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Saturday, September 5, 2020

ग़ज़ल (इरादे इधर हैं उबलते हुए)

बह्र: 122 122 122 12

इरादे इधर हैं उबलते हुए,
उधर सारे दुश्मन दहलते हुए।

नये जोश में हम उछलते हुए,
चलेंगे ज़माना बदलते हुए।

हुआ पांच सदियों का वनवास ख़त्म,
विरोधी दिखे हाथ मलते हुए।

अगर देख सकते जरा देख लो,
हमारे भी अरमाँ मचलते हुए।

रहे जो सिखाते सदाकत हमें,
मिले वो जबाँ से फिसलते हुए।

न इतना झुको देख पाओ नहीं,
रकीबों के पर सब निकलते हुए।

बढेंगे 'नमन' सुन लें गद्दार सब,
तुम्हें पाँव से हम कुचलते हुए।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-08-20

Wednesday, December 4, 2019

ग़ज़ल (चरागों के साये में बुझते रहे)

बह्र:- 122  122  122  12

चरागों के साये में बुझते रहे,
अँधेरे में पर हम दहकते रहे।

डगर गर न आसाँ तो परवाह क्या,
भरोसा रखे खुद पे चलते रहे।

जमाना हमें खींचता ही रहा,
मगर था हमें बढ़ना बढ़ते रहे।

जहाँ से थपेड़े ही खाये सदा,
मगर हम मुसीबत में ढलते रहे।

जवानों के जज़्बे का क्या हम कहें,
सदा हाथ दुश्मन ही मलते रहे।

महब्बत की मंजिल न ढूंढे मिली,
कदम दर कदम हम भटकते रहे।

गुलाबों सी फितरत मिली है 'नमन',
गले से लगा खार हँसते रहे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-09-19

Tuesday, June 4, 2019

ग़ज़ल (शब-ए-वस्ल इतनी सुहानी लगी)

बह्र:- 122  122  122  12

शब-ए-वस्ल इतनी सुहानी लगी,
हमें ख्वाब सी जिंदगानी लगी।

हुई मुख़्तसर रात की जब सहर
हक़ीक़त हमें ये कहानी लगी।

छुड़ा हाथ लेना, वो हँस टालना,
सभी शय ही उनकी लसानी लगी।

वे नाज़ुक अदाएँ, हया उनकी! उफ़,
बड़ी जल्द शब की रवानी लगी।

मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
तभी से लुभाने जवानी लगी।

जिसे देखिये ग़म से सैराब वो,
कहीं खोने अब शादमानी लगी।

मसर्रत कहीं तो, कहीं रंज-ओ- ग़म,
'नमन' सारी दुनिया ही फ़ानी लगी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-05-19