Tuesday, April 23, 2024

सुलक्षण छंद "मन की बात"

कहनी आज मन की बात।
होंगे व्यक्त सब आघात।।
वाणी रुद्ध दृग में नीर।
आयी पीर अंतस चीर।।

आर्यावर्त भारत देश।
अति प्राचीन इसका वेश।।
वैभवपूर्ण क्षिति, जल, अन्न।
रहा सदैव यह संपन्न।।

धीर सुवीर यहाँ नरेश।
सदा सुशांति का परिवेश।।
आश्रय नित्य पाये सर्व।
त्यज कर भेद रख कर गर्व।।

लेकिन आज हम बल हीन।
सत्तारूढ़ फिर भी दीन।।
खो वह ओज पढे कुपाठ।
हुआ विलीन वह सब ठाठ।।

रीति रिवाज सारे भग्न।
त्याग स्वधर्म कायर मग्न।।
ओछे स्वार्थ का है जोर।
शासन व्यर्थ करता शोर।।

हैं अलगाव के सुर तेज।
सबको राष्ट्र से परहेज।।
मिलजुल देश करे विचार।
हों अब शीघ्र 'नमन' सुधार।।
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सुलक्षण छंद विधान -

सुलक्षण छंद 14 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है। यह मानव जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 14 मात्राओं की मात्रा बाँट चौकल + ताल (21) चौकल + ताल (21) है। चौकल में 22, 211, 112, 1111 आ सकते हैं। इसके अतिरिक्त चौकल में 3+1 भी रख सकते हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
03-06-22

Sunday, April 14, 2024

 "जागो देश के जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों,
आज देश पूकार रहा है।
त्यज दो इस चिर निंद्रा को,
हिमालय पूकार रहा है।।1।।

छोड़ आलस्य का आँचल,
दुश्मन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर,
गर्जन करते केहरि बन।।2।।

मंडरा रहे हैं संकट के घन,
इस देश के गगन में।
शोषणता व्याप्त हुयी है,
जग के जन के मन में।।3।।

घिरा हुवा है आज देश,
चहुँ दिशि से अरि सेना से।
शोषण नीति टपक रही,
पर देशों के नैना से।।4।।

भूल गयी है उन्नति का पथ,
इधर इसी की सन्तानें।
भटक गयी है सच्चे पथ से,
स्वार्थ के पहने बाने।।5।।

दीवारों में है छेद कर रही,
वो अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा,
ठोकर खाती दर दर की।।6।।

चला जा रहा आज देश,
गर्त में अवनति के गहरे।
आज इसी के विस्तृत नभ में,
पतन पताका है फहरे।।7।।

त्राहि त्राहि है मची हुयी,
देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है,
आज देश की रोने में।।8।।

अब तो जाग उठो जवानों,
जी में साहस ले कर।
काली बन अरि के सीने का,
दिखलाओ शोणित पी कर।।9।।

जग को अब तुम दिखलादो,
वीर भगत सिंघ बन कर।
वीरों की यह पावन भूमि,
वीर यहां के सहचर।।10।।

गांधी सुभाष बन कर के तुम,
भारत का मान बढ़ाओ।
जाति धर्म देश सेवा हित,
प्राणों की बलि चढ़ाओ।।11।।

मोहन बन कर के तुम जन को,
गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को तुम,
सच्ची राह दिखाओ।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Wednesday, April 10, 2024

सरस छंद "ममतामयी माँ"

माँ तुम्हारा, छत्र सर पर।
छाँव देता, दिव्य तरुवर।।
नेह की तुम, खान निरुपम।
प्रेम की हो, रश्मि चमचम।।

जीव का कर, तुम अवतरण।
शिशु का करो, पोषण भरण।।
माँ सृष्टि को, कर प्रस्फुटित।
भाव में बह, होती मुदित।।

मातृ आँचल, शीतल सुखद।
दूर करता, ये हर विपद।।
माँ की कांति, रवि सम प्रखर।
प्रीत की यह, बहती लहर।।

वात्सल्य की, प्रतिमूर्ति तुम।
भाल पर ज्यों, दिव्य कुमकुम।।
भगवान हैं, माँ के चरण।
इन बिन कहाँ, फिर है शरण।।

माँ दुलारी, ज्यों विशद नभ।
जो बनाए, हर पथ सुलभ ।।
गोद में हैं, सब तीर्थ स्थल।
तार दें जो, जीवन सकल।।

माँ तुम्हारी, ममता परम।
कोई नहीं, इसका चरम।।
पीड़ मेरी, करती शमन।
प्रति दिन करूँ, तुमको 'नमन'।।
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सरस छंद -

सरस छंद 14 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत नगण (111) से होना आवश्यक है। इसमें 7 - 7 मात्राओं पर यति अनिवार्य है। यह मानव जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 14 मात्राओं की मात्रा बाँट 2 5, 2 5 है। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर पद का अंत सदैव तीन लघु (111) से होना चाहिए।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-22

Thursday, April 4, 2024

"अनाथ"

यह कौन लाल है जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में,
छिपा हुआ है कौन इन विकृत पत्रों में।
कौन बिखेर रहा है दीन दशा मुख से,
बिता रहा है कौन ऐसा जीवन दुःख से।।1।।

यह अनाथ बालक है छिपा हुआ चिथड़ा में,
आनन लुप्त रखा अपना गहरी पीड़ा में।
अपना मित्र बनाया दारुण दुःख को जिसने,
ठान लिया उसके संग रहना इसने।।2।।

फटे हुए चिथड़ों में लिपटा यह मोती,
लख जग की उपेक्षा आँखें प्रतिदिन रोती।
कर में अवस्थित है टूटी एक कटोरी,
पर हा दैव! वह भी है बिल्कुल कोरी।।3।।

है अनाथ जग में कोई नहीं इसका है,
परम परमेश्वर ही सब कुछ जिसका है।
मात पिता से वंचित ये जग में भटकता,
जग का कोई जन नाता न इससे रखता।।4।।

एक सहारा इसका भिक्षा की थोड़ी आशा,
दया कर दे का स्वर ही है इसकी भाषा।
बड़ा ही कृशकाय है इसका अबल तन,
पर बड़ा गम्भीर है बालक का अंतर्मन।।5।।

लघु ललाम लोचन चंचल ही बड़े हैं,
जग भर की आशा निज में समेटे पड़े हैं।
ओठ शुष्क पड़े हैं भूख प्यास के कारण,
दुःख संसार भर का कर रखे हैं धारण।।6।।

गृह कुटिया से यह सर्वथा है बंचित,
रखता न पास यह धरोहर भी किंचित।
नगर पदमार्ग आवास इसका परम है,
उसी पर यह जीवन के करता करम है।।7।।

हाथ मुँह कर शुद्ध प्रातःकाल में यह,
भिक्षाटन को निकलता सदैव ही वह।
उदर के लिए यह घर घर में भटकता,
भिक्षा मांगता यह ईश का नाम कहता।।8।।

याचना करता यह परम दीन बन के,
टिका हुआ है ये सहारे पे जग जन के।
आनन से इसके महा दीनता टपकती,
रोम रोम से इसके करुणा छिटकती।।9।।

जग में इस अनाथ का कोई नहीं है,
भावना जग जन की स्वार्थ में रही है।
इसका सहारा केवल एक वही ईश्वर,
'नमन' उसे जो पालता यह जग नश्वर।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।