Tuesday, August 18, 2020

मुक्तक (इश्क़, दिल -2)

लग रहा है यार मेरा हमसफ़र होने को है,
सद्र जो दिल का था अब तक सद्र-ए-घर होने को है,
उनके आने से सँवर जाएगा उजड़ा आशियाँ,
घर बदर जो हो रहा था घर बसर होने को है।

हाय ये तेरा तसव्वुर मुझको जीने भी न दे,
ज़ीस्त का जो फट गया चोगा वो सीने भी न दे,
अब तो मयखानों में भी ये छोड़ता पीछा नहीं,
ग़म गलत के वास्ते दो घूँट पीने भी न दे।

(2122*3  212)
*********

बढ़ने दो प्यार की बात को,
औ' मचलने दो जज्बात को,
हो न पाये सहर अब कभी,
रोक लो आज की रात को।

(212*3)
**********

ओ नादाँ क्या हुआ था
बता क्या माज़रा था
क्या गहरा था समन्दर
तुझे दिल डूबना था।।

(1222 122)
***********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-09-16

पुछल्लेदार मुक्तक 'आधुनिक फैशन'

फटी जींस अरु तंग टॉप है, कटे हुए सब बाल है।
ऊंची सैंडल में तन लचके, ज्यों पतली सी डाल है।
ठक ठक करती चाल देख के, धक धक जी का हाल है,
इस फैशन के कारण जग में, इतना मचा बवाल है।।

आधुनिकता का है बोलबाला,
दिमागों का दिवाला,
आफत का परकाला,
बासुदेव कहाँ लेकर ये जाये,
हम तो देख देख इसको अघाये।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-02-19

Wednesday, August 12, 2020

सार छंद "कुत्ता और इंसान"

सार छंद / ललितपद छंद

एक गली का कुत्ता यक दिन, कोठी में घुस आया।
इधर उधर भोजन को टोहा, कई देर भरमाया।।
तभी पिंजरा में विलायती, कुत्ता दिया दिखाई।
ज्यों देखा, उसके समीप आ, हमदर्दी जतलाई।।

हाय सखा क्या हालत कर दी, आदम के बच्चों ने।
बीच सलाखों दिया कैद कर, तुझको उन लुच्चों ने।।
स्वामिभक्त बन नर की सेवा, तन मन से हमने की।
अत्याचारों की सीमा पर, सदा पार इसने की।।

जिन पशुओं ने कदम कदम पर, इसका साथ दिया है।
पर इसने बेदर्दी दिखला, उनका कत्ल किया है।।
रंग बदलने में इसकी नहिं, जग में कोई सानी।
गिरगिट को भी करे पराजित, इसकी मधुरिम बानी।।

सत्ता पाकर जब ये मद में, गज-सम हो जाता है।
जग को भी अपने समक्ष तब, ये अति लघु पाता है।।
गेह बनाना इससे सीखें, दूजों की आहों पर।
अपने से अबलों को रौंदे, नित नव चालें रच कर।।

मृदु वचनों से मन ये जीते, पर मन में विष भारी।
ढोंग दिखावा कर के ही ये, बनता धर्माचारी।।
सर्वश्रेष्ठ संपूर्ण जगत में, भगवन इसे बनाये।
स्वार्थ लोभ में घिर परन्तु ये, जग में रुदन मचाये।।

मतलब के अंधे मानव ने, छोड़े कब अपने ही।
रच प्रपंच दिखलाता रहता, बस झूठे सपने ही।।
हम कुत्तों की फिर क्या गिनती, उसके आगे भाई।
जग में इस नर-पशु से बढ़कर, आज नहीं हरजाई।।

लिंक --> सार छंद / ललितपद छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-4-16

मनहरण घनाक्षरी "प्रीत"

प्रीत की है तेज धार, पैनी जैसे तलवार,
इसपे कदम आगे, सोच के बढ़ाइए।

मुख पे हँसी है छाई, दिल में जमी है काई,
प्रीत को निभाना है तो, मैल ये हटाइए।

छोटा-बड़ा ऊँच-नीच, चले नहीं प्रीत बीच,
पहले समस्त ऐसे, भेद को मिटाइए।

मान अपमान भूल, मन में रखें न शूल,
प्रीत में तो शीश को ही, हाथ में सजाइए।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-06-2017

दोहे (आस)

दोहा छंद

आस अधिक मत पालिए, सब के मत हैं भिन्न।
लगे निराशा हाथ तो, रहे सदा मन खिन्न।।

गीता के सिद्धांत को, मन में लेवें धार।
कर्म आपके हाथ में, फल पर नहिं अधिकार।।

आस तहाँ नहिं पालिए, लोग खींचते पैर।
मीनमेख निकले सदा, राख हृदय में वैर।।

नहीं अन्य से बांधिए, कभी आस की डोर।
सबकी अपनी सोच है, नहीं किसी पे जोर।।

मन के सारे कष्ट की, अधिक आस है मूल।
पूरित जब नहिं आस हो, रहे हृदय में शूल।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-11-16

Friday, August 7, 2020

ग़ज़ल (रोज ही काम को टाल के आलसी)

बह्र:- 212*4

रोज ही काम को टाल के आलसी,
घर में रह खाट को तोड़ते आलसी।

ज़िंदगी ज़रिया आराम फ़रमाने का,
इस के आगे न कुछ सोचते आलसी।

आसमां में बनाते किले रेत के,
व्यर्थ की सोच को पाल के आलसी।

लौट वापस कभी वक़्त आता न जो,
छोड़ कल पे गवाँ डालते आलसी।

आदमी के लिए कुछ असंभव नहीं,
पर न खुद पे भरोसा रखे आलसी।

बोझ खुद पे औ' दूजों पे बन के जिएं,
ज़िंदगी के भँवर में फँसे आलसी।

हाथ पे हाथ धर यूँ ही बैठे 'नमन',
भाग्य को दोष दे कोसते आलसी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-09-2016

ग़ज़ल (बुझी आग फिर से जलाने लगे हैं)

बह्र :- 122*4

बुझी आग फिर से जलाने लगे हैं,
वे फितरत पुरानी दिखाने लगे हैं।

गुलों से नवाजा सदा जिनको हम ने,
वे पत्थर से बदला चुकाने लगे हैं।

जबाब_उन की हिम्मत लगी जब से देने,
वे चूहों से हमको डराने लगे हैं।

दुनाली का बदला मिला तोप से जब,
तभी होश उनके ठिकाने लगे हैं।

मजा आ रहा देख कर उनको यारो,
जो खा मुँँह की अब तिलमिलाने लगे हैं।

मिली चोट ऐसी भुलाये न भूले,
हकी़क़त वे इसकी छिपाने लगे हैं।

'नमन' बाज़ आयें वे हरक़त से ओछी,
जो भारत पे आँखें गड़ाने लगे हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-20

ग़ज़ल (कोरोना का क्यों रोना है)

बह्र:- 22  22  22  22

कोरोना का क्यों रोना है,
हाथों को रहते धोना है।

दो गज की दूरी रख कर के,
सुख की नींद हमें सोना है।

बीमारी है या दुनिया पर,
ये चीनी जादू टोना है।

यह संकट भी टल जायेगा,
धैर्य हमें न जरा खोना है।

तन मन का संयम बस रखना,
चाहे फिर हो जो होना है।

कोरोना की बंजर भू पर,
हिम्मत की फसलें बोना है।

चाल नमन गहरी ये जिससे,
पीड़ित जग का हर कोना है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-07-20

Wednesday, July 22, 2020

आरोही अवरोही पिरामिड (रिश्ते नाते)

(1-7 और 7-1)

(रिश्ते नाते)

ये
नये
पुराने
रिश्ते नाते
जो बन गये।
हिचकोले खाते
दिलों में सज गये।

कभी तो हँसाते हैं
कभी रुलाते ये।
अब तो बस
धीरे धीरे
जा रहे
खोते
ये।
*****
(भारत देश)

ये
देश
हमारा
दुनिया में
सबसे न्यारा।
प्राणों से भी ज्यादा
ये है हमको  प्यारा।

धर्म भेरी  गूंजाई
ज्ञान विश्व को दे।
दूत शांति का
सदा रहा
भारत
देश
ये।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-04-18

गुर्वा (कोरोना)

(1)

कोरोना बीमारी,
सांसों पर भारी,
दुनिया सारी हारी।
***

(2)

चीन देश का नया खिलौना,
कोविड रोग भयंकर,
खेल रहा जग आंसू भर।
***
(3)

विपद बड़ी है कोरोना,
मास्क धार धर धीर सहो,
धोते सारे हाथ रहो।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-20

चोका (किसान)

(चोका कविता) जापानी विधा:-
5-7, 5-7, 5-7 -------- +7 वर्ण प्रति पंक्ति

अरे किसान
तू कितना महान
क्या क्या गिनाएँ?
तू है गुणों की खान।
तेरी ये खेती
सुख सुविधा देती
भूख मिटाती
जीवन नौका खेती।
हल न रुके
बाधाओं से न झुके
पसीना बहा
सोते हो पर भूखे।
कर्ज में डूबा
तू रहता प्रसन्न
उपजा अन्न
देश करो संपन्न।
तुझे क्या मिला?
मेहनत का सिला
मौसम बैरी
पर न कोई गिला।
आह तू भरे
आत्महत्या भी करे
पर सब की
भूख भी तू ही हरे।
सत्ता लाचार
निर्मोही सरकार
पर तू निर्विकार।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-19


क्षणिका (शैतान का खिलौना)

पुलवामा घटना पर

शैतान का खिलौना
एक मानवी पुलिंदा,
जो मौत का दरिंदा
आग में जल मरने को
तैयार परिंदा,,,,
जल रहा अलाव
उसमें कुछ बेखबर
तप रहे आग।
वह उसी में आ धमका,
हुआ जोर का धमाका
हुआ जब सब शांत
न लोग, न आग
न वह मौत का नाग
बस बची,,,,
कुछ क्षत विक्षत लाश।
ठगा सा गाँव
लकीर पीटते ग्रामीण
और हँसता शैतान।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-02-19

Thursday, July 16, 2020

कोड कोड मँ (राजस्थानी गीत)

कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ रोटी पोणो सासुजी।
कोड कोड मँ ही सीख्या चून छाणनो सासुजी।।

दो भोजायाँरी म्हे लाडो नखराली म्हे बाई सा,
न्हेरा म्हारा मा काडै तो चिड़ी चुगावै ताई सा।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ जीमण जिमाणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या थाल सजाणो सासुजी।।

बिरध्यो दर्जी घर मँ बैठै छठ बारा ही म्हारै,
टाँको साँको बो ही जाणै म्हे इकै कोनी सारै।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ टाँको देणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या सुई पिरोणो सासुजी।।

नाल पिरोयोड़ी म्हारै है नौकर, ठाकर, बायाँ री,
धन भंडारा भर्या पङ्या है सगळी माया भायाँ री।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ धोणो माजणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या घर नै सजाणो सासुजी।।

भारी झाड़ो कदै न कियो नहीं लगायो पोंछो,
नाम बड़ो बाबुल रो म्हारो कियाँ करद्यां ओछो।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ घाबा धोणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या घाबा भैणों सासुजी।।

शौकीन सदा का म्हे हाँ जी मेवा मिश्री चुगबा का,
म्हाने तो केवल छाँटी गैणा, गाठी, पोशाकाँ।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ नाज छाँटणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या चुग्गो चुगणो सासुजी।।

लाड प्यार मँ बडी हुयोड़ी सिरकी थोड़ी सुज्योड़ी,
धणी थी म्हारी मर्जी की ठरका सै मँ जियोड़ी।
कोनी सीख्या म्हे पीहर मँ सामी बोलणो सासुजी,
कोड कोड मँ ही सीख्या हँसी घालणो सासुजी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-07-16

मौक्तिका (रोती मानवता)

वाचिक भार:- 2*14
(पदांत 'मानवता', समांत 'ओती')

खून बहानेवालों को पड़ जाता खून दिखाई,
जो उनके हृदयों में थोड़ी भी होती मानवता।
पोंछे होते आँसू जीवन में कभी गरीबों के,
भीतर छिपी देख पाते अपनी रोती मानवता।

मोल न जाने लाशों के व्यापारी इस जीवन का,
आतँकवादी क्या आँके मोल हमारे क्रंदन का।
हाट लगाने से लाशों की सुन हत्यारे पहले,
देख ते'रे जिंदा शव को कैसे ढोती मानवता।

निबलों दुखियों ने तेरा क्या है' बिगाड़ा उन्मादी?
बसे घरों में उनके तूने जो ये आग लगा दी।
एक बार तो सुनलेता उनकी दारुण चित्कारें,
बच जाती शायद तेरी हस्ती खोती मानवता।

किस जनून में पागल है तू ओ सनकी मतवाले?
पीछे मुड़ के देख जरा कैसे तेरे घरवाले।
जरा तोल के देख सही क्या फर्क ते'रे मेरों में,
मूल्यांकन दोनों का करते क्यों सोती मानवता।

दिशाहीन केवल तू है, तू भी था हम सब जैसा,
गलत राह में पड़ कर करता घोर कृत्य तू ऐसा।
अपने अंदर जरा झांकता तुझको भी दिख जाती,
इंसानों की खून सनी धरती धोती मानवता।

बन बैठा आतंकवाद के साये में तू दानव,
भूल गया है पूरा ही अब तू कि कभी था मानव।
'नमन' शांति के उपवन को करने से ही तो दिखती,
मानव की खुशियों के बीजों को बोती मानवता।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-07-2016

Saturday, July 11, 2020

जनक छंद (जल-संकट)

सरिता दूषित हो रही,
व्यथा जीव की अनकही,
संकट की भारी घड़ी।
***

नीर-स्रोत कम हो रहे,
कैसे खेती ये सहे,
आज समस्या ये बड़ी।
***

तरसै सब प्राणी नमी,
पानी की भारी कमी,
मुँह बाये है अब खड़ी।
***

पर्यावरण उदास है,
वन का भारी ह्रास है,
भावी विपदा की झड़ी।
***

जल-संचय पर नीति नहिं,
इससे कुछ भी प्रीति नहिं,
सबको अपनी ही पड़ी।
***

चेते यदि हम अब नहीं,
ठौर हमें ना तब कहीं,
दुःखों की आगे कड़ी।
***

नहीं भरोसा अब करें,
जल-संरक्षण सब करें,
सरकारें सारी सड़ी।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-05-19

राम रहीम पर व्यंग (कुण्डलिया))

रख कर राम रहीम का, पावन ढोंगी नाम।
फैलाते पाखण्ड फिर, साधे अपना काम।
साधे अपना काम, धर्म की देत दुहाई।
बहका भोले भक्त, करें ये खूब कमाई।
'बासुदेव' विक्षुब्ध, काम सब इनके लख कर।
रोज करें ये ऐश, 'हनी' सी बिटिया रख कर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-08-17

Saturday, July 4, 2020

ग़ज़ल (खुशियों ने जब साथ निभाना छोड़ दिया)

बह्र:- 22  22  22  22  22  2

खुशियों ने जब साथ निभाना छोड़ दिया,
हमने भी अपने को तन्हा छोड़ दिया।

झेल गरीबी को हँस जीना सीखे तो,
गर्दिश ने भी साथ हमारा छोड़ दिया।

हमें पराई लगती ये दुनिया जैसे,
ग़ुरबत में अपनों ने पल्ला छोड़ दिया।

थोड़ी आज मुसीबत सर पे आयी तो,
अहबाबों ने घर का रस्ता छोड़ दिया।

जब से अपने में झाँका है, आईना
हमने लोगों को दिखलाना छोड़ दिया।

नेताओं ने अपना गेह बसाने में,
जनता का आँगन ही सूना छोड़ दिया।

धनवानों ने अपनी ख़ातिर देख 'नमन',
मुफ़लिस को तो आज बिलखता छोड़ दिया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-10-19

ग़ज़ल (देते हमें जो ज्ञान का भंडार)

बह्र:- 2212*4

देते हमें जो ज्ञान का भंडार वे गुरु हैं सभी,
दुविधाओं का सर से हरें जो भार वे गुरु हैं सभी।

हम आ के भवसागर में हैं असहाय बिन पतवार के,
जो मन की आँखें खोल कर दें पार वे गुरु हैं सभी।

ये सृष्टि क्या है, जन्म क्या है, प्रश्न सारे मौन हैं,
जो इन रहस्यों से करें निस्तार वे गुरु हैं सभी।

छंदों का सौष्ठव, काव्य के रस का न मन में भान है,
साहित्य के साधन का दें आधार वे गुरु हैं सभी।

चर या अचर जो सृष्टि में देते हैं शिक्षा कुछ न कुछ,
जिनसे हमारा ये खिला संसार वे गुरु हैं सभी।

गीता हो, रामायण हो या फिर दूसरे सद्ग्रन्थ हों,
जो सद्विचारों का करें संचार वे गुरु हैं सभी।

गुरुपूर्णिमा के दिन करें गुरु वृंद का वंदन, 'नमन',
संसार का जिनसे मिला है सार वे गुरु हैं सभी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-07-19

ग़ज़ल (माहोल ने बिगाड़ रखा आचरन)

बह्र:- 221  2121  1221  212

माहोल ने बिगाड़ रखा आचरन तमाम,
सारा जहाँ दिखा है रहा खोटपन तमाम।

मेरा कसूर मैंने महब्बत की बारबार,
उनसे सदा ही ग़म मिले पर आदतन तमाम।

नादान दिल न जान सका आपकी अदा,
घायल किया दिखा के इसे बाँकपन तमाम।

मतलब परस्ती का ही सियासत में दौर आज,
बिगड़ा हुआ है जिससे वतन का चलन तमाम।

कर के ख़राब रख दी व्यवस्था ही देश की,
काली कमाई खा के पलीं सालमन तमाम।

दहशत में जी रहा है हमारा ये मुल्क आज,
आतंक से खफ़ा है हमारा वतन तमाम।

जो देश हित में झोंक दे अपने को नौजवाँ,
अर्पण उन्हें मैं नित करूँ मेरे 'नमन' तमाम।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-16

Sunday, June 21, 2020

आरोही अवरोही पिरामिड (बात)

(1-7 और 7-1)

जो
तुम
आँखों से
कह  देते
तो मान जाते।
हम भी जुबाँ पे
कोई बात ना लाते।

अब ना हो सकेगी
वापस बात वो।
कह जाती है
खामोशियाँ
ना सके
जुबाँ
जो।
*****

जो
बात
नयन
कह देते
चुप रह के।
वहीं रहे लाख
शब्द बौने बन के।

जो कभी हुए नहीं
आँखों से घायल।
नैनों की भाषा
क्या  समझे
वे  रूखे
मन
के।।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-2-17