Saturday, October 29, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'प्रथम भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -१)

श्रेयस्कर यदि कर्म से, आप मानते ज्ञान। 
फिर क्यों झोंकें घोर रण, जो है कर्म प्रधान।।१।। 

समझ न पाया ठीक से, कर्म श्रेय या बुद्धि।
निश्चित कर प्रभु कीजिए, भ्रम से मन की शुद्धि।।२।। 

अर्जुन के सुन कर वचन, बोले श्री भगवान। 
दो निष्ठा संसार में, जिन्हें पुरातन जान।।३।। 

ज्ञानयोग से सांख्य की, हुवे साधना पार्थ। 
निष्ठा जुड़ती योग की, कर्मयोग के साथ।।४।। 

प्राप्त न हो निष्कर्मता, बिना कर्म प्रारम्भ। 
कर्म-त्याग नहिं सिद्धि दे, देवे हठ अरु दम्भ।।५।। 

कर्म रहित नहिं हो सके, मनुज किसी भी काल।
कर्म हेतु करता विवश, प्रकृति जनित गुण जाल।।६।। 

इन्द्रिन्ह हठ से रोक शठ, बैठे बगुले की तरह।
भोगे मन से जो विषय, मिथ्याचारी मूढ़ वह।।७।। उल्लाला 

वश में कर संकल्प से, सभी इन्द्रियाँ धैर्य धर।
कर्मेन्द्रिय से जो करे, कर्मयोग वह श्रेष्ठ नर।।८।। उल्लाला 

शास्त्र विहित कर्त्तव्य कर, यह अकर्म से श्रेष्ठ।
जीवन का निर्वाह भी, कर्म बिना न यथेष्ठ।।९।। 

यज्ञ हेतु नहिं कर्म जो, कर्म-बन्ध दे पार्थ। 
जग के नित कल्याण हित, यज्ञ-कर्म लो हाथ।।१०।। 

यज्ञ सहित रच कर प्रजा, ब्रह्मा रचे विधान। 
यज्ञ तुम्हें करते रहें, इच्छित भोग प्रदान।।११।। 

करो यज्ञ से देवता, सब विध तुम सन्तुष्ट। 
यूँ ही वे तुमको करें, धन वैभव से पुष्ट।।१२।। 

बढ़े परस्पर यज्ञ से, मेल जोल के भाव। 
इससे उन्नत सृष्टि हो, चहुँ दिशि होय उछाव।।१३।। 

यज्ञ-पुष्ट ये देवता, बिन माँगे सब देय। 
देव-अंश राखे बिना, भोगे वो नर हेय।।१४।। 

अंश सभी का राख जो, भोगे वह अघ-मुक्त। 
देह-पुष्टि स्वारथ पगी, सदा पाप से युक्त।।१५।। 

प्राणी उपजें अन्न से, बारिस से फिर अन्न। 
वर्षा होती यज्ञ से, यज्ञ कर्म-उत्पन्न।।१६।। 

कर्म सिद्ध हों वेद से, अक्षर-उद्भव वेद। 
अतः प्रतिष्ठित यज्ञ में, शाश्वत ब्रह्म अभेद।।१७।। 

चलें सभी इस भाँति, सृष्टि चक्र प्रचलित यही।
जरा न उनको शांति, भोगों में ही जो पड़े।।१८।।सोरठा 

छोड़ राग अरु द्वेष, अपने में ही तृप्त जो। 
करना कुछ नहिं शेष, आत्म-तुष्ट नर के लिए।।१९।।सोरठा छंद

कुछ न प्रयोजन कर्म में, आत्म-तुष्ट का पार्थ। 
नहीं प्राणियों में रहे, लेश मात्र का स्वार्थ।।२०।। 

अतः त्याग आसक्ति सब, सदा करो कर्त्तव्य। 
ऐसे ही नर श्रेष्ठ का, परम धाम गन्तव्य।।२१।। 

इति सुगम्य गीता तृतीय अध्याय (भाग - 1)

रचयिता
बासुदेव अग्रवाल नमन 


Friday, October 21, 2022

गोपाल छंद "वीर सावरकर"

 गोपाल छंद / भुजंगिनी छंद


सावरकर की कथा महान।
देश करे उनका गुणगान।।
सन अट्ठारह आठ व तीन।
दामोदर के पुत्र प्रवीन।।

बड़े हुए बिन सिर पर हाथ ।
मात पिता का मिला न साथ।।
बचपन से ही प्रखर विचार।
देश भक्ति का नशा सवार।।

मातृभूमि का रख कर बोध।
बुरी रीत का किये विरोध।।
किये विदेशी का प्रतिकार।
दिये स्वदेशी को अधिकार।।

अंग्रेजों के हुये विरुद्ध।
छेड़ कलम से बौद्धिक युद्ध।।
रुष्ट हुई गोरी सरकार।
मन में इनकी अवनति धार।।

अंडमान में दिया प्रवास।
आजीवन का जेल निवास।।
कैदी ये थे वहाँ छँटैल।
जीये कोल्हू के बन बैल।।

कविता दीवारों पर राच।
जेल बिताई रो, हँस, नाच।।
सैंतिस में छोड़ी जब जेल।
जाति वाद की यहाँ नकेल।।

अंध धारणा में सब लोग।
छुआछूत का कुत्सित रोग।।
किये देश में कई सुधार।
देश जाति हित जीवन वार।।

महासभा के बने प्रधान।
हिंदू में फूंके फिर जान।।
सन छाछठ में त्याग शरीर।
'नमन' अमर सावरकर वीर।।
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गोपाल छंद / भुजंगिनी छंद विधान -

गोपाल छंद जो भुजंगिनी छंद के नाम से भी जाना जाता है, 15 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह तैथिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 15 मात्राओं की मात्रा बाँट:- अठकल + त्रिकल + 1S1 (जगण) है। त्रिकल में 21, 12 या 111 रख सकते हैं तथा अठकल में 4 4 या 3 3 2 रख सकते हैं। इस छंद का अंत जगण से होना अनिवार्य है। त्रिकल + 1S1 को 2 11 21 रूप में भी रख सकते हैं।



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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
10-06-22

Monday, October 17, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "गुच्छक")

                       पाठ - 03

छंदा सागर ग्रन्थ 

(छंद के घटक "गुच्छक")

पिछले पाठ में हमने प्रथम घटक वर्ण के विषय में विस्तार से जाना। इस पाठ में हम दूसरे घटक गुच्छक के बारे में जानेंगे। जैसा कि नाम से स्पष्ट हो रहा है यह शब्द समूह का वाचक है। 

गुच्छक:- गुच्छक गणों के आधार पर तीन से छह लघु दीर्घ वर्णों का विशिष्ट समूह है। 8 गणों में वर्ण जुड़ कर गणक बनाते हैं। ये गण और गणक सम्मिलित रूप से गुच्छक कहलाते हैं। गुच्छक कहने से उसमें गण भी आ जातें हैं और गणक भी आ जाते हैं। इस प्रकार गुच्छक तीन से छह लघु दीर्घ वर्णों का विशिष्ट क्रम है जिसका संरचना के आधार पर एक नाम है तथा वर्ण संकेतक (ल, गा आदि) की तरह ही एक संकेतक है। छंदाओं के नामकरण में इसी संकेतक का प्रयोग है। इस पाठ में गणकों के नाम के रूप में कई नयी संज्ञायें एकाएक पाठकों के समक्ष आयेंगी। यदि किसी पाठक को वे कुछ उबाऊ लगें तो उनमें अधिक उलझने की आवश्यकता नहीं है। गणक की संरचना के आधार पर प्रत्येक गणक विशेष को एक संज्ञा दे दी गयी है जिनका आगे के पाठों में नगण्य सा प्रयोग है। पाठकों को केवल हर गुच्छक के संकेतक को समझना है। ये संकेतक ही समक्ष छंदाओं के नामकरण के आधार हैं।

"यमाताराजभानसलगा" सूत्र के अनुसार त्रिवर्णी 8 गण हैं। इन 8 गण में छह वर्णों के संयोजन से गणक बनते हैं। 8 गण में तीन गुर्वंत वर्ण युज्य के रूप में जुड़ कर 24 मूल गणक बनाते हैं। ये तीन वर्ण निम्न हैं - 
गुरु = 2
इलगा = 12
ईगागा = 22

गणक संकेतक:- गणक के संकेतक में गण के 8 वर्ण प्रयुक्त होते हैं जो क्रमशः य, म, त, र, ज, भ, न और स हैं। पर इन अक्षरों पर क्या मात्रा लगी हुई है, उसीसे गण और विभिन्न गणक की जानकारी मिलती है। जैसे मूल वर्णों में 'ई' कार से गुरु वर्ण तथा 'ऊ' कार से लघु वर्ण जुड़ता है वैसे ही विभिन्न मात्राओं से गणों में 3 गुर्वंत वर्ण (2, 12, 22) जुड़ते हैं।

इस पाठ में त्रीवर्णी 8 गण, गणों में तीन गुर्वंत वर्ण जुड़ उनसे बने 24 मूल गणक तथा साथ ही इन 8 गण और 24 गणों के अंत में लघु वर्ण जुड़ कर उनसे बने वृद्धि गणक की आगे तालिकाएँ दी जा रही हैं। साथ ही गण में ऊलल वर्ण 11 के संयोग की तालिका भी है।

विभिन्न मात्राओं का क्रमवार विवरण निम्न प्रकार से है।

1 - 'अ' तथा 'आ' की मात्रा से 8 गणों के संकेतक दिग्दर्शित किये जाते हैं। जिनका वर्ण विन्यास, संकेतक और गण का नाम निम्न तालिका में है।

122 = य, या = यगण
222 = म, मा = मगण
221 = त, ता = तगण
212 = र, रा = रगण
121 = ज, जा = जगण
211 = भ, भा = भगण
111 = न, ना = नगण
112 = स, सा = सगण

किसी भी छंदा के वर्ण विन्यास के आधार ये 8 गण हैं। इनका सम्यक ज्ञान किसी भी रचनाकार के लिये अत्यंत आवश्यक है। पिंगल शास्त्र के आचार्यों ने इसके लिये एक सूत्र दिया है जिसे प्रत्येक छंद साधक को स्मरण रखना चाहिए। सूत्र है - "यमाताराजभानसलगा"। जिस भी गण का वर्णिक विन्यास जानना हो उसके गणाक्षर और बाद के दो वर्ण का विन्यास देख लें। जगण का विन्यास जभान (121) से तुरंत जाना जा सकता है। सलगा तक 8 गण समाप्त हो जाते हैं। ल लघु का वाचक तथा गा गुरु का वाचक है। वर्ण के संकेत का परिचय पिछले पाठ में दे दिया गया है।

गणों से काव्य-रूप निखरे,
इन्हीं से छंद-शास्त्र पनपे,
गणों का सूत्र ये 'नमन' दे,
'यमी तीरेजु भानु सुलगे'।

यह छंद रूप में है और इस सूत्र को लिखने में इस नये छंद का अस्तित्व में आना भी अनायास हो गया। इस नये छंद को काव्य प्रेमी 'नमन' छंद से स्वीकार करें तो मेरे लिए अत्यंत हर्ष की बात होगी। 'यमी तीरेजु भानु सुलगे' अर्थात संध्या काल है और अस्ताचल जाते सूर्य की जल में झिलमिलाती रश्मियाँ यमी (यमुना) के तट से ऐसे लग रही हैं मानो सूर्य सुलग रहा हो। यह 10 वर्ण प्रति पद का छंद यगण, रगण, नगण, गुरु के विन्यास में है।

छंद रूप में दिये गये इस सूत्र को स्मरण रखना सुगम है। इससे भी प्रत्येक गण का विन्यास जाना जा सकता है।
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2 - 'इ' तथा 'ई' की मात्रा गण में गुरु वर्ण = 2 जोड़ देती है। इस युज्य से प्राप्त 8 चतुष वर्णी गणक ईगक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122+2 = 1222 = यि, यी = ईयग
222+2 = 2222 = मि, मी = ईमग
221+2 = 2212 = ति, ती = ईतग
212+2 = 2122 = रि, री = ईरग
121+2 = 1212 = जि, जी = ईजग
211+2 = 2112 = भि, भी = ईभग
111+2 = 1112 = नि, नी = ईनग
112+2 = 1122 = सि, सी = ईसग

(युग्म वर्ण की नामकरण की परंपरा के अनुसार ही गणक का नाम भी संरचना के अनुसार दिया गया है। 'ईगक' का अर्थ 'ई' कार से गणों में 'ग' यानी गुरु वर्ण जुड़ता है। इसी प्रकार ईयग आदि को समझें। ईयग का अर्थ यगण+गुरु = 1222 जो 'य' में 'ई' कार से दर्शाया जाता है।
****

3 - 'उ' और 'ऊ' की मात्रा गण में इलगा वर्ण  = 12 का संयोग कर देती है। इस युज्य से प्राप्त 8 पंच वर्णी गणक उलगक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122+12 = 12212 = यु, यू = ऊयालग
222+12 = 22212 = मु, मू = ऊमालग
221+12 = 22112 = तु, तू = ऊतालग
212+12 = 21212 = रु, रू = ऊरालग
121+12 = 12112 = जु, जू = ऊजालग
211+12 = 21112 = भु, भू = ऊभालग
111+12 = 11112 = नु, नू = ऊनालग
112+12 = 11212 = सु, सू = ऊसालग
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4 - 'ए' तथा 'ऐ' की मात्रा गण में ईगागा वर्ण = 22 का संयोग कर देती है। इस युज्य से प्राप्त 8 पंच वर्णी गणक एगागक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122+22 = 12222 = ये = एयागग
222+22 = 22222 = मे = एमागग
221+22 = 22122 = ते = एतागग
212+22 = 21222 = रे = एरागग
121+22 = 12122 = जे = एजागग
211+22 = 21122 = भे = एभागग
111+22 = 11122 = ने = एनागग
112+22 = 11222 = से = एसागग
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वृद्धि गणक:- मूल गणक का अंत गुरु से होता है क्योंकि ये गुर्वंत वर्ण के जुड़ने से निर्मित हैं। परंतु किसी भी गुरु वर्ण से अंत होनेवाली छंदा में अंत में लघु वर्ण की वृद्धि कर एक नयी छंदा बनायी जा सकती है। दोनों की लय में बड़ा अंतर आ जाता है। हिन्दी में ऐसे कई बहुप्रचलित छंद भी  हैं। जैसे लावणी छंद और आल्हा छंद। इस ग्रंथ में प्रायः छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदा भी दी गयी हैं।
इस पाठ में अब तक हम 8 गण और 24 मूल गणक सीख चुके हैं।

वृद्धि गणक गण और मूल गणक में लघु वर्ण जुड़ने से बनते हैं। ऊपर हमने 8 गण और 24 मूल गणक की तालिकाओं का अवलोकन किया। लगभग सभी छंद साधक गणों से पहले से ही परिचित हैं। गणाक्षरों में अ, आ की मात्रा से गण का भान होना उनके लिए सामान्य है। इसी परंपरा को थोड़ा आगे बढाने से मूल गणकों के संकेतक का नक्शा भी पाठकों के मस्तिष्क में आसानी से अपनी पैठ जमा लेगा। स्वर क्रम में अकार के पश्चात ईकार, ऊकार और एकार है। गणाक्षर में ईकार से गण मेंं द्विमात्रिक 2 जुड़ता है, ऊकार से त्रिमात्रिक 12 जुड़ता है और एकार से चतुष् मात्रिक 22 जुड़ता है।

इन सब के वृद्धि गणक बनाने में हमें केवल इन्हीं मात्राओं पर अनुस्वार का प्रयोग कर देना है। इन सब की तालिकाएँ भी यहाँ संलग्न है तथा सब की विशिष्टता के लिए संज्ञा भी दी गयी है।

5 - 'अं' की मात्रा गण में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इस संयोग से प्राप्त 8 वृद्धि गणक अंलक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

1221 = यं, यल = अंयल
2221 = मं, मल = अंमल
2211 = तं, तल = अंतल
2121 = रं, रल = अंरल
1211 = जं, जल = अंजल
2111 = भं, भल = अंभल
1111 = नं, नल = अंनल
1121 = सं, सल = अंसल

(कई बार छंदाओं के उच्चारण की सुगमता के लिए अनुस्वार के स्थान पर गण संकेत में 'ल' जोड़ दिया जाता है। जैसे यं और यल एक ही है।)
*****

6 - 'ईं' की मात्रा ईगक गणक में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इसके अतिरिक्त यह गण में ऊगाल वर्ण = 21 का संयोग भी करती है। दोनों का अर्थ और स्वरूप एक ही है। इस संयोग से प्राप्त 8 वृद्धि गणक ईंगालक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

12221 = यीं, यिल = ईंयागल
22221 = मीं, मिल = ईंमागल
22121 = तीं, तिल = ईंतागल
21221 = रीं, रिल = ईंरागल
12121 = जीं, जिल = ईंजागल
21121 = भीं, भिल = ईंभागल
11121 = नीं, निल = ईंनागल
11221 = सीं, सिल = ईंसागल
*****

केवल लघु वर्ण ऐसा है जो गण के साथ साथ मूल गणक में भी जुड़ सकता है। ईगक गणक में लघु के जुड़ने से  इंगालक गणक बनते हैं। ईगक गणक में  गुरु वर्ण जुड़ा हुआ है। इसमें फिर लघु जुड़ने से 21 रूप बना जो कि ऊगाल वर्ण है। परंतु यह लघु वर्ण दो पंच वर्णी मूल गणक उलगक और एगागक में भी जुड़ता है। उलगक में 12 पहले ही जुड़ा हुआ है। इसमें लघु वृद्धि होने से 121 रूप बनता है जो कि जगण है। इसी प्रकार एगागक में 22 पहले ही जुड़ा हुआ है जिसमें लघु वृद्धि होने से 221 रूप बनता है जो कि तगण है। जगण और तगण दो ऐसे गण हैं जो दूसरे गण से युज्य के रूप में जुड़ कर वृद्धि गणक बना सकते हैं। युज्य के रूप में जगण ऊंलिल युज्य कहलाता है और इसका संकेतक लीं है। तगण ऐंगिल युज्य कहलाता है और इसका संकेतक गीं है। इनसे 16 वृद्धि गणक बनते हैं जो निम्न हैं।

7 - 'ऊं' की मात्रा उलगक गणक में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इस ऊंलिल युज्य के संयोग से प्राप्त 8 वृद्धि गणक ऊंलीलक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं। ये षट वर्णी गणक हैं।

122121 = यूं, युल = ऊंयालिल
222121 = मूं, मुल = ऊंमालिल
221121 = तूं, तुल = ऊंतालिल
212121 = रूं, रुल = ऊंरालिल
121121 = जूं, जुल = ऊंजालिल
211121 = भूं, भुल = ऊंभालिल
111121 = नूं, नुल = ऊंनालिल
112121 = सूं, सुल = ऊंसालिल
*****

8 - 'ऐं' की मात्रा एगागक गणक में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इस ऐंगिल युज्य के संयोग से प्राप्त 8 षट वर्णी वृद्धि गणक ऐंगीलक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122221 = यैं, येल = ऐंयागिल
222221 = मैं, मेल= ऐंमागिल
221221 = तैं, तेल = ऐंतागिल
212221 = रैं, रेल = ऐंरागिल
121221 = जैं, जेल = ऐंजागिल
211221 = भैं, भेल = ऐंभागिल
111221 = नैं, नेल = ऐंनागिल
112221 = सैं, सेल = ऐंसागिल
*****

इन 8 तालिकाओं से हमें 8 गण और 24 मूल गणक के रूप में 32 गुच्छक प्राप्त हुये और इन सब के अंत में लघु वर्ण की वृद्धि करने से वृद्धि गणक के रूप में अन्य 32 गुच्छक प्राप्त हो गये।
अब गण में ऊलल वर्ण (11) का संयोग रह गया।यह लघ्वांत वर्ण विशिष्ट वर्ण है। वाचिक स्वरूप में ये दोनों लघु स्वतंत्र लघु की श्रेणी में आते हैं जो लघु रूप में एक शब्द में साथ साथ नहीं आ सकते। मात्रिक और वर्णिक स्वरूप में स्वतंत्र लघु जैसी कोई अवधारणा नहीं है। इन दोनों स्वरूप में ऊलल वर्ण के दोनों लघु सामान्य लघु के रूप में ही व्यवहृत होते हैं जो एक शब्द या दो शब्द में साथ साथ रह सकते हैं। मात्रिक स्वरूप में जैसे दीर्घ वर्ण को दो लघु के रूप में तोड़ा जा सकता है वैसे ऊलल वर्ण के दोनों लघु कभी भी दीर्घ में रूपांतरित नहीं हो सकते।

गण में ऊलल वर्ण का संयोग गणाक्षर में ओकार से प्रगट किया जाता है। इसकी तालिका निम्न है।

9 - अंत में 'ओ' की मात्रा गण में ऊलल वर्ण (11) का संयोग करती है। इस संयोग से प्राप्त 8 गणक ओलालक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

12211 = यो = ओयालल
22211 = मो = ओमालल
22111 = तो = ओतालल
21211 = रो = ओरालल
12111 = जो = ओजालल
21111 = भो = ओभालल
11111 = नो = ओनालल
11211 = सो = ओसालल
*****

इस प्रकार 8 गण, 24 मूल गणक, 32 वृद्धि गणक, 8 ओलालक गणक  मिल कर कुल 72 गुच्छक हैं जो समस्त छंदाओं के आधार हैं। जिन गुच्छक में दो से अधिक लघु एक साथ आये हैं उनमें वाचिक स्वरूप की छंदाएँ इस ग्रंथ में नहीं दी जा रही हैं, क्योंकि ऐसी छंदाओं में तीनों लघु का स्वतंत्र लघु के रूप में प्रयोग करना होगा। वाचिक में स्वतंत्र लघु की अवधारणा है जो 1 की संख्या से दर्शाया जाता है और दो से अधिक स्वतंत्र लघु साधारणतया एक साथ नहीं आते।  परन्तु मात्रिक और वर्णिक छंदाओं में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है। इसके अतिरिक्त ऊंलीलक गणक जिनमें ली+ल (121) जुड़ा हुआ है और ऐंगीलक गणक जिनमें गी+ल (221) जुड़ा हुआ है, विशेष गणक हैं। गण में केवल वर्ण के संयोग से गणक बनते हैं। परन्तु लघु वृद्धि गण के साथ साथ मूल गणक की भी हो सकती है और इस विशेष छूट के कारण ही जगण और तगण युज्य के रूप में गण से जुड़ कर वृध्दि गणक बना सकते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Thursday, October 13, 2022

करवाचौथ मुक्तक

 हरिगीतिका छंद वाचिक



त्योहार करवाचौथ का नारी का है प्यारा बड़ा,
इक चाँद दूजे चाँद को है देखने छत पे खड़ा,
लम्बी उमर इक चाँद माँगे वास्ते उस चाँद के,
जो चाँद उसकी जिंदगी के आसमाँ में है जड़ा।

हरिगीतिका छंद विधान - 

हरिगीतिका छंद चार पदों का एक सम-पद मात्रिक छंद है। प्रति पद 28 मात्राएँ होती हैं तथा यति 16 और 12 मात्राओं पर होती है। यति 14 और 14 मात्रा पर भी रखी जा सकती है।

इसकी भी लय गीतिका छंद वाली ही है तथा गीतिका छंद के प्राम्भ में गुरु वर्ण बढ़ा देने से हरिगीतिका छंद हो जाती है। गीतिका छंद के प्रारंभ में एक गुरु बढ़ा देने से इसका वर्ण विन्यास निम्न प्रकार से तय होता है।

2212  2212  2212  221S

चूँकि हरिगीतिका छंद एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है परंतु 5 वीं, 12 वीं, 19 वीं, 26 वीं मात्रा सदैव लघु होगी। अंत सदैव गुरु वर्ण से होता है। इसे 2 लघु नहीं किया जा सकता। चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत होते हैं।

इस छंद की धुन  "श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन" वाली है।

एक उदाहरण:-
मधुमास सावन की छटा का, आज भू पर जोर है।
मनमोद हरियाली धरा पर, छा गयी चहुँ ओर है।
जब से लगा सावन सुहाना, प्राणियों में चाव है।
चातक पपीहा मोर सब में, हर्ष का ही भाव है।।
(स्वरचित)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Tuesday, October 11, 2022

रचनाकार पत्रिका "विधा विशेषांक"

उड़ियाना छंद

"रचनाकार पत्रिका" के विधा विशेषांक जनवरी 2021 में प्रकाशित मेरी  रचना।



डाउन लोड लिंक:-

https://drive.google.com/file/d/1HAP29TimYShQropDhuTc_mYiV-1HxFMZ/view?usp=drivesdk


बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया 

Thursday, October 6, 2022

ग़ज़ल (हम जहाँ में किसी से कम तो नहीं)

बह्र:- 2122  1212  112/22

हम जहाँ में किसी से कम तो नहीं,
दब के रहने की ही कसम तो नहीं।

आँख दिखला के जीत लेंगे ये दिल,
ये कहीं आपका बहम तो नहीं।

हो भी सकता है इश्क़ जोर दिखा,
सोच भी ले ये वो सनम तो नहीं।

अम्न की बात गोलियों से करें,
आपका नेक ये कदम तो नहीं।

बात कर नफ़रतें मिटा जो सकें,
ऐसा भी आपमें है दम तो नहीं।

सोचिये, इतने बेक़रार हैं क्यों,
आपका ही दिया ये ग़म तो नहीं।

हर्फों से क्या 'नमन' रुला न सके,
इतनी कमजोर भी कलम तो नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-06-19

Sunday, October 2, 2022

दोहा छंद "वयन सगाई अलंकार"

वयन सगाई अलंकार / वैण सगाई अलंकार

चारणी साहित्य मे दोहा छंद के कई विशिष्ट अलंकार हैं, उन्ही में सें एक वयन सगाई अलंकार (वैण सगाई अलंकार) है। दोहा छंद के हर चरण का प्रारंभिक व अंतिम शब्द एक ही वर्ण से प्रारंभ हो तो यह अलंकार सिद्ध होता है।

'चमके' मस्तक 'चन्द्रमा', 'सजे' कण्ठ पर 'सर्प'।
'नन्दीश्वर' तुमको 'नमन', 'दूर' करो सब 'दर्प'।।

'चंदा' तेरी 'चांदनी', 'हृदय' उठावे 'हूक'।
'सन्देशा' पिय को 'सुना', 'मत' रह वैरी 'मूक'।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया