Friday, October 25, 2019

रमणीयक छंद "कृष्ण महिमा"

मोर पंख सर पे, कर में मधु बाँसुरी।
पीत वस्त्र, कटि में कछनी अति माधुरी।।
ग्वाल बाल सँग धेनु चरावत मोहना।
कौन नित्य नहिं चाहत ये छवि जोहना।।

दिव्य रूप मनमोहन का नर चाख ले।
नाम-जाप रस को मन में तुम राख ले।।
कृष्ण श्याम मुरलीधर मोहन साँवरा।
एक नाम कछु भी जपले मन बावरा।।

मैं गँवार मति पाप-लिप्त अति दीन हूँ।
भोग और धन-संचय में बस लीन हूँ।।
धर्म आचरण का प्रभु मैं नहिं विज्ञ हूँ।
भाव भक्ति अरु अर्चन से अनभिज्ञ हूँ।।

मैं दरिद्र शरणागत हो प्रभु आ गया।
हाथ थाम कर हे ब्रजनाथ करो दया।।
भीर कोउ पड़ती तुम्हरा तब आसरा।
कष्टपूर्ण भव-ताप हरो इस दास रा।।
===================
लक्षण छंद:-

वर्ण राख कर पंच दशं "रनभाभरा"।
छंद राच 'रमणीयक' हो मन बावरा।।

"रनभाभरा" = रगण नगण भगण भगण रगण
212 111 211 211 212 =15 वर्ण
चार चरण, दो दो या चारों समतुकांत।
**********************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

13-07-17

रथपद छंद "मधुर स्मृति"

जब तुम प्रियतम में खोती।
हलचल तब मन में होती।।
तुम अतिसय दुख की मारी।
विरह अगन सहती सारी।।

बरसत अँसुवन की धारा।
तन दहकत बन अंगारा।।
मरम रहित जग से हारी ।
गुजर करत सह लाचारी।।

निश-दिन तब कितने प्यारे।
जब पिय प्रणय-सुधा डारे।।
तन मन हरषित था भारी।
सरस प्रकृति नित थी न्यारी।।

मधुरिम स्मृति गठरी ढ़ोती।
स्मर स्मर कर उनको रोती।।
लहु कटु अनुभव का पीती।
बस दुख सह कर ही जीती।।
============
लक्षण छंद:-

"ननुसगग" वरण की छंदा।
'रथपद' रचत सभी बंदा।।

"ननुसगग" =  नगण नगण सगण गुरु गुरु

( 111  111  112   2   2 )
11वर्ण,4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत
***************
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-01-19

गीता महिमा (कुण्डलिया)

गीता अद्भुत ग्रन्थ है, काटे भव की दाह।
ज्ञान अकूत भरा यहाँ, जिसकी कोइ न थाह।
जिसकी कोइ न थाह, लगाओ जितना गोता।
कटे पाप की पाश, गात मन निर्मल होता।
कहे 'बासु' समझाय, ग्रन्थ यह परम पुनीता।
सब ग्रन्थों का सार, पढें सारे नित गीता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-12-18

Wednesday, October 23, 2019

गीत (छठ मैया)

चरणन में छठ माँ के,
कोसिया भरावण के,
दऊरा उठाई चले,
सब नर नार हो।

गंगा के घाट लगी,
भीड़ भगतन की,
देखो छठ मइया की,
महिमा अपार हो।

माथे पे सब चले दऊरा उठाई,
बबुआ, देवर, कहीं भतीजा, भाई,
सुहानी नार सजी,
बिहाने बिहाने चली,
पग में महावर लगी,
सँग भरतार हो।

जल में खड़े हो अर्घ देवन को,
उगते सूरज की पूजा करन को,
सब दिवले जलाये,
फल, पुष्पन चढाये,
माला अर्पण करे,
करो स्वीकार हो।

छठ माई पूर्ण करो इच्छाएँ सारी,
तेरी तो महिमा जग में है भारी,
अन-धन भंडार भरो,
सब को निरोग रखो,
चाही सन्तान देवो,
सुखी संसार हो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-2018

नवगीत (मन-भ्रमर)

मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
पगले डोल।

जिन कलियों को नित चूमे,
जिन पर तुम गुंजार करे,
क्यों मग्न हुआ इतना झूमे,
निश्चित उनका मकरंद झरे,
लो ठीक से तोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

क्षणिक मधु के पीछे भागे,
नश्वर सुख में है तु रमा,
कैसे तेरे भाग हैं जागे,
जो इनमें तु रहा समा,
मन की गाँठें खोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

नव रस के जहाँ पुष्प खिले,
शांत, करुण तो और श्रृंगार,
वात्सल्य कभी तो भक्ति मिले,
तो वीर, हास्य की है फुहार,
जीवन में इनको घोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

छंदों के रंग बिरंगे हैं दल,
रस अनेक भाव के यहाँ भरे,
जीवन यहाँ का निश्छल,
अलंकार सब सन्ताप हरे,
ना इनका कोई मोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-08-2016

Sunday, October 20, 2019

कुण्डला मौक्तिका (बेटी)

(पदांत 'बेटी', समांत 'अर')

बेटी शोभा गेह की, मात पिता की शान,
घर की है ये आन, जोड़ती दो घर बेटी।।
संतानों को लाड दे, देत सजन को प्यार,
रस की करे फुहार, नेह दे जी भर बेटी।।

रिश्ते नाते जोड़ती, मधुर सभी से बोले,
रखती घर की एकता, घर के भेद न खोले।
ममता की मूरत बड़ी, करुणा की है धार,
घर का सामे भार, काँध पर लेकर बेटी।।

परिचर्या की बात हो, नारी मारे बाजी,
सेवा करती धैर्य से, रोगी राखे राजी।
आलस सारा त्याग के, करती सारे काम,
रखती अपना नाम, सभी से ऊपर बेटी।।

लगे अस्मिता दाव पे, प्रश्न शील का आए,
बड़ी जागरुक नार है, खल कामी न सुहाए।
लाख प्रलोभन सामने, इज्जत की हो बात,
नहीं छून दे गात, मारती ठोकर बेटी।।

चले नहीं नारी बिना, घर गृहस्थ की गाडी,
पूर्ण काज सम्भालती, नारी सब की लाडी।
हक देवें, सम्मान दें, उसकी लेवें राय,
दिल को लो समझाय, नहीं है नौकर बेटी।।

जिस हक की अधिकारिणी, कभी नहीं वह पाई,
नर नारी के भेद की, पाट सकी नहिं खाई।
पीछा नहीं छुड़ाइए, देकर चुल्हा मात्र,
सदा 'नमन' की पात्र, रही जग की हर बेटी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-10-2016

Friday, October 18, 2019

दुर्मिल सवैया (सरस्वती वंदना)

(8सगण)

शुभ पुस्तक हस्त सदा सजती, पदमासन श्वेत बिराजत है।
मुख मण्डल तेज सुशोभित है, वर वीण सदा कर साजत है।
नर-नार बसन्तिय पंचम को, सब शारद पूजत ध्यावत है।
तुम हंस सुशोभित हो कर माँ, प्रगटो वर सेवक माँगत है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-02-2017

विजया घनाक्षरी (कामिनी)

(8, 8, 8, 8 पर यति अनिवार्य।
प्रत्येक यति के अंत में हमेशा लघु गुरु (1 2) अथवा 3 लघु (1 1 1) आवश्यक।
आंतरिक तुकान्तता के दो रूप प्रचलित हैं। प्रथम हर चरण की तीनों आंतरिक यति समतुकांत। दूसरा समस्त 16 की 16 यति समतुकांत। आंतरिक यतियाँ भी चरणान्त यति (1 2) या (1 1 1) के अनुरूप रखें तो उत्तम।)


तम में घिरी यामिनी, चमक रही दामिनी,
पिया में रमी कामिनी, कौन यह सुहासिनी।

आयी मिलने की घड़ी, व्याकुलता लिये बड़ी,
घर से निकल पड़ी, काम-विह्वल मानिनी।

सुनसान डगरिया, तन की न खबरिया,
लचकाय कमरिया, ठुमक चले भाविनी।

मन हरषाय रही, तन को लुभाय रही,
मद छलकाय रही, नार यह उमंगिनी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-06-19

कृपाण घनाक्षरी (विनती)

8,8,8,8 अंत गुरु लघु हर यति समतुकांत।

जगत ये पारावार, फंस गया मझधार,
दिखे नहीं आर-पार, थाम प्रभु पतवार।

नहीं मैं समझदार, जानूँ नहीं व्यवहार,
कैसे करूँ मनुहार, करले तु अंगीकार।

चारों ओर भ्रष्टाचार, बढ़ गया दुराचार,
मच गया हाहाकार, धारो अब अवतार।

छाया घोर अंधकार, प्रभु कर उपकार,
करके तु एकाकार, करो मेरा बेड़ा पार।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-05-17

Monday, October 14, 2019

मुक्तक (आँसू)

मानस सागर की लहरों के हैं उफान मेरे आँसू,
वर्षों से जो दबी हृदय में वो पीड़ा कहते आँसू,
करो उपेक्षा मत इनकी तुम सुनलो ओ दुनियाँ वालों,
शब्दों से जो व्यक्त न हो उसको कह जाते ये आँसू।

(2×15)
*********

देख कर के आपकी ये जिद भरी नादानियाँ,
हो गईं लाचार सारी ही मेरी दानाइयाँ,
झेल जिनको कब से मैं बस खूँ के आँसू पी रहा,
लोग सरहाते बता कर आपकी ये खूबियाँ।

(2122*3 + 212)
**********

हम न वो राह से जो भटक जाएंगे,
इसकी दुश्वारियाँ देख थक जाएंगे,
हम तो खारों में भी हँसते गुल की तरह,
ये वो आँसू नहीं जो छलक जाएंगे

(212*3)
**********

बासुदेव अग्रवाल ,'नमन'
तिनसुकिया
24-08-17

मुक्तक (मुहब्बत)

अगर तुम मिल गई होती मुहब्बत और हो जाती,
खुशी के गीत गाते दिल की फ़ितरत और हो जाती,
लिखा जब ठोकरें खाना गिला करने से अब क्या हो,
मिले होते अगर दिल तो हक़ीक़त और हो जाती।

अगर ये दिल नहीं होता मुहब्बत फिर कहाँ होती,
मुहब्बत गर न होती तो इबादत फिर कहाँ होती,
इबादत के उसूलों पे टिके जग के सभी मजहब,
अगर मजहब न होता तो इनायत फिर कहाँ होती।

(1222*4)
*********

हर गीत मुहब्बत का चाहत से सँवारा है,
दी दिल ने सदा जब भी तुझको ही पुकारा है,
यादों में तेरी जानम दिन रो के गुजारें हैं,
तू फिर भी रहे रूठी कब दिल को गवारा है।

(221  1222)*2
*********

इश्क़ के चक्कर में ये कैसी ज़हालत हो गयी,
देखते ही देखते रुस्वा मुहब्बत हो गयी,
सोच ये आगे बढ़े थे, दिल पे उनका है करम,
पर किया ज़ाहिर तो बोले ये हिमाक़त हो गयी।

(2122*3 +  212)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-08-17

पुछल्लेदार मुक्तक "चारा घोटाला"

बन्द तबेलों में सिसके हैं पड़ी पड़ी भैंसें सारी।
स्वारथ के अन्धों ने उनके पेटों पर लातें मारी।
बेच खा गये चारा उनका घोटाला करके भारी।
ऐसे चोर उचक्कों का क्या करलें भैसें बेचारी।।

चोरों ने किया चारा सारा मीसिंग,
की नोटों पे खूब कीसिंग,
अब जेलों में चक्की पीसिंग,
सुनो रे मेरे सब भाइयों
बासुदेव कवि पोल आज खोलिंग।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-04-18

मुक्तक (देश भक्ति)

सभी देशों में अच्छा देश भारतवर्ष प्यारा है,
खिले हम पुष्प इसके हैं बगीचा ये हमारा है,
हजारों आँधियाँ झकझोरती इसको सदा आईं,
मगर ये बाँटता सौरभ रहा उनसे न हारा है।

(1222*4)
*********

यह देश हमारी माँ, हम आन रखें इसकी।
चरणों में झुका माथा, सब शान रखें इसकी।
इस जन्म-धरा का हम, अब शीश न झुकने दें।
सब प्राण लुटा कर के, पहचान रखें इसकी।

(221 1222)*2
*********

देश के गद्दार जो हैं जान लो सब,
उनके' मंसूबों को' तुम पहचान लो सब,
नाग कोई देश में ना फन उठाए,
नौजवानों आज मन में ठान लो सब।

देश का ऊँचा करें मिल नाम हम सब,
देश-हित के ही करें बस काम हम सब,
एकता के बन परम आदर्श जग में,
देश को पावन बनाएं धाम हम सब।

(2122*3)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-04-18

Thursday, October 10, 2019

सुजान छंद (पर्यावरण)

पर्यावरण खराब हुआ, यह नहिं संयोग।
मानव का खुद का ही है, निर्मित ये रोग।।

अंधाधुंध विकास नहीं, आया है रास।
शुद्ध हवा, जल का इससे, होय रहा ह्रास।।

यंत्र-धूम्र विकराल हुआ, छाया चहुँ ओर।
बढ़ते जाते वाहन का, फैल रहा शोर।।

जनसंख्या विस्फोटक अब, धर ली है रूप।
मानव खुद गिरने खातिर, खोद रहा कूप।।

नदियाँ मैली हुई सकल, वन का नित नाश।
घोर प्रदूषण जकड़ रहा, धरती, आकाश।।

वन्य-जंतु को मिले नहीं, कहीं जरा ठौर।
चिड़ियों की चहक न गूँजे, कैसा यह दौर।।

चेतें जल्दी मानव अब, ले कर संज्ञान।
पर्यावरण सुधारें वे, हर सब व्यवधान।।

पर्यावरण अगर दूषित, जगत व्याधि-ग्रस्त।
यह कलंक मानवता पर, हो जीवन त्रस्त।।
**********

(सुजान २३ मात्राओं का मात्रिक छंद है. इस छंद में हर पंक्ति में १४ तथा ९ मात्राओं पर यति तथा गुरु लघु पदांत का विधान है। अंत ताल 21 से होना आवश्यक है।)

***********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-06-19

सार छंद 'महर्षि वाल्मीकि'

सार छंद / ललितपद छंद

दस्यु राज रत्नाकर जग में, वालमीकि कहलाए।
उल्टा नाम राम का इनको, नारद जी जपवाए।।
मरा मरा से राम राम की, सुंदर धुन जब आयी।
वालमीकि जी ने ब्रह्मा सी, प्रभुताई तब पायी।।

घोर तपस्या में ये भूले, तन की सुध ही सारी।
दीमक इनके तन से चिपटे, त्वचा पूर्ण खा डारी।।
प्रणय समाहित क्रोंच युगल को, तीर व्याध जब मारा।
प्रथम अनुष्टुप छंद इन्होंने, करुणा में रच डारा।।

विधि तब प्रगटे, बोले इनसे, शारद मुख से फूटी।
राम-चरित की मधुर पिलाओ, अब तुम जग को बूटी।।
रामायण से महाकाव्य की, इनने सरित बहायी।
करे निमज्जन उसमें ये जग, होते राम सहायी।।

शरद पूर्णिमा के दिन इनकी, मने जयंती प्यारी।
कीर्ति पताका जग में फहरे, शरद चन्द्र सी न्यारी।।
शत शत 'नमन' आदि कवि को है, चरणों में है वन्दन।
धूम धाम से इस अवसर पर, सभी करें अभिनन्दन।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
05-10-17

सार छंद / ललितपद छंद 'विधान'

सार छंद / ललितपद छंद

सार छंद जो कि ललितपद छंद के नाम से भी जाना जाता है, चार पदों का अत्यंत गेय सम-पद मात्रिक छंद है। इस में प्रति पद 28 मात्रा होती है। यति 16 और 12 मात्रा पर है। दो दो पद समतुकान्त। 

मात्रा बाँट- 16 मात्रिक चरण ठीक चौपाई वाला और 12 मात्रा वाले चरण में तीन चौकल, एक चौकल और एक अठकल या एक अठकल और एक चौकल हो सकता है। 12 मात्रिक चरण का अंत गुरु या 2 लघु से होना आवश्यक है किन्तु गेयता के हिसाब से गुरु-गुरु से हुआ चरणान्त अत्युत्तम माना जाता है लेकिन ऐसी कोई अनिवार्यता भी नहीं है।

छन्न पकैया -  छन्न पकैया रूप सार छंद का एक और प्रारूप है जो कभी लोक-समाज में अत्यंत लोकप्रिय हुआ करता था। किन्तु अन्यान्य लोकप्रिय छंदों की तरह रचनाकारों के रचनाकर्म और उनके काव्य-व्यवहार का हिस्सा बना न रह सका। इस रूप में सार छंद के प्रथम चरण में ’छन्न-पकैया छन्न-पकैया’ लिखा जाता है और आगे छंद के सारे नियम पूर्ववत निभाये जाते हैं। 

’छन्न पकैया छन्न पकैया’ एक तरह से टेक हुआ करती है जो उस छंद के कहन के प्रति श्रोता-पाठक का ध्यान आकर्षित करती हुई एक माहौल बनाती है। इस में रचनाकार बात की बात में, कई बार गहरी बातें साझा कर जाते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया



सरसी छंद "राजनाथजी"

सरसी छंद / कबीर छंद

भंभौरा में जन्म लिया है, यू पी का यक गाँव।
रामबदन खेतीहर के घर, अपने रक्खे पाँव।।
सन इक्यावन की शुभ बेला, गुजरातीजी मात।
राजनाथजी जन्म लिये जब, सबके पुलके गात।।

पाँव पालने में दिखलाये, होनहार ये पूत।
थे किशोर तेरह के जब ये, बने शांति के दूत।।
जुड़ा संघ से कर्मवीर ये, आगे बढ़ता जाय।
पीछे मुड़ के कभी न देखा, सब के मन को भाय।।

राजनाथ जी सदा रहे हैं, सभी गुणों की खान।
किया दलित पिछड़ों की खातिर, सदा गरल का पान।।
सदा देश का मान बढ़ाया, स्पष्ट बात को बोल।
हिन्दी को इनने दिलवाया, पूरे जग में मोल।।

गृह मंत्रालय थाम रखा है, होकर के निर्भीक।
सिद्धांतों पर कभी न पीटे, तुष्टिकरण की लीक।।
अभिनन्दन 'संसार करत है, 'नमन' आपको 'नाथ'।
बरसे सौम्य हँसी इनकी नित, बना रहे यूँ साथ।।

लिंक --> सरसी छंद / कबीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया (असम)
28-09-17

Sunday, October 6, 2019

ग़ज़ल (आँखों के तीर दिल)

बह्र:- 221  2121  1221  212

आँखों के तीर दिल में चुभा कर चले गये,
घायल को छोड़ मुँह को छुपा कर चले गये।

चुग्गा वे शोखियों का चुगा कर चले गये,
सय्याद बनके पंछी फँसा कर चले गये।

आना भी और जाना भी उनका था हादसा,
अनजान से ही मन में समा कर चले गये।

सहरा में है सराब सा उनका ये इश्क़ कुछ,
पूरे न हो वो ख्वाब दिखा कर चले गये।

ताउम्र क़ैद चाहता था अब्रे जुल्फ़ में,
दिखला घटा, वो प्यास बढ़ा कर चले गये।

अनजानों से न आँख लड़ाना ए दिल कभी,
ये सीख कीमती वे सिखा कर चले गये।

अब तो 'नमन' है चश्मे वफ़ा का ही मुंतज़िर,
ख्वाहिश हुजूर क्यों ये जगा कर चले गये।

सहरा=रेगिस्तान
सराब=मृगतृष्णा
अब्रे ज़ुल्फ़=जुल्फ का बादल
चश्मे वफ़ा=वफ़ा भरी नज़र
मुंतज़िर=प्रतीक्षारत

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-17

ग़ज़ल "ईद मुबारक़"

बह्र:- 221 1221 1221 122

रमजान गया आई नज़र ईद मुबारक,
खुशियों का ये दे सबको असर ईद मुबारक।

घुल आज फ़ज़ा में हैं गये रंग नये से,
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक।

पाँवों से ले सर तक है धवल आज नज़ारा,
दे कर के दुआ कहता है हर ईद मुबारक।

सब भेद भुला ईद गले लग के मनायें,
ये पर्व रहे जग में अमर ईद मुबारक।

ये ईद है त्योहार मिलापों का अनोखा,
दूँ सब को 'नमन' आज मैं कर ईद मुबारक।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-06-17

ग़ज़ल (आजकल उनसे मुलाकातें)

बह्र:- 2122   2122   2122   212

आजकल उनसे मुलाकातें कहानी हो गईं,
शोखियाँ उनकी अदाएँ अब पुरानी हो गईं।

हम नहीं उनको मना पाये गए जब रूठ वों,
ज़िंदगी में गलतियाँ कुछ ना-गहानी हो गईं।

प्यार उनका पाने की मन में कई थी हसरतें,
चाहतें लेकिन वो सारी आज पानी हो गईं।

फाग बीता आ गई मधुमास की रंगीं फ़िजा,
टेसुओं की टहनियाँ सब जाफ़रानी हो गईं।

हुक्मरानों की बढ़ी है ऐसी कुछ चमचागिरी,
हरकतें बचकानी उनकी बुद्धिमानी हो गईं।

थे मवाली जो कभी वे आज नेता हैं बड़े,
देखिए सारी तवायफ़ खानदानी हो गईं।

बोलबाला आज अंग्रेजी का ऐसा देश में,
मातृ भाषाएँ हमारी नौकरानी हो गईं।

बंसी-वट पे साँवरे की जब कभी बंसी बजी,
गोपियाँ घर छोड़ उसकी ही दिवानी हो गईं।

हाथ रख सर पे सदा आगे बढ़ाते आये जो,
अब 'नमन' रूहें वो सारी आसमानी हो गईं।

ना-गहानी= अकस्मात्

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-03-2017