Showing posts with label नील छंद. Show all posts
Showing posts with label नील छंद. Show all posts

Tuesday, March 26, 2019

नील छंद "विरहणी"

नील छंद / अश्वगति छंद

वो मन-भावन प्रीत लगा कर छोड़ चले।
खावन दौड़त रात भयानक आग जले।।
पावन सावन बीत गया अब हाय सखी।
आवन की धुन में उन के मन धीर रखी।।

वर्षण स्वाति लखै जिमि चातक धीर धरे।
त्यों मन व्याकुल साजन आ कब पीर हरे।।
आकुल भू लख अंबर से जल धार बहे।
आतुर ये मन क्यों पिय का वनवास सहे।।

मोर चकोर अकारण शोर मचावत है।
बागन की छवि जी अब और जलावत है।।
ये बरषा विरहानल को भड़कावत है।
गीत नये उनके मन को न सुहावत है।।

कोयल कूक लगे अब वायस काँव मुझे।
पावस के इस मौसम से नहिं प्यास बुझे।।
और बचा कितना अब शेष बिछोह पिया।
नेह-तृषा अब शांत करो लगता न जिया।।
================

नील छंद / अश्वगति छंद विधान -

नील छंद जो कि अश्वगति छंद के नाम से भी जाना जाता है, १६ वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है।

"भा" गण पांच रखें इक साथ व "गा" तब दें।
'नील' सुछंदजु  षोडस आखर की रच लें।।

"भा" गण पांच रखें इक साथ व "गा"= 5 भगण+गुरु

(211×5 + गुरु) = 16 वर्ण। चार चरण, दो दो या चारों चरण समतुकांत।
********************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
9-1-17