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Sunday, October 20, 2019

कुण्डला मौक्तिका (बेटी)

(पदांत 'बेटी', समांत 'अर')

बेटी शोभा गेह की, मात पिता की शान,
घर की है ये आन, जोड़ती दो घर बेटी।।
संतानों को लाड दे, देत सजन को प्यार,
रस की करे फुहार, नेह दे जी भर बेटी।।

रिश्ते नाते जोड़ती, मधुर सभी से बोले,
रखती घर की एकता, घर के भेद न खोले।
ममता की मूरत बड़ी, करुणा की है धार,
घर का सामे भार, काँध पर लेकर बेटी।।

परिचर्या की बात हो, नारी मारे बाजी,
सेवा करती धैर्य से, रोगी राखे राजी।
आलस सारा त्याग के, करती सारे काम,
रखती अपना नाम, सभी से ऊपर बेटी।।

लगे अस्मिता दाव पे, प्रश्न शील का आए,
बड़ी जागरुक नार है, खल कामी न सुहाए।
लाख प्रलोभन सामने, इज्जत की हो बात,
नहीं छून दे गात, मारती ठोकर बेटी।।

चले नहीं नारी बिना, घर गृहस्थ की गाडी,
पूर्ण काज सम्भालती, नारी सब की लाडी।
हक देवें, सम्मान दें, उसकी लेवें राय,
दिल को लो समझाय, नहीं है नौकर बेटी।।

जिस हक की अधिकारिणी, कभी नहीं वह पाई,
नर नारी के भेद की, पाट सकी नहिं खाई।
पीछा नहीं छुड़ाइए, देकर चुल्हा मात्र,
सदा 'नमन' की पात्र, रही जग की हर बेटी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-10-2016

Monday, May 6, 2019

कुण्डला मौक्तिका (लावारिस वस्तु)

(पदांत 'मिलती', समांत 'ओ' स्वर)

मिलती पथ में कुछ पड़ी, वस्तु करें स्वीकार,
समझ इसे अधिकार, दबा लेते जो मिलती।।
अनायास कुछ प्राप्ति का, लिखा राशि में योग,
बंदे कर उपभोग, भाग्य वालों को मिलती।।

जन्मांतर के पुण्य सब, लगे साथ में जागे,
इस कारण से आज ये, आई आँखों आगे।
देने वाले देवता, देत पात्र को देख,
लिखी टले नहिं रेख, हमें तब ही तो मिलती।।

पुरखों के बड़ भाग से, लावारिस चल आती,
बिन प्रयास के कुछ मिले, हृदय कली खिल जाती।
लख के यहाँ अभाव मन, उनका जाता डोल,
भेजें वे जी खोल, तभी चाहें वो मिलती।।

घड़ी पुण्य की ये बड़ी, नजर वस्तु जब आई,
इधर उधर में ताक के, हमने शीघ्र उठाई।
पाकिट में हम डाल के, सोच रहे बिन लाज,
'नमन' भाग्य था आज, अन्यथा सबको मिलती।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-10-2016