Friday, March 29, 2024

"डायमांटे कविता"

डायमांटे हीरे के लिए इतालवी शब्द है। यह 16 शब्द लंबी कविता है जिसका आकार हीरे के जैसा होता है। सर्व प्रथम यह कविता 1969 में एक अमेरिकन कवि 'आयरिश मैक्लान टायड' द्वारा प्रकाश में लायी गयी।

इस कविता के 16 शब्द सात पंक्तियों में सजाये जाते हैं। साथ ही शब्दों के भेद भी पूर्व निर्धारित हैं।

प्रथम और सातवीं पंक्ति - 1 शब्द (केवल संज्ञा शब्द)
दूसरी और छठी पंक्ति - 2 शब्द (केवल विशेषण शब्द)
तीसरी और पाँचवी पंक्ति - 3 शब्द (केवल क्रियायें)
चौथी पंक्ति - 4 शब्द (केवल संज्ञा शब्द)

डायमांटे कविता दो प्रकार की होती है।
(1) पर्याय डायमांटे (इसमें सातवीं पंक्ति का शब्द प्रथम पंक्ति के संज्ञा शब्द का पर्यायवाची शब्द होता है।)
(2) विलोम डायमांटे (इसमें सातवीं पंक्ति का शब्द प्रथम पंक्ति के संज्ञा शब्द का विलोम अर्थ देने वाला शब्द होता है।)

यदि कोई रचनाकार इस कविता का शीर्षक देना चाहता है तो वह प्रथम पंक्ति के शब्द को शीर्षक के रूप में भी प्रयोग कर सकता है।

अरुण (पर्याय डायमांटे कविता)

            अरुण
      प्रभापूर्ण, सुखकर
   निकला,  बढा,    फैला
आकाश, दिन, प्रकाश, कोलाहल
   चमकाता, जलाता, सताता
         तेज, ज्वलंत
              सूर्य
******   ******

पद्म (पर्याय डायमांटे कविता)

              पद्म
       कोमल, नीला
   खिला, हँसा, महका
सरोवर, विष्णु, प्रातःकाल, पंखुड़ी
   उपजता, निकलता, फैलता
       सुखद, आभायुक्त
            कमल
******   ******

धूप ( विलोम डायमांटे कविता)

              धूप
      प्रखर, कड़कती
   तपाये, झुलसाये, सताये
पंखा,   सूर्य,   पेड़,    ठण्डक
   सिहराती, लुभाती, कँपाती
      शीतल, सुहावनी
              छाँव
******   ******

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28.03.24


Friday, March 22, 2024

"प्रातः वर्णन"

उदित हुआ प्रभाकर प्रखर प्रताप लेके,
समस्त जग को सन्देश स्फूर्ति का देके।
रक्त वर्ण रम्य रश्मियाँ लेके आया,
प्राची दिशि को अरुणिमा से सजाया।।1।।

पद्म खण्ड सुंदर सरोवरों में उपजे,
तुषार बिंदुओं से प्रसस्त पल्लव सजे।
विहग समूह भी आनन्द में समाया,
मधुर कलरव से दिग दिगन्त गूँजाया।।2।।

हर्ष में खिले हैं विभिन्न पशु पक्षी गण,
क्रियाकलाप में लगा सबका ही जीवन।
हर्षोन्माद छाया चहुँ दिशि ओ गगन में, 
उठी उमंग की लहर जनमानस मन में।।3।।

प्रातः शोभा में जग उद्यान लहराया,
दिशाओं में आलोक आवरण छाया।
घोर अंधकार अभी जहां संसार में था,
नीरवता का शासन पूर्ण प्रसार में था।।4।।

कहाँ छिपा रखा था तिमिर वधु निशा ने,
रखा दूर शोभा को कौनसी दिशा ने।
कहाँ से है आयी सुबह की ये शोभा,
कहाँ छिपी थी यह अरुणिमा मन लोभा।।5।।

जीविका के कारण जाना था जिनको बाहर,
जाने लगे वे सजधज गृह को त्यज कर।
रत हुई गृहणियाँ गृह कार्यों में नाना,
आलस्य त्यज नव स्फूर्ति का पहना बाना।।6।।

जलाशय कूपों पर जन समूह छाया,
स्नान पेय हेतु जल उनको भाया।
गो पालक भी अब अकाज न दिखते,
गो दुहन की तैयारी अब वे करते।।7।।

भगवत आलयों में घण्टा घोष छाया,
वातावरण को आरतियों से गूँजाया।
जीवन्त हो उठे हैं विद्यालयों के प्रांगण,
फैलाते प्रार्थनाओं की छात्र नभ में गूँजन।।8।।

कृषक समुदाय भी कुछ खा पी कर,
चल पड़े खेतों में हल बैल ले कर।
सींच रहे मालीगण वाटिकाओं को,
दाना डाल रहे कुछ कपोत सारिकाओं को।।9।।

खिलने लगे मन्जुल कमल सरोवरों में,
आनन्द तरंग उठने लगी चकोरों में।
सुबह के ही कारण यह हर्षोल्लास छाया,
कार्य सागर में अब जग जा समाया।।10।।

नव जागृति का है यह सुंदर सवेरा,
नाना कार्यों की चाह ने जग जन को घेरा।
'नमन' इसे सब कार्य प्रारम्भ इस में होते,
जो इसमें सोते अपना सर्वस्व खोते।।11।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
(1970 की लिखी कविता)

Saturday, March 9, 2024

दोहे "शिव वंदन"

दोहा छंद

सोम बिराजे शीश पे, प्रभु गौरा के कंत।
राज करे कैलाश पर, महिमा दिव्य अनंत।।

काशी के प्रभु छत्र हैं, औघड़ दानी आप।
कष्ट निवारण कर सकल, हरिये कलिमय पाप।।

काशी पावन धाम में, जो जन‌ त्यागें प्राण।
सद्गति पाते जीव वे, होता भव से त्राण।।

त्रिपुरारी सब कष्ट को, दूर करो प्रभु आप।
कृपा-दृष्टि जिस पर पड़े, मिटते भव संताप।।

जो जग का हित साधने, करे गरल का पान।
शिव समान इस विश्व में, उसका होता मान।।

चमके मस्तक चन्द्रमा, सजे कण्ठ पर सर्प।
नन्दीश्वर तुमको 'नमन', दूर करो सब दर्प।

विश्वनाथ को कर 'नमन', दोहे रचे अनूप।
हे प्रभु वन्दन आपको, भर दीज्यो रस रूप।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
30-04-19

Thursday, March 7, 2024

ग़ज़ल (जाने की जिद है)

बह्र:- 221 2121 1221 212

जाने की जिद है या है दिखावा कहें जिसे,
छेड़ा नया क्या अब ये शगूफ़ा कहें जिसे।

घर में लगेगी आग उठेगा धुँआ सनम,
देखेंगे सारे लोग तमाशा कहें जिसे।

महबूब मान जाओ भी कुछ तो बता सबब,
हालत हमारी देख लो खस्ता कहें जिसे।

रूठा है यार दिखती न सूरत मनाने की,
कोई न दे रहा है दिलासा कहें जिसे।

रो लेंगे हम सकून से गर छोड़ जाए वो,
मरहूम कब से लज्जत-ए-गिरिया कहें जिसे।

यादों में उसकी भटकेंगें हम क़ैस की तरह,
उठ जाए चाहे क्यों न जनाज़ा कहें जिसे।

खुदगर्ज़ और लोगों सा बनना नहीं 'नमन',
हरक़त न करना लोग कि बेजा कहें जिसे।

शगूफा = झगड़े की जड़ वाली बात
लज्जत-ए-गिरिया = रोने का स्वाद
क़ैस = मजनूँ

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
20-09-18

Saturday, March 2, 2024

"दो राही"

एक पथिक था चला जा रहा अपने पथ पर
मोह माया को त्याग बढ़ रहा जीवन रथ पर।
जग के बन्धन तोड़ छोड़ आशा का आँचल
पथ पर हुवा अग्रसर लिये अपना मन चंचल।1।

जग की नश्वरता लख उसे वैराग्य हुवा था
क्षणभंगुर इस जीवन पर उसे नैराश्य हुवा था।
जग की दाहक ज्वाला से मन झुलस उठा था
नितप्रति बढ़ती तृष्णा से मन भर चुका था।2।

इस नश्वर जग के प्रति घृणा के अंकुर उपजे
ज्ञान मार्ग अपनाने के मन में भाव सजे।
विचलित हुवा जग से लख जग की स्वार्थपरता
अर्थी जग की ना देख सका वह धनसंचयता।3।

लख इन कृत्रिम कर्मों को छोड़ चला जग को
लगा विचारने मार्ग शांति देने का मन को।
परम शांति का एक मार्ग उसने वैराग्य विचारा
आत्मज्ञान का अन्वेषण जीवन का एक सहारा।4।

एक और भी राही इस जग में देह धरा था
मोह माया का संकल्प उसके जीवन में भरा था।
वृत्ती उसने अपनायी केवल स्वार्थ से पूरित
लख इस वृत्ती को वह अधम हो रहा मोहित।5।

पथ पर हुवा अग्रसर वह पाप लोभ मद के
तट पर था वह विचरता दम्भ क्षोभ नद के।
स्वार्थ दुकूल लपेटे कपटी राहों में भटकता
तृष्णा के झरने में नित वो अपनी प्यास बुझाता।6।

धन संचय ही बनाया एकमात्र जीवन का कर्म
अन्यों का शोषण करना था उसका पावन धर्म।
अपने से अबलों पर जुल्म अनेकों ढ़ाह्ता
अन्यों की आहों पर निज गेह बनाना चाहता।7।

इन दोनो पथिकों में अंतर बहुत बड़ा है
एक चाहता मुक्ति एक बन्धन में पड़ा है।
त्यज जग पहले राही ने मोक्ष मार्ग अपनाया
अपना मोह माया दूजेने जग में रुदन मचाया।8।

इस नश्वर जग में धन्यवान पहले जन
वृत्ती सुधा सम अपना करते अमर वो जीवन।
ज्ञान रश्मि से वे जग में आलोक फैलाते
जग मन उपवन में सुधा वारि बरसाते।9।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-05-1971