

8,8,8,6

मिलते विषम दोय, सम-कल तब होय,
सम ही कवित्त को तो, देत बहाव है।

आदि न जगन रखें, लय लगातार लखें,
अंत्य अनुप्रास से ही, या का लुभाव है।

शब्द रखें भाव भरे, लय ऐसी मन हरे,
भरें अलंकार जा का, खूब प्रभाव है।

गाके देखें बार बार, अटकें न मझधार,
रचिए कवित्त जा से, भाव रिसाव है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-4-17

"गुर्वा विधान"

"गुर्वा" विधान:-

मेरे द्वारा प्रतिपादित यह "गुर्वा" हिन्दी साहित्य में काव्य की एक नवीन विधा है। यह हाइकु जैसी लघु संरचना है। जापानी में हाइकु, ताँका, सेदोका इत्यादि और अंग्रेजी में हाइकु, ईथरी आदि लघु कविताएं सिलेबल की गिनती पर आधरित हैं और बहुत प्रचलित हैं। ये कविताएं अपने लघु विन्यास में भी गहनतम भावों का समावेश कर सकती हैं। हिन्दी साहित्य में भी हाइकु, ताँका, सेदोका, चौका, पिरामिड आदि विधाएँ बहुत प्रचलित हो गई हैं। पर हिन्दी में ये विधाएँ जापानी, अंग्रेजी की तरह सिलेबल की गणना पर आधारित न होकर अक्षरों की गणना पर आधारित हैं। इसलिए इन का कलेवर उतना विस्तृत नहीं है। सिलेबल में ध्वनि के अनुसार एक से अधिक अक्षरों का प्रयोग होना सामान्य बात है।

मेरे द्वारा निष्पादित यह 'गुर्वा' कुल 3 पंक्तियों की संरचना है जिसमें 3 पंक्तियों में क्रमशः छह, पांच और छह गुरु वर्ण होते हैं। इस तरह की संरचना हाइकु, ताँका इत्यदि के रूप में हिन्दी में पहले से प्रचलित है पर मेरी यह नवीन विधा उन सब से इस अर्थ में भिन्न है कि प्रचलित विधाओं में अक्षरों की गिनती होती है जबकि इस नवीन विधा में केवल गुरु की गिनती होती है। इसमें पंक्ति का मान निर्धारित गुरु की संख्या से आँका जाता है, इसीलिए इसके लक्षण को सार्थक करता हुआ इसका छोटा सा नाम 'गुर्वा' दिया गया है। इसके तीन पद में क्रमशः 6 - 5 - 6 गुरू होने आवश्यक हैं। इसके उपरांत भी यह गुर्वा मात्रा या वर्णों की संख्या में बंधा हुआ नहीं है। इसे आगे और स्पष्ट किया जायेगा।

हिन्दी छंद शास्त्र में मात्राओं की गणना लघु और गुरु वर्ण के आधार पर होती है। लघु वर्ण के उच्चारण में जितना समय लगता है, गुरु वर्ण के उच्चारण में उसका दुगुना लगता है। लघु का मात्रा भार 1 तथा गुरु का 2 की संख्या से दिगदर्शित किया जाता है।

गुर्वा में हमारा प्रयोजन केवल गुरु से है। लघु वर्ण इस में गणना से मुक्त रहते हैं। गुर्वा की पंक्ति में आये प्रत्येक शब्द के गुरु वर्ण गिने जाते हैं। शब्द में आये एकल लघु नहीं गिने जाते, वे गणनामुक्त होते हैं। आगे लघु वर्ण और गुरु वर्ण पर प्रकाश डालते हुये इसे सोदाहरण और स्पष्ट किया जायेगा।

लघु वर्ण:- स्वतंत्र अक्षर जैसे क, म, ह आदि या संयुक्त वर्ण जैसे स्व, क्य, प्र आदि जब अ, इ, उ, ऋ और अँ से युक्त हों तो ऐसे अक्षर लघु कहलाते हैं। उदाहरण- क, चि, तु, कृ, हँ, क्ति आदि।

गुरु वर्ण:- स्वतंत्र या संयुक्त अक्षर जब आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः से युक्त हों तो ऐसे अक्षर गुरु कहलाते हैं। उदाहरण- का,  टी, फू, ये, जै, मो, रौ, दं, पः, प्रा, स्वी आदि।

इसके अतिरिक्त लघु वर्ण के पश्चात यदि संयुक्त वर्ण हो तो उस में जुड़े आर्ध वर्ण का भार उस लघु वर्ण पर आ जाता है और वह लघु वर्ण गुरु गिना जाता है। जैसे- अश्व, शुभ्र, प्रयुक्त, पवित्र में अ, शु, यु, वि गुरु वर्ण के रूप में गिने जाते हैं। अश्व शब्द में अ वर्ण अपने आप में लघु है परंतु उच्चारण में आधे श का इस पर भार लेकर उच्चरित किया जाता है इसलिये छंद शास्त्र के अनुसार इस अ को गुरु गिना जायेगा। श्व में कोई मात्रा नहीं लगी हुई है अतः वह लघु है। इस प्रकार अश्व शब्द में एक गुरु और एक लघु है। गुर्वा के लिये इस शब्द से एक गुरु प्राप्त होगा और श्व लघु गणनामुक्त है। संयुक्त वर्ण के पहले यदि गुरु है तो वह गुरु ही रहता है। जैसे - साध्य शब्द में सा पहले ही गुरु है, ध्य के आधे ध का भार पड़ने से भी यह गुरु ही रहेगा। साध्य शब्द से गुर्वा के लिये एक गुरु प्राप्त होगा और ध्य लघु गणनामुक्त रहेगा।

ह के साथ यदि आधा न, म , ल जुड़ा हुआ है तो ऐसे संयुक्त वर्ण के पहले आये लघु को कुछ शब्दों में गुरुत्व प्राप्त नहीं होता। जैसे- कन्हैया, तुम्हारा, मल्हार आदि में क, तु, म लघु ही रहते हैं। जिन्हें, इन्हे में जि, इ लघु ही रहते हैं। मल्हार से हमें केवल एक गुरु प्राप्त होगा। म और र दोनों लघु गणनामुक्त हैं। तुम्हारा शब्द में म्हा और रा के दो गुरु गिने जायेंगे। यह अपवाद की श्रेणी का शब्द है जिस में तु को गुरुत्व प्राप्त नहीं होता और यह लघु ही रहता है जो गुर्वा में गणनामुक्त है।

शाश्वत दीर्घ:- किसी भी शब्द में एक साथ आये दो लघु से शाश्वत दीर्घ बनता है जिसे एक गुरु के रूप में गिना जाता है। जैसे- दो अक्षरों के शब्द- तुम, हम, गिरि, ऋतु, रिपु आदि एक गुरु गिने जायेंगे। दो से अधिक अक्षरों के शब्द में एक साथ आये दो लघु वर्ण। जैसे- मानव, भीषण, कटुता में नव, षण और कटु एक गुरु गिना जायेगा। इन तीनों शब्दों में दो दो गुरु हैं। तक्षक में भी दो गुरु गिने जायेंगे। संयुक्त क्ष का त पर भार आने से त को गुरुत्व प्राप्त हो गया तथा क्षक शाश्वत दीर्घ के रूप में गुरु है। तीन अक्षरों के शब्द जिसमें तीनों अक्षर लघु हों तो अंतिम दो लघु मिल कर एक गुरु गिने जाते हैं और शब्द का प्रथम लघु गणनामुक्त रहता है। जैसे- कमल, अडिग, मधुर आदि में एक गुरु गिना जायेगा। हलचल, मधुकर, सविनय आदि में 2 गुरु गिने जायेंगे। घबराहट में 3 गुरु गिने जाते हैं- घब, रा और हट। समन्वय में स लघु, म= गुरु (न्व संयुक्त वर्ण), न्वय= गुरु। कुल 2 गुरु स गणनामुक्त। 'विचारणीय' में चा और णी केवल दो गुरु हैं। वि, र, य तीन लघु होने पर भी लघु का जोड़ा नहीं है। इसलिये ये गणनामुक्त हैं और गुर्वा के लिये इस शब्द में केवल दो गुरु हैं। 'विरचा' में भी दो गुरु हैं, विर और चा।

गुर्वा में गुरु का निर्धारण पंक्ति में आये एक एक शब्द के आधार पर करने से यह बहुत ही सरल है।

(1) एक अक्षर के बिना मात्रा के न, व गणनामुक्त हैं। था, है, क्यों, भी आदि एक गुरु के शब्द हैं।

(2) दो अक्षर के शब्द में दो गुरु होने के लिये या तो दोनों अक्षर दीर्घ मात्रिक हों या दुसरा अक्षर दीर्घ मात्रा के साथ संयुक्ताक्षर हो जिससे कि प्रथम अक्षर को गुरुत्व प्राप्त हो जाये। ऊपर बताये गये अपवादों पर ध्यान रहे। अन्य स्थिति में एक गुरु गिना जायेगा।

(3) तीन अक्षर के शब्द में एक गुरु तभी हो सकता है जब तीनों अक्षर लघु रहे, जैसे - प्रबल, पतित आदि। या जगणात्मक शब्द हो, जैसे -  उपाय, विचार, स्वतंत्र आदि। दोगुरु के मध्य का लघु गणनामुक्त है। जैसे - मेमना, ढोकला, देखना, छोकरी, नाशिनी। इन सब में दो गुरु गिने जायेंगे। त्रिअक्षरी में तीन गुरु होने के लिये तीनों अक्षर दीर्घमात्रिक हों या विश्वासी जैसे शब्दों में एक लघु को गुरुत्व प्राप्त हो।

तीन से अधिक अक्षरों के शब्दों में साथ साथ आये दो लघु पर विशेष ध्यान रखें। क्योंकि इनका मान एक गुरु का हैं। आचमन में आ और मन के मध्य का च गणनामुक्त तथा इस शब्द में दो गुरु हैं।

(4) सामासिक शब्द में गुरु गणना विग्रह के पश्चात मूल शब्दों में की जाती है। जैसे- मध्यप्रदेश में  2 गुरु गिने जायेंगे न कि 3। मध्य =1 और प्रदेश = 1 जबकि शब्द के मध्य में ध्य, प्र दो लघु एक साथ हैं। ऐसे ही रामकृपा में भी राम =1 और कृपा = 1, अलग अलग गुरु विचार होगा।  कुल दो गुरु। सोचविचार में सोच = 1 और विचार = 1, कुल दो गुरु। ऐसे शब्दों में दोनों शब्द अपना स्वतंत्र अर्थ रखते हैं।

जिन रचनाकारों को मात्रा गणना का सम्यक ज्ञान है और जो छंदबद्ध सृजन करने में सिद्धहस्त हैं उनके लिये इस विधा में लघु वर्ण का गणनामुक्त रहने के अतिरिक्त कुछ भी नया नहीं है।सर्वशक्तिमान में र्व, क्ति और न तीनों गणनामुक्त हैं। इस शब्द में तीन लघु हैं पर लघु की जोड़ी एक भी नहीं है। र्व, क्ति संयुक्त हैं जिनका भार स और श पर आ रहा है इसलिये स और श को गुरुत्व प्राप्त हो गया। इस प्रकार इस शब्द में तीन गुरु हुये।

पंक्तियों की स्वतंत्रता:- इस विधा में भी हाइकु, ताँका, चौका की तरह पंक्तियों की स्वतंत्रता रखना अत्यन्त आवश्यक है। हर पंक्ति अपने आप में स्वतंत्र होनी चाहिये। यह केवल 17 गुरु की संरचना है और उसी में गागर में सागर भरना होता है अतः चमत्कारिक बात कहें। रचनाकार शब्द चित्र खींच सकता है, अपने चारों ओर के परिवेश का वर्णन कर सकता है या कुछ भी अनुभव जनित भावों को अभिव्यक्त कर सकता है।

समतुकांतता:- रचना की तीन पंक्तियों में से कोई भी दो पंक्तियों में समतुकांतता आवश्यक है। तीनों पंक्तियाँ भी समतुकांत हो सकती हैं। यह तुकांतता शब्दांत में केवल स्वर साम्य की भी रखी जा सकती है। जैसे आ के साथ आ की, ई के साथ ई की, आअ के साथ आअ, एअ के साथ एअ, अअ के साथ अअ आदि।

मैं 'गुर्वा' की अपनी प्रथम रचना माँ शारदा के चरणों में अर्पित करते हुये इस विधान को और स्पष्ट करता हूँ।

शारद वंदन "गुर्वा" :-

वंदन वीणा वादिनी, (2, 2, 2 तीन शब्दों में = 6 गुरु।)
मात ज्ञान की दायिनी, (1, 1, 1, 2 चार शब्दों में 5 गुरु।)
काव्य बोध का मैं कांक्षी। (1, 1, 1, 1, 2 पांच शब्दों में = 6 गुरु।)

(रचना में 8, 8, 8 कुल 24 वर्ण। 13, 13, 14 कुल 40 मात्रा।)

लक्षण "गुर्वा" :-

रस शर ऋतु क्रम से रखें, (1, 1, 1, 1, 1, 1 छह शब्दों में = 6 गुरु।)
मात्र दीर्घ का कर गणन, (1, 1, 1, 1, 1 पांच शब्दों में 5 = गुरु।)
'गुर्वा' मुखरित कर चखें। (2, 2, 1, 1 चार शब्दों में =  6 गुरु।)

(प्रथम पंक्ति में षट रस, पंच शर, षट ऋतु संख्यावाचक हैं। रचना में 11, 10, 10 कुल 31 वर्ण। 13, 13, 13 कुल 39 मात्रा।)

आप स्वयं देखें कि केवल गुरु वर्ण की गणना की अवधारणा, शब्द में एकल रूप से आये लघु वर्णों की गणना से छूट आपके समक्ष सृजन के नव आयाम खोल रही है। इन छूट से हिन्दी में भी यह विधा जापानी और इंगलिश में प्रचलित सिलेबल गणना जितना विस्तृत कलेवर ग्रहण कर रही है। सिलेबल का निर्धारण उच्चारण पर आधारित रहता है जबकि गुरु गणना, इसमें छूट आदि स्वरूप पर आधारित है जिस में संदेह का स्थान नहीं। इतनी छूट सृजकों की कल्पना को नवीन ऊँचाइयाँ प्रदान कर रही है। साथ ही पंक्तियों को अनेक छंदों की लय के अनुसार ढाला जा सकता है। तुकांतता रचना को कविता का स्वरूप देती है। पंक्तियाँ निश्चित की हुई गुरु की संख्या से आबद्ध हैं फिर भी गुर्वा वर्णों की संख्या और मात्रा की संख्या या उनके क्रम के बंधन में बंधा हुआ नहीं है। इसकी यह स्वतंत्रता सृजक को अनंत आकाश उपलब्ध कराती है जिसमें वह कल्पना की उन्मुक्त उड़ान भर सके।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-06-19

Tuesday, July 16, 2019

मौक्तिक दाम छंद "विनायक वंदन"

गजानन विघ्न करो सब दूर।
करो तुम आस सदा मम पूर।।
नवा कर माथ करूँ नित जाप।
कृपा कर के हर लो भव-ताप।।

प्रियंकर रूप सजे गज-भाल।
छटा अति मोहक तुण्ड विशाल।।
गले उपवीत रखो नित धार।
भुजा अति पावन सोहत चार।।

धरें कर में शुभ अंकुश, पाश।
करें उनसे रिपु, दैत्य विनाश।।
बिराजत हैं कमलासन नाथ।
रखें सर पे शुभदायक हाथ।।

दयामय विघ्न विनाशक आप।
हरो प्रभु जन्मन के सब पाप।।
बसो हिय पूर्ण करो सब काज।
रखो प्रभु भक्तन की पत आज।।
=============
विधान छंद:-

पयोधर चार मिलें क्रमवार।
भुजा तुक में कुल पाद ह चार।।
रचें सब छंद महा अभिराम।
कहावत है यह मौक्तिक दाम।।

पयोधर = जगन ।ऽ। के लिए प्रयुक्त होता है।
भुजा= दो का संख्यावाचक शब्द
121  121  121 121 = 12वर्ण

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-01-18

मोटनक छन्द "भारत की सेना"

सेना अरि की हमला करती।
हो व्याकुल माँ सिसकी भरती।।
छाते जब बादल संकट के।
आगे सब आवत जीवट के।।

माँ को निज शीश नवा कर के।
माथे रज भारत की धर के।।
टीका तब मस्तक पे सजता।
डंका रिपु मारण का बजता।।

सेना करती जब कूच यहाँ।
छाती अरि की धड़कात वहाँ।।
डोले तब दिग्गज और धरा।
काँपे नभ ज्यों घट नीर भरा।।

ये देख छटा रस वीर जगे।
सारी यह भू रणक्षेत्र लगे।।
गावें महिमा सब ही जिनकी।
माथे पद-धूलि धरूँ उनकी।।
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लक्षण छंद:-

"ताजाजलगा" सब वर्ण शुभं।
राचें मधु छंदस 'मोटनकं'।।

"ताजाजलगा"= तगण जगण जगण लघु गुरु।
221 121 121 12 = 11 वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-03-2017

मलयज छंद "प्रभु-गुण"

सुन मन-मधुकर।
मत हिय मद भर।।
करत कलुष डर।
हरि गुण उर धर।।

सरस अमिय सम।
प्रभु गुण हरदम।।
मन हरि मँह रम।
हर सब भव तम।।

मन बहुत विकल।
हलचल प्रतिपल।।
पड़त न कछु कल।
हरि-दरशन हल।।

प्रभु-शरण लखत।
यह सर अब नत।।
तव चरण पड़त।
रख नटवर पत।।
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लक्षण छंद:-

"ननलल" लघु सब।
'मलयज' रच तब।

 "ननलल" = नगण नगण लघु लघु।
8 लघु, 4चरण समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-01-17

मनोज्ञा छंद "होली"

भर सनेह रोली।
बहुत आँख रो ली।।
सजन आज होली।
व्यथित खूब हो ली।।

मधुर फाग आया।
पर न अल्प भाया।।
कछु न रंग खेलूँ।
विरह पीड़ झेलूँ।।

यह बसंत न्यारी।
हरित आभ प्यारी।।
प्रकृति भी सुहायी।
नव उमंग छायी।।

पर मुझे न चैना।
कटत ये न रैना।।
सजन याद आये।
न कुछ और भाये।।

विकट ये बिमारी।
मन अधीर भारी।।
सुख समस्त छीना।
अति कठोर जीना।।

अब तुरंत आ के।
हृदय से लगा के।।
सुध पिया तु लेवो।
न दुख और देवो।।
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लक्षण छंद:-

"नरगु" वर्ण सप्ता।
रचत है 'मनोज्ञा'।।

"नरगु" = नगण रगण गुरु
111 212 + गुरु = 7-वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-03-17