Thursday, January 21, 2021

मौक्तिका (रोटियाँ)

बहर :- 122*3+ 12 (शक्ति छंद आधारित)
(पदांत 'रोटियाँ', समांत 'एं')

लगे ऐंठने आँत जब भूख से,
क्षुधा शांत तब ये करें रोटियाँ।।
लखे बाट सब ही विकल हो बड़े, 
तवे पे न जब तक पकें रोटियाँ।।

तुम्हारे लिए पाप होतें सभी, 
तुम्हारी कमी ना सहन हो कभी।
रहे म्लान मुख थाल में तुम न हो, 
सभी बात मन की कहें रोटियाँ।।

भजन हो न जब पेट खाली रहे, 
सभी मान अपमान भूखा सहे।
नहीं काम में मन लगे तुम बिना,
किसी की न कुछ भी सुनें रोटियाँ।।

तुम्हीं से चले आज व्यापार सब, 
तुम्हारे बिना चैन हो प्राप्त कब।
जगत की रही एक चाहत यही, 
लगे भूख जब भी मिलें रोटियाँ।।

अगर भूख जग को सताती नहीं, 
न होता लहू का खराबा कहीं।
'नमन' ईश तुझसे यही प्रार्थना, 
हरिक थाल में नित सजें रोटियाँ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-03-18

गीत (बार लंका वासी घाळै)

बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

जात वानरा की पण स्याणा, राम-दूत बण आया,
आदर स्यूँ माता सँभलाद्यो, हाथ जोड़ समझाया,
आ बात वभीषण जी बोल्या, लात बापड़ा खाया,
बैरा भाठां आगै जोर न, कोई रो चाळै।
बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

अक्षय बाग उजाड़ एकला, राम-शक्ति दिखलाई,
पण राजाजी आग पूँछ में, फिर भी क्यों लगवाई,
सिर में बड़ बेमाता काँई, थी करली अधिकाई,
बुद्धि-भ्रष्ट ही इसी मुसीबत, घर बैठ्याँ पाळै।
बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

खरदूषण बाली जिण मार्या, किया वानरा भैळा,
लंकापति ऐसे समर्थ स्यूँ, क्यों कीन्ह्या मन मैला,
गाल बजावणिया रावणजी, और सभासद गैला,
ऐसो राज प्रजा ने हरदम, आफत में डाळै। 
बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

सब से प्यारी म्हाँकी लंका, तीन लोक स्यूँ न्यारी,
छोटो चाहे बड़ो न कोई, थो अट्ठै दुखियारी,
वीराँ री या नगरी आँख्याँ, आगै बळरी सारी,
चुड़्याँ पैर्याँ बैठ्या सगळा, यो दुख जी साळै।
बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

इंद्रजीत तू बण्यो नाम को, वरुण-अस्त्र कद ल्यासी,
कुम्भकरण जी भी सुत्या कुण, लपटां फूँक बुझ्यासी,
अहिरावण नारांतक थारो, जोर काम कद आसी,
रैग्या वीर नहीं लंका में, जो विपदा टाळै।
बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

सुनो भगत जी थारै प्रभु रो, रैग्यो अब तो सारो,
राम लखण नै सागै ल्याओ, माता नै उद्धारो,
'बासुदेव' लंकावासी नै, ई विपदा स्यूँ तारो,
राम-कृपा बिन नहीं जगत में, पत्तो ही हाळै।
बार लंका वासी घाळै।
देखो आज अभागण लंका, बजरंगी बाळै।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-10-2018

Saturday, January 16, 2021

हाइकु (गरीब)

हाय अनाथ
आवास फुटपाथ
जाड़े की रात।
**

दीन लाचार
शर्दी गर्मी की मार
झेले अपार।
**

हाय गरीब
जमाना ही रकीब
खोटा नसीब।
**

तेरी गरीबी
बड़ी बदनसीबी
सदा करीबी।
**

लाचार दीन
दुर्बल तन-मन
कैसा जीवन?
**

दैन्य का जोर
तपती लू सा घोर
कहीं ना ठौर।
**

दीन की खुशी
नित्य की एकादशी
ओढ़ी खामोशी।
**

सुविधा हीन
दुख पर आसीन
अभागा दीन।
**

दीन का जोखा
जग भर ने सोखा
केवल धोखा।
****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-19

आरोही अवरोही पिरामिड (वक्त का मोल)

(1-7 और 7-1)

(वक्त का मोल)

जो
मोल
वक़्त का
ना  समझे
पछताते वो।
हो काम का वक़्त
सोये रह जाते वो।

हाथों  को  मलने से
लाभ अब क्या हो?
जो बीत  गये
पल नहीं
लौट के
आते
वो।।
*****

(क्षणभंगुर जीवन)

ये
चार
दिनों का
जीवन है
नाम कमा ले।
सत्कर्मों की पूँजी
ले के पैठ जमा ले।

हीरे सा ये जीवन
न माटी में मिला।
परोपकार
कर यहाँ
धूनी तु
रमा
ले।।
********

(वर्तमान)

जो
बीत
चुका है
उस  पर
नयन बन्द
लेना तुम कर;
यूनान मिश्र रोमाँ
मिटे आज खो कर;
नेत्र रखो खुल्ला
वर्तमान  पे;
सार सदा
इस में
जग
में।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-08-18

क्षणिका (कैनवस)

(1)

पेड़ की पत्तियों का
सौंदर्य,
तितलियों का रंग,
उड़ते विहगों की
नोकीली चोंच की कूँची;
मेरे प्रेम के
कैनवस पर
प्रियतम का चित्र
उकेर रही है,
न जाने
कब पूरा होगा।
**

क्षणिका (जिंदगी)
(2)

जिंदगी
चैत्र की बासन्ती-वास,
फिर ज्येष्ठ की
तपती दुपहरी,
उस पर फिर
सावन की फुहार,
तब कार्तिक की
शरद सुहानी
और अंत में
पौष सी ठंडी पड़
शाश्वत शांत
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-06-19

Sunday, January 10, 2021

मनहरण घनाक्षरी "मौन त्याग दीजिये"

जुल्म का हो बोलबाला, मुख पे न जड़ें ताला,
बैठे बैठे चुपचाप, ग़म को न पीजिये।

होये जब अत्याचार, करें कभी ना स्वीकार,
पुरजोर प्रतिकार, जान लगा कीजिये।

देश का हो अपमान, टूटे जब स्वाभिमान,
कभी न तटस्थ रहें, मन ठान लीजिये।

हद होती सहने की, बात कहें कहने की,
सदियों पुराना अब, मौन त्याग दीजिये।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-06-17

दोहे (मोदी जी पर)

दोहा छंद

भरा पाप-घट तब हुआ, मोदी का अवतार।
बड़े नोट के बन्द से, मेटा भ्रष्टाचार।।

जमाखोर व्याकुल भये, कालाधन बेकार।
सेठों की नींदें उड़ी, दीन करे जयकार।।

नई सुबह की लालिमा, नई जगाये आश।
प्राची का सूरज पुनः, जग में करे प्रकाश।।

दोहा मुक्तक

चोर चोर का था मचा, सकल देश में शोर।
शोर तले जनता लखे, नव आशा की भोर।
भोर सुहानी स्वप्नवत, जिसकी सब को आस।
आस करेगा पूर्ण अब, जो कहलाया चोर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-11-2016

32 मात्रिक छंद "मन्दभाग"

फटाहाल दिखला ये अपना, करुण कहानी किसे बताते।
टपका कर आँखों से  मोती, अन्तः वाणी किसे सुनाते।
सूखे अधरों की पपड़ी से, अंतर्ज्वाला किसे दिखाते।
अपलक नेत्रों की भाषा के, मौन निमन्त्रण किसे बुलाते।।1।।

रुक रुक कर ये प्यासी आँखें, देख रही हैं किसकी राहें।
बींधे मन के दुख से निकली, किसे सुनाते दारुण आहें।
खाली लोचन का यह प्याला, घुमा रहे क्यों सब के आगे।
माथे की टेढ़ी सल दिखला, क्यों फिरते हो भागे भागे।।2।।

देख अस्थि पिंजर ये कलुषित, आँखें सबकी थमतीं इस पर।
पर आगे वे बढ़ जाती हैं, लख कर काया इसकी जर्जर।
करुण भाव में पूर्ण निमज्जित, एक ओर ये लोचन आतुर।
घोर उपेक्षा के भावों से, लिप्त उधर हैं जग के चातुर।।3।।

देख रहे हैं वे इसको पर, पूछ रही हैं उनकी आँखें।
किस धरती के कीचड़ की ये, इधर खिली हैं पंकिल पाँखें।
वक्र निगाहें घूर घूर के, मन्दभाग से पूछ रही ये।
हे मलीन ! क्यों अपने जैसी, कुत्सित करते दिव्य मही ये।।4।।

मन्दभाग! क्यों निकल पड़े हो, जग की इन कपटी राहों में।
उस को ही स्वीकार नहीं जब, डूब रहे क्यों इन आहों में।
गेह न तेरा इन राहों में, स्वार्थ भरा जिन की रग रग में।
'नमन' करो निज क्षुद्र जगत को, जाग न और स्वार्थ के जग में।।5।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-05-2016

Monday, January 4, 2021

ग़ज़ल (जनवरी के मास की छब्बीस)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

जनवरी के मास की छब्बीस तारिख आज है,
आज दिन भारत बना गणतन्त्र सबको नाज़ है।

ईशवीं उन्नीस सौ पच्चास की थी शुभ घड़ी,
तब से गूँजी देश में गणतन्त्र की आवाज़ है।

आज के दिन देश का लागू हुआ था संविधान,
है टिका जनतन्त्र इस पे ये हमारी लाज है।

सब रहें आज़ाद हो रोजी कमाएँ खुल यहाँ,
एक हक़ सब का यहाँ जो एकता का राज़ है।

राजपथ पर आज दिन जब फ़ौज़ की देखें झलक,
छातियाँ दुश्मन की दहले उसकी ऐसी गाज़ है।

संविधान_इस देश की अस्मत, सुरक्षा का कवच,
सब सुरक्षित देश में सर पे ये जब तक ताज है।

मान दें सम्मान दें गणतन्त्र को नित कर 'नमन',
ये रहे हरदम सुरक्षित ये सभी का काज है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-01-17

ग़ज़ल (गिर्दाब में सफ़ीना है पतवार भी नहीं)

बह्र:- 221  2121  1221  212 

गिर्दाब में सफ़ीना है पतवार भी नहीं,
चारों तरफ अँधेरा, मददगार भी नहीं।

इंकार गर नहीं है तो इक़रार भी नहीं,
नफ़रत भले न दिल में हो पर प्यार भी नहीं।

फ़ितरत हमारे देश के नेताओं की यही,
जितना दिखाते उतने मददगार भी नहीं।

रिश्तों से कट के दुनिया बसाओ तो सोच लो,
परिवार गर नहीं है तो घरबार भी नहीं।

इतने भी दूर हों न किसी से, ये ग़म रहे,
बाक़ी यहाँ पे सुल्ह के आसार भी नहीं।

बेज़ार अब न हों तो करें और क्या बता,
मुड़ के उन्होंने देखा था इक बार भी नहीं।

सुहबत का जिसकी रहता था कायल सदा 'नमन',
साबित हुआ वो इतना समझदार भी नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-10-19

ग़ज़ल (जग में जो भी आने वाला)

22  22  22  22

जग में जो भी आने वाला,
वह सब इक दिन जाने वाला।

कौन निभाये साथ दुखों में,
हर कोई समझाने वाला।

साथ चला रहबर बन जो भी,
निकला ख़ार बिछाने वाला।

लाखों घी डालें जलती में,
बिरला आग बुझाने वाला।

आज कहाँ मिलता है कोई,
सच्ची राह दिखाने वाला।

ऊपर से ले नीचे तक हर,
सत्ता में है खाने वाला।

खुद पे रख विश्वास 'नमन' तू,
कोइ न हाथ बँटाने वाला।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
4-2-19