Saturday, December 26, 2020

मुक्तक (कांटे, फूल, मौसम)

हिफ़ाजत करने फूलों की रचे जैसे फ़ज़ा काँटे, 
खुशी के साथ वैसे ही ग़मों को भी ख़ुदा बाँटे,
अगर इंसान जीवन में खुशी के फूल चाहे नित,
ग़मों के कंटकों को भी वो जीवन में ज़रा छाँटे।

(1222×4)
*********

मौसम-ए-गुल ने फ़ज़ा को आज महकाया हुआ
है,
आमों पे भी क्या सुनहरा बौर ये आया हुआ है,
सुर्ख पहने पैरहन हैं टेसुओं की टहनियों ने,
खुशनुमा रंगों का मंजर हरतरफ छाया हुआ है।

(2122×4)
*********

सावन लगा तो हरतरफ मंजर सुहाना हो गया,
सब और हरियाली खिली लख दिल दिवाना हो गया,
उनके बिना इस खुशनुमा मौसम में सारी सून है,
महबूब अब तो आ भी जा काफ़ी सताना हो गया।

(2212×4)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-07-17

विविध मुक्तक -5

परंपराएँ निभा रहे हैं,
स्वयं में रम दिन बिता रहे हैं,
परंतु घर के कुछेक दुश्मन,
चमन ये प्यारा जला रहे हैं।

(12122*2)
*******

आपके पास हैं दोस्त ऐसे, कहें,
साथ जग छोड़ दे, संग वे ही रहें।
दोस्त ऐसे हों जो बाँट लें दर्द सब,
आपके संग दिल की जो पीड़ा सहें।

(212*4)
*******

यारो बिस्तर और नश्तर एक जैसे हो गये,
अब तो घर क्या और दफ्तर एक जैसे हो गये,
मायके जब से गयी है रूठ घरवाली मेरी,
तब से नौकर और शौहर एक जैसे हो गये।

(2122*3 212)
******

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-09-20

Friday, December 18, 2020

मौक्तिका (बेटियाँ हमारी)

बहर:- 22  121 22,  22  121 22
(पदांत का लोप, समांत 'आरी')

ममता की जो है मूरत, समता की जो है सूरत,
वरदान है धरा पर, ये बेटियाँ हमारी।।
माँ बाप को रिझाके, ससुराल को सजाये,
दो दो घरों को जोड़े, ये बेटियाँ दुलारी।।

जो त्याग और तप की, प्रतिमूर्ति बन के सोहे,
निस्वार्थ प्रेम रस से, हृदयों को सींच मोहे।
परिवार के, मनों के, रिश्ते बनाये रखने,
वात्सल्य और करुणा, की खोल दे पिटारी।।

ख़ुशियाँ सदा खिलाती, दुख दर्द की दवा बन,
मन को रखे प्रफुल्लित, ठंडक जो दे हवा बन।
घर एकता में बाँधे, रिश्तों के साथ चल कर,
ममतामयी है बेटी, ये छाप है तुम्हारी।।

साबित किया है तुमने, हर क्षेत्र में हो आगे,
सम्मान हो या साहस, बेटों से दूर भागे।
लेती छलांग नभ से, खंगालती हो सागर,
तुम पर्वतों पे चढ़ती, अब ना रही बिचारी।।

सन्तान के, पिया के, सब कष्ट खुश हो लेती,
कन्धा मिला के चलती, पग पग में साथ देती।
जो एकबार थामा, वो हाथ छोड़ती ना,
तुमको नमन है बेटी, हर घर को तुम निखारी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-08-2016

पिरामिड (तू, ईश)

तू
ईश
मैं जीव
तेरा अंश,
अरे निष्ठुर
पर सहूँ दंश,
तेरे गुणों से भ्रंश।11
**

मैं
लख
तुम्हारा
स्मित-हास्य
अति विस्मित;
भाव-आवेग में
हृदय  तरंगित।2।
**

ये
तेरा
शर्माना,
मुस्कुराना
करता मुझे
आश्चर्यचकित
रह रह पुलकित।3।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-19

गुर्वा (मन)

मन विशाल है एक सरोवर,
स्मृतियों के कंकर,
हल्की सी बस लहर उठे।
***

बसी हुई है मन में प्रीत,
गीत सजन के गूँजे,
हृदय लिया, अनजाना जीत
***

हृदय पटल पर चित्र उकेरे,
जिसने ज्योत जगायी,
मनमंदिर में मेरे।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-05-20

Tuesday, December 15, 2020

गीत (आज हिमालय भारत भू की)

लावणी छंद आधारित

भारत के उज्ज्वल मस्तक पर, मुकुट बना जो है शोभित,
जिसके पुण्य तेज से पूरा, भू मण्डल है आलोकित,
महादेव के पुण्य धाम को, आभा से वह सजा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।

तूफानों को अंक लगा कर, तड़ित उपल की वृष्टि सहे,
शीत ताप छाती पर झेले, बन मशाल अनवरत दहे, 
झेल झेल झंझावातों को, लगातार मुस्कुरा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।।

केतु सभ्यता का लहराये, गीत जगद्गुरु के गाये,
उन्नत भाल उठा कर अपना, महिम देश की दर्शाये,
प्रखर शिखर का दीपक न्यारा, जग के तम को मिटा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।

उत्तर की दीवार अटल है, त्राण शत्रु से यह देता,
स्वयं निरंतर गल करके भी, कोटिश जन की सुध लेता,
यह सर्वस्व लूटा कर अपना, आन देश की बचा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।

यह भंडार देव-संस्कृति का, है समाधि स्थल ऋषियों का,
सर्व रत्न की दिव्य खान ये, उद्गम पावन नदियों का,
अक्षय कोष देश का कैसे, रखे सुरक्षित बता रहा।
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।

दीप-शिखा इस गिरि पुंगव की, एक वस्तु की मांग करे,
वीर पतंगों को ललकारे, जो जल इसके लिये मरे,
बलिदानों से वीरों के ही, मस्तक इसका उठा रहा।
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।

इसकी रक्षा में उठना क्या, हम सब का है धर्म नहीं,
शीश उठाये इसका रखना, क्या हम सब का कर्म नहीं
हमरे तन के बहे स्वेद से, दीपक यह जगमगा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-05-2016

Thursday, December 10, 2020

लावणी छन्द "विष कन्या"

कई कौंधते प्रश्न अचानक, चर्चा से विषकन्या की।
जहर उगलती नागिन बनती, कैसे मूरत ममता की।।
गहराई से इस पर सोचें, समाधान हम सब पाते।
कलुषित इतिहासों के पन्ने, स्वयंमेव ही खुल जाते।।

पहले के राजा इस विध से, नाश शत्रु का करवाते।
नारी को हथियार बना कर, शत्रु देश में भिजवाते।।
जहर बुझी वो नाग-सुंदरी, रूप-जाल से घात करे।
अरि प्रदेश के प्रमुख जनों के, तड़पा तड़पा प्राण हरे।।

पहले कुछ मासूम अभागी, कलियाँ छाँटी थी जाती।
खिलने से पहले ही उनकी, जीवन बगिया मुरझाती।।
घोर बिच्छुओं नागों से फिर, उनको डसवाया जाता।
कोमल तन प्रतिरोधक विष का, इससे बनवाया जाता।।

पुरुषों को वश में करने के, दाव सभी पा वह निखरे।
जग समक्ष तब अल्हड़ कन्या, विषकन्या बन कर उभरे।।
छीन लिया जिस नर समाज ने, उससे बचपन मदमाता।
भला रखे कैसे वह उससे, नेह भरा कोई नाता।।

पुरुषों के प्रति घोर घृणा के, भाव लिये तरुणी गुड़िया।
नागिन सी फुफकार मारती, जहर भरी अब थी पुड़िया।।
जिससे भी संसर्ग करे वह, नख से नोचे या काटे।
जहर प्रवाहित कर वह उस में, प्राण कालिका बन चाटे।।

नये समय ने नार-शक्ति में, ढूंढा नव उपयोगों को।
वश में करती मंत्री, संत्री, अरु सरकारी लोगों को।।
दौलत से जो काम न सुधरे, वह सुलझा दे झट नारी।
कोटा, परमिट सब निकलाये, गुप्तचरी करले भारी।।

वर्तमान की ये विषकन्या, शत्रु देश को भी फाँसे।
अबला सबला बन कर देती,  प्रेम जाल के ये झाँसे।।
तन के लोभी हर सेना में, कुछ कुछ तो जाते पाये।
फिर ऐसों से साँठ गाँठ कर, राज देश के निकलाये।।

नारी की सुंदरता का नित, पुरुषों ने व्यापार किया।
क्षुद्र स्वार्थ में खो कर उस पर, केवल अत्याचार किया।।
विष में बुझी कटारी बनती, शदियों से नारी आयी।
हर युग में पासों सी लुढ़की, नर की चौपड़ पर पायी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-08-2016

सरसी छंद "बच्चों का आजादी पर्व"



सरसी छंद / कबीर छंद

आजादी का पर्व सुहाना, पन्द्रह आज अगस्त।
बस्ती के निर्धन कुछ बच्चे, देखो कैसे मस्त।।
टोली इनकी निकल पड़ी है, मन में लिये उमंग।
कुछ करने की धुन इनमें है, लगते पूर्ण मलंग।।

चौराहे पर सब आ धमके, घेरा लिया बनाय।
भारत की जय कार करे तब, वे नभ को गूँजाय।।
बना तिरंगा कागज का ये, लाठी में लटकाय।
फूलों की रंगोली से फिर, उसको खूब सजाय।।

झंडा फहरा कर तब उसमें, तन के करें सलाम।
खेल खेल में किया इन्होंने, देश-भक्ति का काम।।
हो उमंग करने की जब कुछ, आड़े नहीं अभाव।
साधन सारे जुट जाते हैं, मन में जब हो चाव।।

बच्चों का उत्साह निराला, आजादी का रंग।
ऊँच नीच के भाव भुला कर, पर्व मनाएँ संग।।
बच्चों में जब ऐसी धुन हो, होता देश निहाल।
लाज तिरंगे की जब रहती, ऊँचा होता भाल।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-08-17

सार छंद "भारत गौरव"

सार छंद / ललितपद छंद

जय भारत जय पावनि गंगे, जय गिरिराज हिमालय;
सकल विश्व के नभ में गूँजे, तेरी पावन जय जय।
तूने अपनी ज्ञान रश्मि से, जग का तिमिर हटाया;
अपनी धर्म भेरी के स्वर से, जन मानस गूँजाया।।

उत्तर में नगराज हिमालय, तेरा मुकुट सजाए;
दक्षिण में पावन रत्नाकर , तेरे चरण धुलाए।
खेतों की हरियाली तुझको, हरित वस्त्र पहनाए;
तेरे उपवन बागों की छवि, जन जन को हर्षाए।।

गंगा यमुना कावेरी की, शोभा बड़ी निराली;
अपनी जलधारा से डाले, खेतों में हरियाली।
तेरी प्यारी दिव्य भूमि है, अनुपम वैभवशाली;
कहीं महीधर कहीं नदी है, कहीं रेत सोनाली।।

महापुरुष अगणित जन्मे थे, इस पावन वसुधा पर;
धीर वीर शरणागतवत्सल, सब थे पर दुख कातर।
दानशीलता न्यायकुशलता, उन सब की थी थाती;
उनकी कृतियों की गुण गाथा, थकै न ये भू गाती।।

तेरी पुण्य धरा पर जन्मे, राम कृष्ण अवतारी;
पा कर के उन रत्नों को थी, धन्य हुई भू सारी।।
आतताइयों का वध करके, मुक्त मही की जिनने;
ऋषि मुनियों के सब कष्टों को, दूर किया था उनने।।

तेरे ऋषि मुनियों ने जग को, अनुपम योग दिया था;
सतत साधना से उन सब ने, जग-कल्याण किया था।
बुद्ध अशोक समान धर्मपति, जन्म लिये इस भू पर;
धर्म-ध्वजा के थे वे वाहक, मानवता के सहचर।।

वीर शिवा राणा प्रताप से, तलवारों के चालक;
मिटे जन्म भू पर हँस कर वे, मातृ धरा के पालक।
भगत सिंह गांधी सुभाष सम, स्वतन्त्रता के रक्षक;
देश स्वतंत्र किये बन कर वे, अंग्रेजों के भक्षक।।

सदियों का संघर्ष फलित जो, इसे सँभालें मिल हम;
ऊँच-नीच के जात-पाँत के, दूर करें सारे तम।
तेरे यश की गाथा गाए, गंगा से कावेरी;
बारंबार नमन हे जगगुरु, पुण्य धरा को तेरी।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-04-2016

Friday, December 4, 2020

एक हास्य ग़ज़ल (मूली में है झन्नाट जो)

बह्र:- 221 1221 1221 122

मूली में है झन्नाट जो, आलू में नहीं है,
इमली सी खटाई भी तो निंबू में नहीं है।

किशमिश में लचक सी जो है काजू में नहीं है,
जो लुत्फ़ है भींडी में वो कद्दू में नहीं है।

बेडोल दिखे, गोल सदा, बाँकी की महिमा,
जो नाज़ है बरफी में वो लड्डू में नहीं है।

जितनी भी करूँ तुलना मैं घरवाली ही ऊँची,
बिल्ली में जो शोखी़ है वो भालू में नहीं है।

झाड़ू को लगाती हुईं पत्नी जी न समझें,
पोंछे सी सफाई मेरी, झाड़ू में नहीं है।

कुर्सी का रहा ठाठ सदा, औरों की मिहनत,
अफसर में भला क्या है जो बाबू में नहीं है।

चलती है जबाँ से ये तो हाथों से वो चलता,
जो बात छुरी में है वो चाकू में नहीं है।

कल न्यूज सुना, एक धराशायी हुआ पुल,
सीमेंट की मज़बूती तो बालू में नहीं है।

इलजा़म लगाते हैं जो शेरों पे सुनें वे,
जो गूंज दहाड़ों में वो ढेंचू में नहीं है।

कुर्सी से चिपक बोझ 'नमन' जो भी वतन पर,
क्यों नेता में नाम+उस का! निखट्टू में नहीं है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-08-20

ग़ज़ल (साथ सजन तो चाँद सुहाना)

बह्र:- 22  22  22  22  22  2

साथ सजन तो चाँद सुहाना लगता है,
दूर पिया तो फिर वो जलता लगता है।

मन में जब ख़ुशहाली रहती है छायी,
हर मौसम ही तब मस्ताना लगता है।

बच्चों की किलकारी घर में जब गूँजे,
गुलशन सा घर का हर कोना लगता है।

प्रीतम प्यारा जब से ही परदेश गया,
बेगाना मुझको हर अपना लगता है।

झूठे तेरे फिर से ही वे वादे सुन,
तेरा चहरा पहचाना सा लगता है।

प्रेम दया के भाव सृष्टि पर यदि रख लो,
यह जग भगवत मय तब सारा लगता है।

पात्र 'नमन' का वो बनता है नर जग में,
हर नर जिसको अपने जैसा लगता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-05-19

ग़ज़ल (यादों के जो अनमोल क्षण)

बह्र :- 2212   2212   2212   2212

यादों के जो अनमोल क्षण मन में बसा हरदम रखें,
राहत मिले जिस याद से उर से लगा हरदम रखें।

जब प्रीत की हम डोर में इक साथ जीवन में बँधे,
हम उन सुनहरे ख्वाबों को दिल में जगा हरदम रखें।

छाती हमारी शान से चौड़ी हुई थी जब कभी,
उस वक्त की रंगीन यादों को बचा हरदम रखें।

जब कुछ अलग हमने किया सबने बिठाया आँख पे,
उन वाहवाही के पलों को हम सजा हरदम रखें।

जो आग दुश्मन ने लगाई देश में आतंक की,
उस आग के शोलों को हम दिल में दबा हरदम रखें।

जो भूख से बिलखें सदा है पास जिनके कुछ नहीं,
उनके लिये कुछ कर सकें ऐसी दया हरदम रखें।

जब भी 'नमन' दिल हो उठे बेजा़र ग़म में डूब के,
बीते पलों की याद का दिल में मजा़ हरदम रखें।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-11-2016

Sunday, November 22, 2020

गुर्वा (प्रकृति-1)

गिरि से निर्झर पिघला,
सर्प रहे उड़ इठला,
गरजें मेघ लरज थर थर।
***

मेघ घिरे नभ में हर ओर,
हरित धरा, नाचे मोर,
सावन शुष्क! दूर चितचोर।
***

भोर पहन मौक्तिक माला,
दुर्वा पर बैठी,
हाथ साफ रवि कर डाला।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-20

विविध मुक्तक -4

ओ मेरे सब्र तू मुझ से न ख़फ़ा हो जाना,
छोड़ दे साथ जमाना तो मेरा हो जाना,
दर्द-ओ-ग़म भूल रखूं तुझको बसाये दिल में,
फ़ख्र जिस पे मैं करूं वो तू अना हो जाना।

(2122 1122 1122 22)

01-08-2020
*******

चाहे दुश्मन रहा जमाना, रीत सनातन कभी न छोड़ी,
जननी जन्म भूमि से हमने, अपनी प्रीत सदा ही जोड़ी,
आस्तीन के सांपों को भी, हमने दूध पिला पाला है,
क्या करते फ़ितरत ही ऐसी, अपनी बात अलग है थोड़ी।

(समान सवैया)

3-08-20
********

जिता कर थोप लो सर पे हमारे हुक्मरानों को,
करेंगे मन की वे सारी रखो तुम चुप जुबानों को,
किया प्रतिरोध कुछ भी गर गिरा देंगे वे पल भर में,
लगा कर उम्र सारी तुम बनाये जिन ठिकानों को।

(1222*4)
**********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-09-20

मुक्तक (इंसान-2)

ढ़ोते जो हम बोझ चार पे, तुम वो दो पर ढ़ोते हो,
तरह हमारी तुम भी खाते, पीते, जगते, सोते हो,
पर उसने वो समझ तुम्हें दी, जिससे तुम इंसान बने,
वरना हम तुम में क्या अंतर, जो गरूर में खोते हो।

(लावणी छंद आधारित)
*********

बल बुद्धि शौर्य के स्वामी तुम, मानव जग में कहलाते हो,
तुम बात अहिंसा की करते, तुम ढोंग रचा बहलाते हो,
तुम नदी खून की बहा बहा, नित प्राण हरो हम जीवों के,
हम एक ईश की सन्तानें, फिर क्यों तुम यूँ दहलातेहो।

(मत्त सवैया)
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जुता रहा जीवन-कोल्हू में, एक बैल सा भरमाया,
आँखों पर पट्टी को बाँधे, लगातार चक्कर खाया,
तेरी खातिर मालिक ने तो, रची सुहानी दुनिया थी,
किंतु प्रपंचों में ही उलझा, उसको भोग न तू पाया। 

(लावणी छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-19

Sunday, November 15, 2020

जनहरण घनाक्षरी

मधुवन महकत, शुक पिक चहकत,
जन-मन हरषत,  मधु रस बरसे।

कलि कलि सुरभित, गलि गलि मुखरित,
उपवन पुलकित, कण-कण सरसे।

तृषित हृदय यह, प्रभु-छवि बिन दह,
दरश-तड़प सह, निशि दिन तरसे।

यमुन-पुलिन पर, चित रख नटवर,
'नमन' नवत-सर, ब्रज-रज परसे।।

*****
जनहरण विधान:- (कुल वर्ण संख्या = 31 । इसमें चरण के प्रथम 30 वर्ण लघु रहते हैं तथा केवल चरणान्त दीर्घ रहता है। 16, 15 पर यति अनिवार्य। 8,8,8,7 के क्रम में लिखें तो और अच्छा।)
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-20

कर्मठता (कुण्डलिया)

कर्मठता नहिँ त्यागिए, करें सदा कुछ काम।
कर्मवीर नर पे टिका, देश धरा का नाम।
देश धरा का नाम, करें वो कुल को रौशन।
कर्म कभी नहिँ त्याग, यही गीता का दर्शन।
कहे 'बासु' समझाय, करो मत कभी न शठता।
सौ झंझट भी आय, नहीं छोड़ो कर्मठता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-12-16

दोहा गीतिका (सम्मान)

काफ़िया- आ, रदीफ़-सम्मान

देश वासियों नित रखो, निज भाषा सम्मान।
स्वयं मान दोगे तभी, जग देगा सम्मान।।

सब से हमको यश मिले, मन में तो यह चाह।
पर सीखा नहिं और को, कुछ देना सम्मान।।

गुणवत्ता अरु पात्र का, जरा न सोच विचार।
खुले आम बाज़ार में, अब बिकता सम्मान।।

देख देख फटता जिया, काव्य मंच का हाल।
सिंह मध्य श्रृंगाल का, खुल होता सम्मान।।

मुँह की खाते लोग जो, मिथ्या गाल बजाय।
औरन की सुनते न बस, निज-गाथा सम्मान।।

दीन दुखी के काम आ, नहीं कमाया नाम।
उनका ही आशीष तो, है सच्चा सम्मान।। 

'नमन' हृदय क्यों रो रहा, लख जग की यह चाल।
स्वारथ का व्यापार सब, मतलब का सम्मान।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-12-2018

Wednesday, November 11, 2020

32 मात्रिक छंद "हम और तुम"

बम बम के हम उद्घोषों से, धरती गगन नाद से भरते।
बोल 'बोल बम' के पावन सुर, आह्वाहन भोले का करते।।
पर तुम हृदयहीन बन कर के, मानवता को रोज लजाते।
बम के घृणित धमाके कर के, लोगों का नित रक्त बहाते।।

हर हर के हम नारे गूँजा, विश्व शांति को प्रश्रय देते।
साथ चलें हम मानवता के, दुखियों की ना आहें लेते।।
निरपराध का रोज बहाते, पर तुम लहू छोड़ के लज्जा।
तुम पिशाच को केवल भाते, मानव-रुधिर, मांस अरु मज्जा।।

अस्त्र हमारा सहनशीलता, संबल सब से भाईचारा।
परंपरा में दानशीलता, भावों में हम पर दुख हारा।।
तुम संकीर्ण मानसिकता रख, करते बात क्रांति की कैसी।
भाई जैसे हो कर भी तुम, रखते रीत दुश्मनों जैसी।।

डर डर के आतंकवाद में, जीना हमने तुमसे सीखा।
हँसे सदा हम तो मर मर के, तुमसे जब जब ये दिल चीखा।।
तुम हो रुला रुला कर हमको, कभी खुदा तक से ना डरते।
सद्बुद्धि पा बदल सको तुम, पर हम यही प्रार्थना करते।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
1-05-2016

पीयूष वर्ष छंद "वर्षा वर्णन"

पीयूष वर्ष छंद / आनंद वर्धक छंद

बिजलियों की गूंज, मेघों की घटा।
हो रही बरसात, सावन की छटा।।
ढोलकी हर ओर, रिमझिम की बजी।
हो हरित ये भूमि, नव वधु सी सजी।।

नृत्य दिखला मोर, मन को मोहते।
जुगनुओं के झूंड, जगमग सोहते।।
रख पपीहे आस, नभ को तक रहे।
स्वाति की जलधार, कब नभ से बहे।।

नार पिय से दूर, रह कर जो जिए।
अग्नि सम ये वृष्टि, उसके है लिए।।
पीड़ मन की व्यक्त, मेघों से करे।
क्यों हृदय में ज्वाल, वारिद तू भरे।।

छा गया उत्साह, कृषकों में नया।
दूर सब अवसाद, मन का हो गया।।
नारियों के झूंड, कजरी गा रहे,
कर रहे हैं नृत्य, हाथों को गहे।।
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पीयूष वर्ष छंद विधान -

पीयूष वर्ष छंद चार पदों का 19 मात्रा का सम पद मात्रिक छंद है। प्रत्येक पद 10, 9 मात्रा के दो चरणों में विभक्त रहता है। दो दो पद  सम तुकांत रहने आवश्यक हैं।

पद की मात्रा बाँट 2122  21, 22  21S होती है। गुरु वर्ण को 2 लघु करने की छूट है। पद का अंत लघु दीर्घ (1S) वर्ण से होना आवश्यक है।

आनंद वर्धक छंद विधान - पीयूष वर्ष छंद में जब यति की बाध्यता न हो तो यही 'आनंद वर्धक छंद' कहलाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-08-20