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Tuesday, August 9, 2022

ग़ज़ल (नेकियों का आजकल मिलता)

 बह्र:- 2122  2122  2122  212

नेकियों का आजकल मिलता सिला कुछ भी नहीं,
ये जमाने का चलन है कर गिला कुछ भी नहीं।

दूर उनसे हैं बहुत ही जी रहे पर सोच यह,
जब तलक वे दिल में बसते फ़ासिला कुछ भी नहीं।

घूम आवारा कटें दिन और फुटपाथों पे शब,
ज़ीस्त का सुख आज तक हमको मिला कुछ भी नहीं।

आप आयें तो महक उट्ठेगा उजड़ा गुलसिताँ,
मुद्दतों से इस चमन में है खिला कुछ भी नहीं।

खाना, पीना, उठना, सोना सब ही बेतरतीब अब,
दूर वे जब से गये हैं सिलसिला कुछ भी नहीं।

चाहे कोई युग हो पुरुषों की अना के सामने,
द्रौपदी, सीता, अहिल्या, उर्मिला कुछ भी नहीं।

चंद साँसें साथ हैं बस पर 'नमन' कुछ कर दिखा,
यूँ तो लम्बी राह में ये काफ़िला कुछ भी नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-01-2019

Sunday, November 7, 2021

ग़ज़ल (हर सू बीमारी नहीं तो)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

हर सू बीमारी नहीं तो और क्या है दोस्तो,
ज़िंदगी भारी नहीं तो और क्या है दोस्तो।

रोग से रिश्वत के कोई अब नहीं महफ़ूज़ है,
ये महामारी नहीं तो और क्या है दोस्तो।

सर छुपाने को न छत है, लोग भूखे सो रहे,
मुफ़लिसी ज़ारी नहीं तो और क्या है दोस्तो।

नारियाँ अस्मत को बेचें, भीख बच्चे माँगते,
घोर बेकारी नहीं तो और क्या है दोस्तो।

रहनुमा जिनको बनाया दुह रहे जनता को वे,
उनकी बदकारी नहीं तो और क्या है दोस्तो। 

जो गया है बीत उसको भूल हम आगे बढ़ें,
ये समझदारी नहीं तो और क्या है दोस्तो।

जो वतन को भूल दुश्मन से मिलाये सुर 'नमन',
उनकी मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-9-19

Wednesday, August 4, 2021

ग़ज़ल (देश की ख़ातिर सभी को)

बह्र :- 2122 2122 2122 212

देश की ख़ातिर सभी को जाँ लुटाने की कहो,
दुश्मनों को खून के आँसू रुलाने की कहो।

देश की चोड़ी हो छाती और ऊँचा शीश हो,
भाव ऐसे नौजवानों में जगाने की कहो।

ज्ञान की जिस रोशनी में हम नहा जग गुरु बने,
फिर उसी गौरव को भारत भू पे लाने की कहो।

बेसुरे अलगाव के जो गीत गायें अब उन्हें,
देश की आवाज में सुर को मिलाने की कहो।

जो हमारी भूमि पे आँखें गड़ायें बैठे हैं,
जड़ से ही अस्तित्व उन सब का मिटाने की कहो।

देश बाँटो राज भोगो का रखें सिद्धांत जो,
ऐसे घर के दुश्मनों से पार पाने की कहो।

शान्ति का संदेश जग को दो 'नमन' करके इसे,
शस्त्र भी इसके लिये पर तुम उठाने की कहो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-07-20

Wednesday, May 5, 2021

ग़ज़ल (जब से देखा उन को मैं तो)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

जब से देखा उन को मैं तो क़ैस जैसा बन गया,
अच्छा खासा जो था पहले क्या से अब क्या बन गया।

हाल कुछ ऐसा हुआ उनकी अदाएँ देख कर,
बन फ़साना सब की आँखों का मैं काँटा बन गया।

पेश क्या महफ़िल में कर दी इक लिखी ताज़ा ग़ज़ल,
घूरती सब की निगाहों का निशाना बन गया।

कामयाबी की बुलंदी पे गया गर चढ़ कोई,
हो सियासत में वो शामिल इक लुटेरा बन गया।

आये वो अच्छे दिनों का झुनझुना दे चल दिये,
देश के बहरों के कानों का वो बाजा बन गया।

लोगों की जो डाह में था इश्क़ का मेरा जुनूँ,
अब वो उन के जी को बहलाने का ज़रिया बन गया।

जो 'नमन' सब को समझता था महज कठपुतलियाँ,
आज वो जनता के हाथों खुद खिलौना बन गया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-2018

Thursday, February 4, 2021

ग़ज़ल (जब से अंदर और बाहर)

बह्र:- 2122 2122 2122 212

जब से अंदर और बाहर एक जैसे हो गये,
तब से दुश्मन और प्रियवर एक जैसे हो गये।

मन की पीड़ा आँख से झर झर के बहने जब लगी,
फिर तो निर्झर और सागर एक जैसे हो गये।

लूट हिंसा और चोरी, उस पे सीनाजोरी है,
आजकल तो जानवर, नर एक जैसे हो गये।

अर्थ के या शक्ति के या पद के फिर अभिमान में,
आज नश्वर और ईश्वर एक जैसे हो गये।

हाल कुछ ऐसा ही है संसद का इस जन-तंत्र में,
फिर से क्या नर और वानर एक जैसे हो गये।

साफ़ छवि रख काम कोई कैसे कर सकता यहाँ,
भ्रष्ट सब जब एक होकर एक जैसे हो गये।

जब से याराना फकीरी से 'नमन' का हो गया,
मान अरु अपमान के स्वर एक जैसे हो गये।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-09-20

Monday, January 4, 2021

ग़ज़ल (जनवरी के मास की छब्बीस)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

जनवरी के मास की छब्बीस तारिख आज है,
आज दिन भारत बना गणतन्त्र सबको नाज़ है।

ईशवीं उन्नीस सौ पच्चास की थी शुभ घड़ी,
तब से गूँजी देश में गणतन्त्र की आवाज़ है।

आज के दिन देश का लागू हुआ था संविधान,
है टिका जनतन्त्र इस पे ये हमारी लाज है।

सब रहें आज़ाद हो रोजी कमाएँ खुल यहाँ,
एक हक़ सब का यहाँ जो एकता का राज़ है।

राजपथ पर आज दिन जब फ़ौज़ की देखें झलक,
छातियाँ दुश्मन की दहले उसकी ऐसी गाज़ है।

संविधान_इस देश की अस्मत, सुरक्षा का कवच,
सब सुरक्षित देश में सर पे ये जब तक ताज है।

मान दें सम्मान दें गणतन्त्र को नित कर 'नमन',
ये रहे हरदम सुरक्षित ये सभी का काज है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-01-17

Wednesday, June 3, 2020

ग़ज़ल (इश्क़ के चक्कर में)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

इश्क़ के चक्कर में ये कैसी फ़ज़ीहत हो गयी
क्या किया इज़हार बस रुस्वा मुहब्बत हो गयी।

उनके दिल में भी है चाहत, सोच हम थे खुश फ़हम,
पर बढ़े आगे, लगा शायद हिमाक़त हो गयी।

खोल के दिल रख दिया जब हमने उनके सामने,
उनकी नज़रों में हमारी ये बगावत हो गयी।

देखिये जिस ओर नकली ही मिलें चहरे लगे,
गुम कहीं अब इन मुखौटों में सदाक़त हो गयी।

हुस्न को पर्दे में रखने नारियाँ जलतीं जहाँ,
अब वहाँ इसकी नुमाइश ही तिज़ारत हो गयी।

बस छलावा रह गया जम्हूरियत के नाम पे,
खानदानी देश की सारी सियासत हो गयी।

नाज़नीनों की यही दिखती अदा अब तो 'नमन',
नाज़ बाकी रह गया गायब शराफ़त हो गयी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-19

Tuesday, April 7, 2020

ग़ज़ल (दीन की ख़िदमत से बढ़कर)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

दीन की ख़िदमत से बढ़कर शादमानी फिर कहाँ,
कर सको उतनी ये कर लो जिंदगानी फिर कहाँ।

पास आ बैठो सनम कुछ मैं कहूँ कुछ तुम कहो,
शाम ऐसी फिर कहाँ उसकी रवानी फिर कहाँ।

नौनिहालों इन बुजुर्गों से ज़रा कुछ सीख लो,
इस जहाँ में तज्रबों की वो निशानी फिर कहाँ।

कद्र बूढ़ों की करें माँ बाप को सम्मान दें,
कब उन्हें ले जाएँ दौर-ए-आसमानी फिर कहाँ।

नौजवानों इस वतन के वास्ते कुछ कर भी लो,
सर धुनोगे बाद में ये नौजवानी फिर कहाँ।

गाँवों की उजड़ी दशा पर गर किया कुछ भी न अब,
उन भरे चौपालों की बातें पुरानी फिर कहाँ।

लिखता आया है 'नमन' खून-ए जिगर से नज़्म सब,
ठहरिये सुन लें ज़रा ये नज़्म-ख्वानी फिर कहाँ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-08-17

Wednesday, March 4, 2020

ग़ज़ल (आपने जो पौध रोपी)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

आपने जो पौध रोपी वो शजर होने को है,
देश-हित के फैसलों का अब असर होने को है।

अब तलक तय जो सफ़र की ख़ार ही उसमें मिले,
आपके साये में अब आसाँ डगर होने को है।

अपना समझा था जिन्हें उनके दिये ही ज़ख्मों की,
दिल कँपाती दास्ताँ सुन आँख तर होने को है।

नफ़रतों के और दहशतगर्दी के इस दौर में,
देखिए इंसान कैसे जानवर होने को है।

देश को जो तोड़ने का ख्वाब देखें, जान लें,
औ' नहीं उनका यहाँ पर अब गुज़र होने को है।

जो पड़े हैं नींद में अब भी गुलामी की, सुनें,
जाग जाओ अब तो यारो दोपहर होने को है।

बेकरारी की अँधेरी रात में तड़पा 'नमन',
ज़िंदगी में अब मुहब्बत की सहर होने को है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-01-17

Sunday, October 6, 2019

ग़ज़ल (आजकल उनसे मुलाकातें)

बह्र:- 2122   2122   2122   212

आजकल उनसे मुलाकातें कहानी हो गईं,
शोखियाँ उनकी अदाएँ अब पुरानी हो गईं।

हम नहीं उनको मना पाये गए जब रूठ वों,
ज़िंदगी में गलतियाँ कुछ ना-गहानी हो गईं।

प्यार उनका पाने की मन में कई थी हसरतें,
चाहतें लेकिन वो सारी आज पानी हो गईं।

फाग बीता आ गई मधुमास की रंगीं फ़िजा,
टेसुओं की टहनियाँ सब जाफ़रानी हो गईं।

हुक्मरानों की बढ़ी है ऐसी कुछ चमचागिरी,
हरकतें बचकानी उनकी बुद्धिमानी हो गईं।

थे मवाली जो कभी वे आज नेता हैं बड़े,
देखिए सारी तवायफ़ खानदानी हो गईं।

बोलबाला आज अंग्रेजी का ऐसा देश में,
मातृ भाषाएँ हमारी नौकरानी हो गईं।

बंसी-वट पे साँवरे की जब कभी बंसी बजी,
गोपियाँ घर छोड़ उसकी ही दिवानी हो गईं।

हाथ रख सर पे सदा आगे बढ़ाते आये जो,
अब 'नमन' रूहें वो सारी आसमानी हो गईं।

ना-गहानी= अकस्मात्

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-03-2017