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Friday, March 12, 2021

रोला छंद "शाम'

रवि को छिपता देख, शाम ने ली अँगड़ाई।
रक्ताम्बर को धार, गगन में सजधज आई।।
नृत्य करे उन्मुक्त, तपन को देत विदाई।
गा कर स्वागत गीत, करे रजनी अगुवाई।।

सांध्य-जलद हो लाल, नृत्य की ताल मिलाए।
उमड़-घुमड़ कर मेघ, छटा में चाँद खिलाए।।
पक्षी दे संगीत, मधुर गीतों को गा कर।
मोहक भरे उड़ान, पंख पूरे फैला कर।।

मुखरित किये दिगन्त, शाम ने नभ में छा कर।
भर दी नई उमंग, सभी में खुशी जगा कर।।
विहग वृन्द ले साथ, करे सन्ध्या ये नर्तन।
अद्भुत शोभा देख, पुलक से भरता तन मन।।

नारी का प्रतिरूप, शाम ये देती शिक्षा।
सम्बल निज पे राख, कभी मत चाहो भिक्षा।।
सूर्य पुरुष मुँह मोड़, त्याग के देता जब चल।
रजनी देख समक्ष, सांध्य तब भी है निश्चल।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-01-2017

Wednesday, February 12, 2020

रोला छंद "बाल-हृदय"

भेदभाव से दूर, बाल-मन जल सा निर्मल।
रहे सदा अलमस्त, द्वन्द्व से होकर निश्चल।।
बालक बालक मध्य, नेह शाश्वत है प्रतिपल।
देख बाल को बाल, हृदय का खिलता उत्पल।।

दो बालक अनजान, प्रीत से झट बँध जाते।
नर, पशु, पक्षी भेद, नहीं कुछ आड़े आते।।
है यह कथा प्रसिद्ध, भरत नृप बालक जब था।
सिंह शावकों संग, खेलता वन में तब था।।

नई चीज को देख, प्रबल उत्कंठा जागे।
जग के सारे भेद, जानने पीछे भागे।।
चंचल बाल अधीर, शांत नहिं हो जिज्ञासा।
हर वह करे प्रयत्न, ज्ञान का जब तक प्यासा।।

बाल हृदय की थाह, बड़ी मुश्किल है पाना।
किस धुन में निर्लिप्त, किसी ने कभी न जाना।।
आसपास को देख, कभी हर्षित ये होता।
फिर तटस्थ हो बैठ, किसी धुन में झट खोता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-02-2017

Wednesday, August 7, 2019

रोला छंद "दो राही"

जग-ज्वाला से दग्ध, पथिक इक था अति व्याकुल।
झूठे रिश्ते नातों के, प्रति भी शंकाकुल।।
मोह-बन्ध सब त्याग, शांति की चला खोज में।
जग झूठा जंजाल, भाव ये मन-सरोज में।1।

नश्वर यह मानव-तन, लख वैराग्य हुआ था।
क्षणभंगुरता पर जग की, नैराश्य हुआ था।।
उसका मन जग-ज्वाल, सदा रहती झुलसाती।
तृष्णा की ये बाढ़, हृदय रह रह बिलखाती।2।

स्वार्थ बुद्धि लख घोर, घृणा के उपजे अंकुर।
ज्ञान मार्ग की राह चले, मन था अति आतुर।।
अर्थी जग की धनसंचयता, से उद्वेलित।
जग की घोर स्वार्थपरता से, मन भी विचलित।3।

बन सन्यासी छोड़, चला वह जग की ज्वाला।
लगा ढूंढने मार्ग, शांति का हो मतवाला।।
परम शांति का एक मार्ग, वैराग्य विचारा।
आत्मज्ञान का अन्वेषण, ही एक सहारा।4।

एक और भी देह, धरा था जग में राही।
मोह और माया के, गुण का ही वह ग्राही।।
वृत्ति स्वार्थ से पूर्ण, सदा उसने अपनाई।
रहता इसमें मग्न, अधम वह कर कुटिलाई।5।

पाप लोभ मद के पथ पर, वह हुआ अग्रसर।
विचरण करता दम्भ क्षोभ, नद के नित तट पर।।
भेद-नीति से सब पर, अपनी धौंस जमाता।
पाशवता के निर्झर से, वह तृषा मिटाता।6।

एकमात्र था लक्ष्य, नित्य ही धन का संचय।
अन्यों का शोषण करना, उसका दृढ़ निश्चय।।
जुल्म अनेकों अपने से, अबलों पर ढ़ाहे।
अन्यों की आहों पर, निर्मित निज गृह चाहे।7।

अंतर इन दोनो पथिकों में, बहुत बड़ा है।
एक चाहता मुक्ति, दूसरा यहीं अड़ा है।।
मोक्ष-मार्ग पहले ने, बन्धन त्यज अपनाया।
पड़ा मोह माया में दूजा, रुदन मचाया।8।

नश्वर जग में धन्यवान, केवल पहले जन।
वृत्ति सुधा सम धार, अमिय मय करते जीवन।।
ज्ञान-रश्मि से वे प्रकाश, जग में फैलाते।
प्रेम-वारि जग उपवन में, वे नित बरसाते।9।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-05-2016

रोला छंद "विधान"

रोला चार चरणों का, प्रत्येक चरण में 24 मात्रा का छंद है। चरणान्त गुरु अथवा 2 लघु से होना आवश्यक है। तुक दो दो चरण में होती है।

कुण्डलिया छंद के कारण रोला बहु प्रचलित छंद है। कुण्डलिया में प्रथम दो पंक्ति दोहा की तथा अंतिम चार पंक्ति रोला की होती है। दोहा का चौथा चरण रोला की प्रथम पंक्ति के आरंभ में पुनरुक्त होता है, अतः रोला की प्रथम यति 11 मात्रा पर होना सर्वथा सिद्ध है। साथ ही इस यति का ताल (2 1) से अंत भी होना चाहिये।

परन्तु अति प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं से देखा गया है कि रोला छंद इस बन्धन में बंधा हुआ नहीं है। रोला बहुत व्यापक छंद है।  भिखारीदास ने छंदार्णव पिंगल में रोला को 'अनियम ह्वै है रोला' तक कह दिया है। रोला छंद 11, 13 की यति में भी बंधा हुआ नहीं है और न ही प्रथम यति का अंत गुरु लघु से होना चाहिये, इस बंधन में। अनेक प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं के आधार पर रोला की मात्रा बाँट  8-6-2-6-2 निश्चित होती है।
8 = अठकल या 2 चौकल।
6 = 3+3 या 4+2 या 2+4
2 = 1 + 1 या 2
यति भी 11, 12, 14, 16 मात्रा पर सुविधानुसार कहीं भी रखी जा सकती है। प्रसाद जी की कामायनी की कुछ पंक्तियाँ देखें।

मैं यह प्रजा बना कर कितना तुष्ट हुआ था,
किंतु कौन कह सकता इन पर रुष्ट हुआ था।
मैं नियमन के लिए बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,
इनको कर एकत्र चलाता नियम बना कर।
रूप बदलते रहते वसुधा जलनिधि बनती,
उदधि बना मरुभूमि जलधि में ज्वाला जलती।
विश्व बँधा है एक नियम से यह पुकार-सी,
फैल गयी है इसके मन में दृढ़ प्रचार-सी।

पर कुण्डलिया छंद में 11, 13 की यति रख कर ही रचना करनी चाहिए। इस छंद में रोला के मान्य रूप को ही रखना चाहिये जो रोला की चारों पंक्ति की प्रथम पंक्ति से अनुरूपता के लिए भी अति आवश्यक है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया