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Sunday, February 21, 2021

पथिक (नवगीत)

जो सदा अस्तित्व से 
अबतक लड़ा है।
वृक्ष से मुरझा के 
पत्ता ये झड़ा है।

चीर कर 
फेनिल धवल 
कुहरे की चद्दर,
अव्यवस्थित से 
लपेटे तन पे खद्दर,
चूमने 
कुहरे में डूबे 
उस क्षितिज को,
यह पथिक 
निर्द्वन्द्व हो कर 
चल पड़ा है।

हड्डियों को 
कँपकँपाती 
ये है भोर,
शांत रजनी सी 
प्रकृति में
है न थोड़ा शोर,
वो भला इन सब से 
विचलित क्यों रुकेगा?
दूर जाने के लिए 
ही जो अड़ा है।

ठूंठ से जो वृक्ष हैं 
पतझड़ के मारे,
वे ही साक्षी 
इस महा यात्रा 
के सारे,
हे पथिक चलते रहो 
रुकना नहीं तुम,
तुमको लेने ही 
वहाँ कोई खड़ा है।

जीव का परब्रह्म में 
होना समाहित,
सृष्टी की धारा 
सतत ये है 
प्रवाहित,
लक्ष्य पाने की ललक 
रुकने नहीं दे,
प्रेम ये 
शाश्वत मिलन का 
ही बड़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-4-17

Wednesday, October 23, 2019

नवगीत (मन-भ्रमर)

मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
पगले डोल।

जिन कलियों को नित चूमे,
जिन पर तुम गुंजार करे,
क्यों मग्न हुआ इतना झूमे,
निश्चित उनका मकरंद झरे,
लो ठीक से तोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

क्षणिक मधु के पीछे भागे,
नश्वर सुख में है तु रमा,
कैसे तेरे भाग हैं जागे,
जो इनमें तु रहा समा,
मन की गाँठें खोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

नव रस के जहाँ पुष्प खिले,
शांत, करुण तो और श्रृंगार,
वात्सल्य कभी तो भक्ति मिले,
तो वीर, हास्य की है फुहार,
जीवन में इनको घोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

छंदों के रंग बिरंगे हैं दल,
रस अनेक भाव के यहाँ भरे,
जीवन यहाँ का निश्छल,
अलंकार सब सन्ताप हरे,
ना इनका कोई मोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-08-2016

Friday, June 7, 2019

नवगीत (भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ)

भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।
बन्द सफलताओं पे पड़े तालों की कुँजी पा जाऊँ।।

विषधर नागों से नेता, सत्ता वृक्षों में लिपटे हैं;
उजले वस्त्रों में काले तन, चमचे उनसे चिपटे हैं;
जनता से पूरे कटकर, सुरा सुंदरी में सिमटे हैं;
चरण वन्दना कर उनकी सत्ता सुख थोड़ा पा जाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

इंजीनियर के बंगलों में, ठेकेदार बन काटूँ चक्कर;
नये नये तोहफों से रखूं, घर आँगन उसका सजाकर;
कुत्तों से उसके करूँ दोस्ती, हाय हलो टॉमी कहकर;
सीमेंट में बालू मिलाने की बेरोकटोक आज्ञा पा जाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

मंत्री के बीवी बच्चों को, नई नई शॉपिंग करवाऊँ;
उसके सेक्रेटरी से लेकर, कुक तक कुछ कुछ भेंट चढाऊँ;
पीक थूकता देख हथेली, आगे कर पीकदान बन जाऊँ;
सप्लाई में बिना दिए कुछ यूँ ही बिल पास करा लाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

बड़े बड़े भर्ती अफसर के, दफ्तर में जा तलवे चाटूँ;
दुम हिलाते कुत्ते सा बन, हाँ हाँ में झूठे सुख दुख बाँटूँ;
इंटरव्यू को झोंक भाड़ में, अच्छी भर्ती खुद ही छाँटूँ;
अकल के अंधे गाँठ के पूरे ऊँचे ओहदों पर बैठाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

मंचों के ओहदेदारों के, अनुचित को उचित बनाऊँ;
चाहे ढपोरशँख भी हो तो, झूठी वाह से 'सूर' बनाऊँ;
पढूँ कसीदे शान में उनकी, हार गले में पहनाऊँ;
नभ में टांगूँ वाहवाही से बदले में कुछ मैं भी पा जाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-06-2016

Saturday, May 11, 2019

नवगीत (कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध)

सुन ओ भारतवासी अबोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

आये दिन करता हड़ताल,
ट्रेनें फूँके हो विकराल,
धरने दे कर रोके चाल,
सड़कों पर लाता भूचाल,
करे देश को तू बदहाल,
और बजाता झूठे गाल,
क्या ये ही तेरा अंतर्बोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

व्यर्थ व्यवस्था के क्या तंत्र,
पड़े रहे क्या बंद संयंत्र,
मौन रहें क्या जीवन-मंत्र,
रुदन मचाये या जन-तंत्र,
मूंद रखो औरों पर नेत्र,
विकसित रख अपना हर क्षेत्र,
क्या बस तेरा यही प्रबोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

बच्चे ढूंढ़ें चाहे जीविका,
झोंपड़ झेलें या विभीषिका,
नारी होती रहे घर्षिता,
सिसके नैतिकता, मानवता,
ओछी कर तू चाटुकारिता,
लज्जाते हो पत्रकारिता,
भूल गया क्या सब अवरोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

हक़ की क्या है यही लड़ाई,
लोकतंत्र की या तरुणाई,
अबतक की क्या यही कमाई,
या अधिकारों की अधिकाई
तू उदण्ड बन कर दंगाई,
संस्कार की करे विदाई,
अबतक का क्या ये ही शोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-01-2019