Wednesday, July 22, 2020

आरोही अवरोही पिरामिड (रिश्ते नाते)

(1-7 और 7-1)

(रिश्ते नाते)

ये
नये
पुराने
रिश्ते नाते
जो बन गये।
हिचकोले खाते
दिलों में सज गये।

कभी तो हँसाते हैं
कभी रुलाते ये।
अब तो बस
धीरे धीरे
जा रहे
खोते
ये।
*****
(भारत देश)

ये
देश
हमारा
दुनिया में
सबसे न्यारा।
प्राणों से भी ज्यादा
ये है हमको  प्यारा।

धर्म भेरी  गूंजाई
ज्ञान विश्व को दे।
दूत शांति का
सदा रहा
भारत
देश
ये।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-04-18

गुर्वा (कोरोना)

(1)

कोरोना बीमारी,
सांसों पर भारी,
दुनिया सारी हारी।
***

(2)

चीन देश का नया खिलौना,
कोविड रोग भयंकर,
खेल रहा जग आंसू भर।
***
(3)

विपद बड़ी है कोरोना,
मास्क धार धर धीर सहो,
धोते सारे हाथ रहो।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-20

चोका (किसान)

(चोका कविता) जापानी विधा:-
5-7, 5-7, 5-7 -------- +7 वर्ण प्रति पंक्ति

अरे किसान
तू कितना महान
क्या क्या गिनाएँ?
तू है गुणों की खान।
तेरी ये खेती
सुख सुविधा देती
भूख मिटाती
जीवन नौका खेती।
हल न रुके
बाधाओं से न झुके
पसीना बहा
सोते हो पर भूखे।
कर्ज में डूबा
तू रहता प्रसन्न
उपजा अन्न
देश करो संपन्न।
तुझे क्या मिला?
मेहनत का सिला
मौसम बैरी
पर न कोई गिला।
आह तू भरे
आत्महत्या भी करे
पर सब की
भूख भी तू ही हरे।
सत्ता लाचार
निर्मोही सरकार
पर तू निर्विकार।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-19


क्षणिका (शैतान का खिलौना)

पुलवामा घटना पर

शैतान का खिलौना
एक मानवी पुलिंदा,
जो मौत का दरिंदा
आग में जल मरने को
तैयार परिंदा,,,,
जल रहा अलाव
उसमें कुछ बेखबर
तप रहे आग।
वह उसी में आ धमका,
हुआ जोर का धमाका
हुआ जब सब शांत
न लोग, न आग
न वह मौत का नाग
बस बची,,,,
कुछ क्षत विक्षत लाश।
ठगा सा गाँव
लकीर पीटते ग्रामीण
और हँसता शैतान।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-02-19

Thursday, July 16, 2020

कोड कोड मँ (राजस्थानी गीत)

कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ रोटी पोणो सासुजी।
कोड कोड मँ ही सीख्या चून छाणनो सासुजी।।

दो भोजायाँरी म्हे लाडो नखराली म्हे बाई सा,
न्हेरा म्हारा मा काडै तो चिड़ी चुगावै ताई सा।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ जीमण जिमाणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या थाल सजाणो सासुजी।।

बिरध्यो दर्जी घर मँ बैठै छठ बारा ही म्हारै,
टाँको साँको बो ही जाणै म्हे इकै कोनी सारै।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ टाँको देणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या सुई पिरोणो सासुजी।।

नाल पिरोयोड़ी म्हारै है नौकर, ठाकर, बायाँ री,
धन भंडारा भर्या पङ्या है सगळी माया भायाँ री।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ धोणो माजणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या घर नै सजाणो सासुजी।।

भारी झाड़ो कदै न कियो नहीं लगायो पोंछो,
नाम बड़ो बाबुल रो म्हारो कियाँ करद्यां ओछो।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ घाबा धोणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या घाबा भैणों सासुजी।।

शौकीन सदा का म्हे हाँ जी मेवा मिश्री चुगबा का,
म्हाने तो केवल छाँटी गैणा, गाठी, पोशाकाँ।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ नाज छाँटणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या चुग्गो चुगणो सासुजी।।

लाड प्यार मँ बडी हुयोड़ी सिरकी थोड़ी सुज्योड़ी,
धणी थी म्हारी मर्जी की ठरका सै मँ जियोड़ी।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ सामी बोलणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या हँसी घालणो सासुजी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-07-16

मौक्तिका (रोती मानवता)

वाचिक भार:- 2*14
(पदांत 'मानवता', समांत 'ओती')

खून बहानेवालों को पड़ जाता खून दिखाई,
जो उनके हृदयों में थोड़ी भी होती मानवता।
पोंछे होते आँसू जीवन में कभी गरीबों के,
भीतर छिपी देख पाते अपनी रोती मानवता।

मोल न जाने लाशों के व्यापारी इस जीवन का,
आतँकवादी क्या आँके मोल हमारे क्रंदन का।
हाट लगाने से लाशों की सुन हत्यारे पहले,
देख ते'रे जिंदा शव को कैसे ढोती मानवता।

निबलों दुखियों ने तेरा क्या है' बिगाड़ा उन्मादी?
बसे घरों में उनके तूने जो ये आग लगा दी।
एक बार तो सुनलेता उनकी दारुण चित्कारें,
बच जाती शायद तेरी हस्ती खोती मानवता।

किस जनून में पागल है तू ओ सनकी मतवाले?
पीछे मुड़ के देख जरा कैसे तेरे घरवाले।
जरा तोल के देख सही क्या फर्क ते'रे मेरों में,
मूल्यांकन दोनों का करते क्यों सोती मानवता।

दिशाहीन केवल तू है, तू भी था हम सब जैसा,
गलत राह में पड़ कर करता घोर कृत्य तू ऐसा।
अपने अंदर जरा झांकता तुझको भी दिख जाती,
इंसानों की खून सनी धरती धोती मानवता।

बन बैठा आतंकवाद के साये में तू दानव,
भूल गया है पूरा ही अब तू कि कभी था मानव।
'नमन' शांति के उपवन को करने से ही तो दिखती,
मानव की खुशियों के बीजों को बोती मानवता।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-07-2016

Saturday, July 11, 2020

जनक छंद (जल-संकट)

सरिता दूषित हो रही,
व्यथा जीव की अनकही,
संकट की भारी घड़ी।
***

नीर-स्रोत कम हो रहे,
कैसे खेती ये सहे,
आज समस्या ये बड़ी।
***

तरसै सब प्राणी नमी,
पानी की भारी कमी,
मुँह बाये है अब खड़ी।
***

पर्यावरण उदास है,
वन का भारी ह्रास है,
भावी विपदा की झड़ी।
***

जल-संचय पर नीति नहिं,
इससे कुछ भी प्रीति नहिं,
सबको अपनी ही पड़ी।
***

चेते यदि हम अब नहीं,
ठौर हमें ना तब कहीं,
दुःखों की आगे कड़ी।
***

नहीं भरोसा अब करें,
जल-संरक्षण सब करें,
सरकारें सारी सड़ी।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-05-19

राम रहीम पर व्यंग (कुण्डलिया))

रख कर राम रहीम का, पावन ढोंगी नाम।
फैलाते पाखण्ड फिर, साधे अपना काम।
साधे अपना काम, धर्म की देत दुहाई।
बहका भोले भक्त, करें ये खूब कमाई।
'बासुदेव' विक्षुब्ध, काम सब इनके लख कर।
रोज करें ये ऐश, 'हनी' सी बिटिया रख कर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-08-17

Saturday, July 4, 2020

ग़ज़ल (खुशियों ने जब साथ निभाना छोड़ दिया)

बह्र:- 22  22  22  22  22  2

खुशियों ने जब साथ निभाना छोड़ दिया,
हमने भी अपने को तन्हा छोड़ दिया।

झेल गरीबी को हँस जीना सीखे तो,
गर्दिश ने भी साथ हमारा छोड़ दिया।

हमें पराई लगती ये दुनिया जैसे,
ग़ुरबत में अपनों ने पल्ला छोड़ दिया।

थोड़ी आज मुसीबत सर पे आयी तो,
अहबाबों ने घर का रस्ता छोड़ दिया।

जब से अपने में झाँका है, आईना
हमने लोगों को दिखलाना छोड़ दिया।

नेताओं ने अपना गेह बसाने में,
जनता का आँगन ही सूना छोड़ दिया।

धनवानों ने अपनी ख़ातिर देख 'नमन',
मुफ़लिस को तो आज बिलखता छोड़ दिया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-10-19

ग़ज़ल (देते हमें जो ज्ञान का भंडार)

बह्र:- 2212*4

देते हमें जो ज्ञान का भंडार वे गुरु हैं सभी,
दुविधाओं का सर से हरें जो भार वे गुरु हैं सभी।

हम आ के भवसागर में हैं असहाय बिन पतवार के,
जो मन की आँखें खोल कर दें पार वे गुरु हैं सभी।

ये सृष्टि क्या है, जन्म क्या है, प्रश्न सारे मौन हैं,
जो इन रहस्यों से करें निस्तार वे गुरु हैं सभी।

छंदों का सौष्ठव, काव्य के रस का न मन में भान है,
साहित्य के साधन का दें आधार वे गुरु हैं सभी।

चर या अचर जो सृष्टि में देते हैं शिक्षा कुछ न कुछ,
जिनसे हमारा ये खिला संसार वे गुरु हैं सभी।

गीता हो, रामायण हो या फिर दूसरे सद्ग्रन्थ हों,
जो सद्विचारों का करें संचार वे गुरु हैं सभी।

गुरुपूर्णिमा के दिन करें गुरु वृंद का वंदन, 'नमन',
संसार का जिनसे मिला है सार वे गुरु हैं सभी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-07-19

ग़ज़ल (माहोल ने बिगाड़ रखा आचरन)

बह्र:- 221  2121  1221  212

माहोल ने बिगाड़ रखा आचरन तमाम,
सारा जहाँ दिखा है रहा खोटपन तमाम।

मेरा कसूर मैंने महब्बत की बारबार,
उनसे सदा ही ग़म मिले पर आदतन तमाम।

नादान दिल न जान सका आपकी अदा,
घायल किया दिखा के इसे बाँकपन तमाम।

मतलब परस्ती का ही सियासत में दौर आज,
बिगड़ा हुआ है जिससे वतन का चलन तमाम।

कर के ख़राब रख दी व्यवस्था ही देश की,
काली कमाई खा के पलीं सालमन तमाम।

दहशत में जी रहा है हमारा ये मुल्क आज,
आतंक से खफ़ा है हमारा वतन तमाम।

जो देश हित में झोंक दे अपने को नौजवाँ,
अर्पण उन्हें मैं नित करूँ मेरे 'नमन' तमाम।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-16

Sunday, June 21, 2020

आरोही अवरोही पिरामिड (बात)

(1-7 और 7-1)

जो
तुम
आँखों से
कह  देते
तो मान जाते।
हम भी जुबाँ पे
कोई बात ना लाते।

अब ना हो सकेगी
वापस बात वो।
कह जाती है
खामोशियाँ
ना सके
जुबाँ
जो।
*****

जो
बात
नयन
कह देते
चुप रह के।
वहीं रहे लाख
शब्द बौने बन के।

जो कभी हुए नहीं
आँखों से घायल।
नैनों की भाषा
क्या  समझे
वे  रूखे
मन
के।।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-2-17

सेदोका (नेता)

जो लेता छीन
वो रईस कुलीन
है आज सत्तासीन,
बाकी हैं हीन
गिड़गिड़ाते दीन
अपराधों में लीन।
****

आज का नेता
अनचाहा चहेता
पाखण्डी अभिनेता,
बड़ाई खोता
स्वार्थ भरा पुलिंदा
जो आ, खा, भाग जाता।
****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-02-19

हाइकु (उलझी डोर)

उलझी डोर
यदि हाथ न छोर-
व्यर्थ है जोर।
**

लय से युक्ता
रस भाव सज्जिता-
वाणी कविता।
**

लुटा दे जान
सबका रख मान-
वो ही महान
**

समय खोटा
रिश्ते नातों का टोटा-
पैसा ही मोटा
**

शहरीपन
गायब उपवन-
ऊँचे भवन।
**

दीपक काया
सारी माटी की माया-
आलोक छाया।
**

हिन्दी की दुर्वा
अंग्रेजी जूते तले-
कुचली जाये।
**

शिखर चढ़ा
धन बल से बढ़ा
पतित नर।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-06-19

Saturday, June 13, 2020

मुक्तक (इंसान-1)

देखिए इंसान की कैसे शराफ़त मर गई,
लंतरानी रह गई लेकिन सदाकत मर गई,
बेनियाज़ी आदमी की बढ़ गई है इस क़दर,
पूर्वजों ने जो कमाई सब वो शुहरत मर गई।

आदमी के पेट की चित्कार हैं ये रोटियाँ,
ईश का सबसे बड़ा उपहार हैं ये रोटियाँ।
मुफ़लिसों के खून से भरतें जो ज़ाहिल पेट को,
ऐसे लोगों के लिये व्यापार हैं ये रोटियाँ।

(2122*3  212)
*********

मानवी-उद्यम से उपजा स्वेद श्रम जल-बिंदु हूँ मैं,
उसकी क्षमताओं से भाषित भाल सज्जित इंदु हूँ मैं,
व्यर्थ में मुझको बहाया या बहाया कुछ भला कर,
उसके सारे कर्म का प्रत्यक्ष द्रष्टा विंदु हूँ मैं।

विंदु= जानकार,ज्ञाता

(2122*4)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-01-19

मुक्तक (सैनिक, क्रांतिकारी)

सरहद पे जो लड़ते हैं, कुछ याद उन्हें कर लें,
जज़्बात जरा उनके, सीने में सभी भर लें,
जो जान लुटाने में, परवाह नहीं करते, 
हम ऐसे ही वीरों के, चरणों में झुका सर लें।

(221 1222)*2
*********

क्रांतिकारी वीरों से ही देश ये आज़ाद है,
नौनिहालों से वतन के बस यही फ़रियाद है,
भूल मत जाना उन्हें कुर्बानियाँ जिनने हैं दी,
नित 'नमन' उनको करें जिनसे वतन आबाद है।

जिन शहीदों की अमर गाथा घरों में आज है,
देश का उनके ही' कारण अब सुरक्षित ताज है,
इस वतन पे जिसने भी आँखें गड़ा के हैं रखी,
जान ले वो इस वतन का हर जवाँ जाँबाज है।

(2122*3   212)
*********

सीमा में घुस कर हम ने दुश्मन को ललकारा है,
खैर नहीं दहशतगर्दों पाकिस्तान हमारा है,
ढूँढ ढूँढ के मारेंगे छुपने का अब ठौर नहीं,
भारत की सेना का ये उत्तर बड़ा करारा है।

(2*14)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-01-17

रोज 'सुणै है कै' कै बाळो (राजस्थानी गीत)

(राजस्थानी गीत)

रोज 'सुणै है कै' कै बाळो जद बोल्यो 'सुण धापाँ'।
सुणकै मुळकी, हुयो हियो है तब सै बागाँ बागाँ।

आज खटिनै से बागाँ माँ ये कोयलड़ी कूकी,
पाणी सिंच्यो आज बेल माँ पड़ी जकी थी सूकी,
मुख सै म्हारो नाँव सुन्यो तो म्हे तो मरग्या लाजाँ,
रोज 'सुणै है कै' कै बाळो जद बोल्यो 'सुण धापाँ'।

मनरै मरुवै री खुशबू अंगाँ सै फूटण लागी,
सगळै तन में एक धूजणी सी इब छूटण लागी,
राग सुनावै मन री कुरजाँ म्हे तो चढ़ग्या नाजाँ,
रोज 'सुणै है कै' कै बाळो जद बोल्यो 'सुण धापाँ'।

नेह-मेह बरसावण खातिर मन-बादलियो माच्यो,
आज पिया रे रंग मँ सारो मेरो तन-मन राच्यो,
सुध-बुध भूल्या पिउजी रै म्हे लारै लारै भाजाँ,
रोज 'सुणै है कै' कै बाळो जद बोल्यो 'सुण धापाँ'।

धरती पर जद पाँव पड़ै तो लागै घूंघर बाजै,
साँसाँ चालै तो यूँ लागै जिंयाँ बादल गाजै,
दिवला चासाँ म्हे तो सोलह सिंगाराँ माँ साजाँ,
रोज 'सुणै है कै' कै बाळो जद बोल्यो 'सुण धापाँ'।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-04-18

Tuesday, June 9, 2020

आल्हा छंद "मूर्खो पर मुक्तक माला"

आल्हा छंद / वीर छंद

मूर्खों की पीठों पर चढ़कर, नित चालाक बनाते काम।
मूर्ख जुगाली करते रहते, मग्न भजे अपने ही राम।
सिर धुन धुन फिर भाग्य कोसते, दूजों को वे दे कर दोष।
नाम कमा लेते प्रवीण जो, रह जाते हैं मूर्ख अनाम।।

मूर्खों के वोटों पर करते, नेता सत्ता-सुख का पान।
इनके ही चंदे पर चलते, ढोंगी बाबा के संस्थान।
काव्य-मंच पर लफ्फाजों को, आसमान में टांगे मूर्ख।
बाजारों में इनके बल पर, चले छूट की खूब दुकान।।

मूर्ख बनाये असुर गणों को, रूप मोहनी धर भगवान।
कृष्ण हरे गोपिन-मन ब्रज में, छेड़ बाँसुरी की मधु तान।
पृथ्वी-जन को छलते आये, वेश बदल कर सुर पति इंद्र।
कथित बुद्धिजीवी पिछड़ों का, खा लेते हैं सब अनुदान

निपट अनाड़ी गर्दभ जैसे, मूर्ख रहे त्यों सोच-विहीन।
आस पास की खबर न रखते,अपनी धुन में रहते लीन।
धूर्त और चालाक आदमी, ऐसों का कर इस्तेमाल।
जग की हर सुविधा को भोगे, भूखे मरते मूरख दीन।।

आल्हा छंद / वीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-12-2018

32 मात्रिक छंद "काग दही पे"

इक दिन इक कौव्वे ने छत पर, जूठी करदी दधि की झारी।
नज़र पड़ी माँ की त्योंही वह, बेलन खींच उसे दे मारी।।
लालच का मारा वह कागा, साँस नहीं फिर से ले पाया।
यह लख करुणा मेरी फूटी, काग दही पे जान लुटाया।।

रहता एक पड़ौसी बनिया, कागद मल से जाता जाना।
पंक्ति सुनी उसने भी मेरी, समझा अपने ऊपर ताना।।
कान खुजाता हरदम रहता, रहे कागदों में चकराया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, कागद ही पे जान लुटाया।।

एक पड़ौसी छैले के भी, ये उद्गार पड़े कानों में।
बनिये की थुलथुल बेटी को, रोज रिझाता वो गानों में।।
तंज समझ अपने ऊपर वो, गरदन नीची कर सकुचाया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, का गदही पे जान लुटाया।।

देश काल अरु पात्र देख के, कई अर्थ निकले बातों के।
वाणी पर जो रखें न अंकुश, बनें पात्र वे नर लातों के।।
'नमन' शब्द के चमत्कार ने, मंचों पर सम्मान दिलाया,
शब्दों के कारण कइयों ने, जग में अपना नाम गमाया।।

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-04-18

Wednesday, June 3, 2020

ग़ज़ल (इश्क़ के चक्कर में)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

इश्क़ के चक्कर में ये कैसी फ़ज़ीहत हो गयी
क्या किया इज़हार बस रुस्वा मुहब्बत हो गयी।

उनके दिल में भी है चाहत, सोच हम थे खुश फ़हम,
पर बढ़े आगे, लगा शायद हिमाक़त हो गयी।

खोल के दिल रख दिया जब हमने उनके सामने,
उनकी नज़रों में हमारी ये बगावत हो गयी।

देखिये जिस ओर नकली ही मिलें चहरे लगे,
गुम कहीं अब इन मुखौटों में सदाक़त हो गयी।

हुस्न को पर्दे में रखने नारियाँ जलतीं जहाँ,
अब वहाँ इसकी नुमाइश ही तिज़ारत हो गयी।

बस छलावा रह गया जम्हूरियत के नाम पे,
खानदानी देश की सारी सियासत हो गयी।

नाज़नीनों की यही दिखती अदा अब तो 'नमन',
नाज़ बाकी रह गया गायब शराफ़त हो गयी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-19