Tuesday, November 26, 2019

दोहा "राम महिमा"

दोहा छंद

शीश नवा वन्दन करूँ, हृदय बसो रघुनाथ।
तुलसी के प्रभु रामजी, धनुष बाण ले हाथ।।

राही अब तो चेत जा, भज ले मन से राम।
कष्ट मिटे सब राह के, बनते बिगड़े काम।।

महिमा है प्रभु राम की, चारों ओर अनंत।
गावै वेद पुराण सब, ऋषि मुनि साधू संत।।

रघुकुल भूषण राम का, ऐसा प्रखर प्रताप।
नाम जाप से ही कटे, भव के सारे पाप।।

दीन पतित जन का सदा, राम करे उद्धार।
प्रभु से बढ़ कर कौन जो, भव से करता पार।।

सीता माता लाज रख, नित करता मैं ध्यान।
देकर के आशीष तुम, मात बढ़ाओ मान।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-01-19

ताँका (संदल तन)

जापानी विधा (5-7-5-7-7)

संदल तन
चंचल चितवन
धीरे मुस्काना,
फिर आँख झुकाना
कर देता दीवाना।
**

उजड़े बाग
धूमिल है पराग
कागजी फूल,
घरों में सज रहे
पर्यावरण दहे।
**

अच्छा सोचना
लिखना व बोलना
अलग बात,
उस पर चलना
सब की न औकात।
**

शीत कठोर!
स्मृति-सलाकाओं पे
बुनूँ स्वेटर,
माँ के खोये नेह का
कुछ तो गर्मी वो दे।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-2019

Tuesday, November 19, 2019

क्षणिका (लोकतंत्र)

कुछ इंसान शेर
बाकी बकरियाँ,,,,
कुछ बाज
बाकी चिड़ियाँ,,
कुछ मगर, शार्क
बाकी मछलियाँ,,
और जब ये सब,
बकरी, चिड़िया, मछली,,
अपनी अपनी राग में
अलग अलग सुर में,
इन शेर, बाज, शार्क से,
जीने का हक और
सुरक्षा माँगने लगें,
तो समझ लें
यही लोकतंत्र है?

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-19

सेदोका (निर्झर)

5-7-7-5-7-7 वर्ण

(1)
स्वच्छ निर्झर
पर्वत से गिरता,
नदी बन बहता।
स्वार्थी मानव!
डाले कूड़ा कर्कट,
समस्या है विकट।
**

(2)
निर्झर देता
जीवन रूपी जल,
चीर पर्वत-तल।
सदा बहना
शीत ताप सहना,
है इसका गहना।
**

(3)
यह झरना
जो पर्वत से छूटा,
सीधा भू पर फूटा।
धवल वेणी,
नभ से धरा तक
सर्प सी लहराए।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-06-19

मनहरण घनाक्षरी "कतार की महिमा"


                               (1)
जनसंख्या भीड़ दिन्ही, भीड़ धक्का-मुक्की किन्ही,
धक्का-मुक्की से ही बनी, व्यवस्था कतार की।

राशन की हो दुकान, बैंकों का हो भुगतान,
चाहे लेना हो मकान, महिमा कतार की।

देना हो जो इम्तिहान, लेना हो या अनुदान,
दर्श भगवान का हो, है छटा कतार की।

दिखलाओ चाहे मर्ज, लेना हो या फिर कर्ज,
वोट देने नोट लेने, में प्रभा कतार की।।

                       (2)
माचे खलबली घोर, छाये चहुँ ओर शोर,
नियंत्रित भीड़ झट, करत कतार है।

हड़कम्प मचे जब, उथल-पुथल सब,
सीख अनुशासन की, देवत कतार है।

भीड़ सुशासित करे, अव्यवस्था झट हरे,
धैर्य की भी पहचान, लेवत कतार है।

मोतियों की माल जैसे, लोग जुड़ते हैं वैसे,
संगठन के बल से, बनत कतार है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
7-12-16

शिव महिमा

7 भगण (211) की आवृत्ति के बाद 2 गुरु


भष्म रमाय रहे तन में प्रभु, चन्द्र बसे सज माथ तिहारे।
वीर षडानन मूषक वाहन, बन्धुन के तुम तात दुलारे।
पावन गंग सजे सर ऊपर, भाल त्रिपुण्ड सदैव सँवारे।
शंकर नाथ अनाथन के तुम, दीनन के तुम एक सहारे।

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
25-07-17

Thursday, November 14, 2019

मुक्तक (राजनैतिक व्यंग)

एक राजनैतिक व्यंग मुक्तक

भारत के जब से वित्त मंत्री श्री जेटली।
तुगलकी फरमानों की नित खुलती पोटली।
मोदीजी इनसे बचके रहें आप तो जरा।
पकड़ा न दें ये चाय की वो फिर से केटली।।

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(चीन पर व्यंग)

सामान बेचते हो आँख भी दिखा रहे।
फूटी किस्मत में चीन धूल क्यों लिखा रहे।
ग्राहक भगवान का ही दूसरा है रूप।
व्यापार की ये रीत तुझे हम सिखा रहे।।

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(राहुल गांधी की हार पर व्यंग)

हार क्यों मेरी हुई यह सोच मैं हलकान हूँ,
कैसे चौकीदार अंकल जीता मैं अनजान हूँ,
लोग क्यों पप्पू मुझे कहते इसे समझा नहीं,
माँ बता दे तू मुझे क्या मैं अभी नादान हूँ।

(2122*3+212)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-05-19

मुक्तक (भाव-प्रेरणा)

नन्दन कानन में स्मृतियों के, खोया खोया मैं रहता हूँ,
अवचेतन के राग सुनाने, भावों में हर पल बहता हूँ,
रहता सदा प्रतीक्षा रत मैं, कैसे नई प्रेरणा जागे,
प्रेरित उससे हो भावों को, काव्य रूप में तब कहता हूँ।

बहे काव्य धारा मन में नित, गोते जिसमें खूब लगाऊँ,
दिव्य प्रेरणा का अभिनन्दन, भावों में बह करता जाऊँ,
केवट सा बन कर खेऊँ मैं,  भावों की बहती जल धारा,
भाव गीत बन के तब उभरे, केवट का मैं गान सुनाऊँ।

(32 मात्रिक छंद)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया।
14-04-18

मुक्तक (समसामयिक-1)

(विश्वकर्मा तिथि)

सत्रह सेप्टेंबर की तिथि है, देव विश्वकर्मा की न्यारी,
सृजन देव ये कहलाते हैं, हाथी जिनकी दिव्य सवारी,
अर्चन पूजा कर इनकी हम, सुध कुछ उनकी भी ले लेते,
जिन मजदूरों से इस भू पर, खिलती निर्माणों की क्यारी।

(32 मात्रिक छंद)
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(पर्यटक दिवस)

विश्व-पर्यटक दिन घोषित है, दिवस सताइस सेप्टेंबर,
घोषित किंतु नहीं कोई है, सार्वजनिक छुट्टी इस पर,
मार दोहरी के जैसा है, आज पर्यटन बिन छुट्टी,
आफिस में पैसे कटते हैं, बाहर के खर्चे दूभर।

(लावणी छंद)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-10-2016

देव घनाक्षरी (सिंहावलोकन के साथ)

8+8+8+9 अंत नगण

भड़क के ऑफिस से, आज फिर सैंया आए,
लगता पड़ी है डाँटें, बॉस की कड़क कड़क।

कड़क गरजते हैं, घर में ये बिजली से,
वहाँ का दिखाए गुस्सा, यहाँ पे फड़क फड़क।

फड़क के बोले शब्द, दिल भेदे तीर जैसे,
छलनी कलेजा हुआ, करता धड़क धड़क,

धड़क बढे है ज्यों ज्यों, आ रहा रुदन भारी,
सुलगे जिया में अब, आग ये भड़क भड़क।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-10-19

डमरू घनाक्षरी

8 8 8 8  --32 मात्रा (बिना मात्रा के)

मन यह नटखट, छण छण छटपट,
मनहर नटवर, कर रख सर पर।

कल न पड़त पल, तन-मन हलचल,
लगत सकल जग, अब बस जर-जर।

चरणन रस चख, दरश-तड़प रख,
तकत डगर हर, नयनन जल भर।

मन अब तरसत, अवयव मचलत,
नटवर रख पत, जनम सफल कर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-03-18

Sunday, November 10, 2019

रसाल छंद "यौवन"

यौवन जब तक द्वार, रूप रस गंध सुहावत।
बीतत दिन जब चार, नाँहि  मन को कछु भावत।।
वैभव यह अनमोल, व्यर्थ मत खर्च इसे कर।
वापस कबहु न आय, खो अगर दे इसको नर।।

यौवन सरित समान, वेगमय चंचल है अति।
धीर हृदय मँह धार, साध नर ले इसकी गति।।
हो कर इस पर चूर, जो बढ़त कार्य बिगारत।
जो पर चलत सधैर्य, वो सकल काज सँवारत।।

यौवन सब सुख सार, स्वाद तन का यह पावन।
ये नित रस परिपूर्ण, ज्यों बरसता मधु सावन।।
दे जब तक यह साथ, सृष्टि लगती मनभावन।
जर्जर जब तन होय, घोर तब दे झुलसावन।।

कांति चमक अरु वीर्य, पूर्ण जब देह रहे यह।
मानव कर तु उपाय, पार भव हो जिनसे यह।।
रे नर जनम सुधार,  यत्न करके जग से तर।
जीवन यह उपहार, व्यर्थ इसको मत तू कर।। 
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लक्षण छंद:-

"भानजभजुजल" वर्ण, और यति नौ दश पे रख।
पावन मधुर 'रसाल', छंद-रस रे नर तू चख।।

"भानजभजुजल" = भगण नगण जगण भगण जगण जगण लघु।
211 111 121 // 211 121 121 1
19 वर्ण, यति 9,10 वर्ण पर, दो दो या चारों चरण समतुकांत।

(इसका मात्राविन्यास रोला छंद से मिलता है। रसाल गणाश्रित छंद है अतः हर वर्ण की मात्रा नियत है जबकि रोला मात्रिक छंद है और ऐसा बन्धन नहीं है।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-10-17

जय गोविंदजी की टिप्पणी 5-4-19 काव्य सम्मेलन
लेखन चलत अमंद, भाव भर खूब लुभावत
पावन मधुर रसाल, छंद नित गान जु गावत
धन्य नमन कविराय, नेह भर छंद रचावत
ज्ञान जु अनुपम तोर, भान नित नव्य करावत।

रसना छंद "पथिक आह्वाहन"

डगर कहे चीख, जरा ठहर पथिक सुनो।
कठिन सभी मार्ग, सदैव कर मनन चुनो।
जगत भरा कंट, परन्तु तुम सँभल चलो।
तमस भरी रात, प्रदीप बन स्वयम जलो।।

दुखमय संसार, अभाव अधिकतर सहे।
सुखमय तो मात्र, कुछेक सबल जन रहे।।
रह उनके साथ, विनष्ट यह जग जिनका।
कुछ करके काज, बसा घर नवल उनका।।

तुम कर के पान, समस्त दुख विपद बढ़ो।
गिरि सम ये राह, बना सरल सुगम चढ़ो।।
तुम रख सौहार्द्र, सुकार्य अबल-हित करो।
इस जग में धीर, सुवीर बन कर उभरो।।

विकृत हुआ देश, हवा बहत अब पछुआ।
सब चकनाचूर, यहाँ ऋषि-अभिमत हुआ।।
तुम बन आदर्श, कदाचरण सकल हरो।
यह फिर से देश, समृद्ध पथिक तुम करो।।
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लक्षण छंद:-

"नयसननालाग", रखें सत अरु दश यतिं।
मधु 'रसना' छंद, रचें  ललित मृदुल गतिं।

"नयसननालाग" = नगण यगण सगण नगण नगण लघु गुरु।

( 111  122  1,12  111  111  12 )
17वर्ण, यति{7-10} वर्णों पर,4 चरण
दो-दो चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-01-19

रमेश छंद "नन्ही गौरैया"

फुदक रही हो तरुवर डाल।
सुन चिड़िया दे कह निज हाल।।
उड़ उड़ छानो हर घर रोज।
तुम करती क्या नित नव खोज।।

चितकबरी रंगत लघु काय।
गगन परी सी हृदय लुभाय।।
दरखत पे तो कबहु मुँडेर।
फुर फुर जाती करत न देर।।

मधुर सुना के तुम सब गीत।
वश कर लेती हर घर जीत।।
छत पर दाना जल रख लोग।
कर इसका ले रस उपभोग।।

चहक बजाती मधुरिम साज।
इस चिड़िया का सब पर राज।।
नटखट नन्ही मन बहलाय।
अब इसको ले जगत बचाय।।
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लक्षण छंद:-

"नयनज" का दे गण परिवेश।
रचहु सुछंदा मृदुल 'रमेश'।।

"नयनज" = [ नगण यगण नगण जगण]
( 111  122  111  121 )
12 वर्ण, 4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत।
**********************
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-01-19

सोरठा "कृष्ण महिमा"

नयन भरा है नीर, चखन श्याम के रूप को।
मन में नहिं है धीर, नयन विकल प्रभु दरस को।।

शरण तुम्हारी आज, आया हूँ घनश्याम मैं।
सभी बनाओ काज, तुम दीनन के नाथ हो।।

मन में नित ये आस, वृन्दावन में जा बसूँ।
रहूँ सदा मैं पास, फागुन में घनश्याम के।।

फूलों का श्रृंगार, माथे सजा गुलाल है।
तन मन जाऊँ वार, वृन्दावन के नाथ पर।।

पड़त नहीं है चैन, टपक रहे दृग बिंदु ये।
दिन कटते नहिं रैन, श्याम तुम्हारे दरस बिन।।

हे यसुमति के लाल, मन मोहन उर में बसो।
नित्य नवाऊँ भाल, भव बन्धन सारे हरो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-04-19

सोरठा छंद 'विधान'

सोरठा छंद

दोहा छंद की तरह सोरठा छंद भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसमें भी चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं। सोरठा में दोहा की तरह दो पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में २४ मात्राएँ होती हैं। सोरठा छंद और दोहा छंद के विधान में कोई अंतर नहीं है केवल चरण पलट जाते हैं। दोहा के सम चरण सोरठा में विषम बन जाते हैं और दोहा के विषम चरण सोरठा के सम। तुकांतता भी वही रहती है। यानी सोरठा छंद में विषम चरण में तुकांतता निभाई जाती है जबकि पंक्ति के अंत के सम चरण अतुकांत रहते हैं।

दोहा छंद और सोरठा छंद में मुख्य अंतर गति तथा यति में है। दोहा में 13-11 पर यति होती है जबकि सोरठा छंद में 11 - 13 पर यति होती है। यति में अंतर के कारण गति में भी भिन्नता रहती है।

मात्रा बाँट प्रति पंक्ति
8+2+1, 8+2+1+2

परहित कर विषपान, महादेव जग के बने।
सुर नर मुनि गा गान, चरण वंदना नित करें।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

Tuesday, November 5, 2019

ग़ज़ल (दुनिया है अलबेली)

बहरे मीर:- 2*6

दुनिया है अलबेली,
ये अनबूझ पहेली।

कड़वा जगत-करेला,
रस लो तो गुड़-भेली।

गले लगा या ठुकरा,
पर मत कर अठखेली।

किस्मत भोज बनाये,
या फिर गंगू तेली।

नेता आज छछूंदर,
सर पे मले चमेली।

आराजक बन छाये,
सत्ता जिनकी चेली।

'नमन' उठा सर जीओ,
दुनिया बना सहेली।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-08-19

ग़ज़ल (छेड़ाछाड़ी कर जब कोई)

बह्र:- 2222 2222 2222 222

छेड़ाछाड़ी कर जब कोई सोया शेर जगाए तो,
वह कैसे खामोश रहे जब दुश्मन आँख दिखाए तो।

चोट सदा उल्फ़त में खायी अब तो ये अंदेशा है,
उसने दिल में कभी न भरने वाले जख्म लगाए तो।

जनता ये आखिर कब तक चुप बैठेगी मज़बूरी में,
रोज हुक़ूमत झूठे वादों से इसको बहलाए तो।

अच्छे और बुरे दिन के बारे में सोचें, वक़्त कहाँ,
दिन भर की मिहनत भी जब दो रोटी तक न जुटाए तो।

उसके हुस्न की आग में जलते दिल को चैन की साँस मिले,
होश को खो के जोश में जब भी वह आगोश में आए तो।

हाय मुहब्बत की मजबूरी जोर नहीं इसके आगे, 
रूठ रूठ कोई जब हमसे बातें सब मनवाए तो।

दुनिया के नक्शे पर लाये जिसको जिस्म तोड़ अपना,
टीस 'नमन' दिल में उठती जब खंजर वही चुभाए तो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-10-17

ग़ज़ल (इंसान के खूँ की नहीं)

ग़ज़ल (इंसान के खूँ की नहीं)

बह्र:- 2212*4

इंसान के खूँ की नहीं प्यासी कभी इंसानियत,
पर खून बहता ही रहा, रोती रही इंसानियत।

चोले में हर इंसान के रहती छिपी इंसानियत।
पर चूर मद में नर भुला देते यही इंसानियत।

आतंक का ले कर सहारा जी रहें वे सोच लें,
लाचार दहशतगर्दी से हो कब डरी इंसानियत।

जो बन के जालिम जुल्म अबलों पर करें खूँखार बन,
वे लोग जिंदा दिख रहे पर मर गई इंसानियत।

बौछार करते गोलियों की भीड़ पर आतंकी जब,
उस भीड़ की दहशत में तब सिसकारती इंसानियत।

जग को मिटाने की कोई जितनी भी करलें कोशिशें,
दुनिया चलेगी यूँ ही जबतक है बची इंसानियत।

थक जाओगे आतंकियों तुम जुल्म कर कहता 'नमन',
आतंक के आगे न झुकना जानती इंसानियत।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-08-16

ग़ज़ल (हिन्दी हमारी जान है)

बह्र:- 2212   2212

हिन्दी  हमारी जान है,
ये देश की पहचान है।

है मात जिसकी संस्कृत,
माँ  शारदा का दान है।

साखी  कबीरा की यही,
केशव की न्यारी शान है।

तुलसी की रग रग में बसी,
रसखान की ये तान है।

ये सूर  के  वात्सल्य में,
मीरा का इसमें गान है।

सब छंद, रस, उपमा की ये
हिन्दी हमारी खान है।

उपयोग  में  लायें इसे,
अमृत का ये तो पान है।

ये  मातृभाषा विश्व में,
सच्चा हमारा मान है।

इसको करें हम नित 'नमन',
भारत की हिन्दी आन है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-09-2016