Saturday, July 30, 2022

किशोर छंद "किशोर मुक्तक"

 किशोर छंद (मुक्तक - 1)

एक आसरो बचग्यो थारो, बालाजी।
बेगा आओ काम सिकारो, बालाजी।
जद जद भीड़ पड़ी भकताँ माँ, थे भाज्या।
दोराँ दिन सें आय उबारो, बालाजी।।

किशोर छंद (मुक्तक - 2)

भारी रोग निसड़्लो आयो, कोरोना,
सगलै जग मैं रुदन मचायो, कोरोना,
मिनखाँ नै मिनखाँ सै न्यारा, यो कीन्यो,
कुचमादी चीन्याँ रो जायो, कोरोना।
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किशोर छंद विधान -

किशोर छंद मूल रूप सें एक मात्रिक छंद है जिसमे चार पद समतुकांत होते हैं । प्रत्येक पद में 22 मात्राएँ होती हैं। यति 16 व 6 मात्राओं पर होती है। यदि तीसरे पद को भिन्न तुकांत कर दें तो यही 'किशोर मुक्तक' में परिवर्तित हो जाता है।

इसमें चरणांत मगण 222 से हो तो यह और भी सुंदर हो जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-17

Tuesday, July 26, 2022

मुक्तक "बचपन"

कहाँ बचपन सुहाना छोड़ आया।
वो खुल हँसना हँसाना छोड़ आया।
नहीं कुछ फ़िक्र तब होती थी मन में।
कहाँ आलम पुराना छोड़ आया।।

(1222 1222 122)
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हमको ये मालूम नहीं है, किस्मत हमरी क्यों फूटी है,
जीवन जीने की आशाएँ, बचपन से ही क्यों टूटी है,
सड़कों पर कागज हम बीनें, हँस कर के तुम पढ़ते लिखते,
बसने से ही पहले दुनिया, किसने हमरी यूँ लूटी है।

(22×4//22×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-18

Tuesday, July 19, 2022

गिरिधारी छंद "दृढ़ संकल्प"

खुद पे रख यदि विश्वास चलो।
जग को जिस विध चाहो बदलो।।
निज पे अटल भरोसा जिसका।
यश गायन जग में हो उसका।।

मत राख जगत पे आस कभी।
फिर देख बनत हैं काम सभी।।
जग-आश्रय कब स्थायी रहता।
डिगता जब मन पीड़ा सहता।।

मन-चाह गगन के छोर छुए।
नहिं पूर्ण हृदय की आस हुए।।
मन कार्य करन में नाँहि लगे।
अरु कर्म-विरति के भाव जगे।।

हितकारक निज का संबल है।
पर-आश्रय नित ही दुर्बल है।।
मन में दृढ़ यदि संकल्प रहे।
सब वैभव सुख की धार बहे।।
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गिरिधारी छंद विधान -

"सनयास" अगर तू सूत्र रखे।
तब छंदस 'गिरिधारी' हरखे।।

"सनयास" = सगण, नगण, यगण, सगण।
112  111  122  112 = 12 वर्ण का वर्णिक छंद। चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
8-1-17

Wednesday, July 13, 2022

सुगम्य गीता (प्रथम अध्याय)

प्रथम अध्याय 

धर्म-क्षेत्र कुरुक्षेत्र में, रण-लोलुप एकत्र। 
मेरे अरु उस पाण्डु के, पुत्र किये क्या तत्र ।।१।।

सुन वाणी धृतराष्ट्र की, बोले संजय शांत। 
व्यास देव की दृष्टि से, पूरा कहूँ वृतांत।।२।। 

लख रिपु-दल का मोरचा, दुर्योधन मन भग्न। 
गुरु समीप जा ये कहे, वचन कुटिलता मग्न।।३।।
 
धृष्टद्युम्न को देखिए, खड़ा चमू ले घोर। 
योग्य शिष्य ये आपका, शत्रु-पुत्र मुँह जोर।।४।। 

चाप बड़े धारण किये, खड़े अनेकों वीर। 
अर्जुन भीम विराट से, द्रुपद युधिष्ठिर धीर।।५।। 

महारथी सात्यकि वहाँ, कुन्तिभोज रणधीर। 
पाण्डु-पौत्र सब श्रेष्ठ हैं, पुरजित शैव्य अधीर।।६।। 

अपने में भी कम नहीं, सबका लें संज्ञान। 
पुत्र सहित खुद आप हैं, गंगा-पुत्र महान।।७।। 

सोमदत्त का पुत्र है, कृपाचार्य राधेय। 
और अनेकों वीर हैं, मरना जिनका ध्येय।।८।।

सैना नायक भीष्म से, अजय हमारी सैन्य। 
बड़ बोले उस भीम से, शत्रु अवस्था दैन्य।।९।।

साथ पितामह का सभी, देवें उनको घेर। 
हर्षाने युवराज को, जगा वृद्ध तब शेर।।१०।।
 
शंख बजाया भीष्म ने, बाजे ढ़ोल मृदंग। 
हुआ भयंकर नाद तब, फड़कन लागे अंग।।११।। 

भीषण सुन ये नाद, शंख पाण्डवों के बजे। 
चहुँ दिशि था उन्माद, श्री गणेश हृषिकेश से।।१२।। सोरठा छंद

श्वेत अश्व से युक्त, रथ विशाल कपि केतु युत।। 
पाञ्चजन्य उन्मुक्त, फूंके माधव बैठ रथ।।१३।। सोरठा छंद

पौंड्र बजाया भीम ने, देवदत्त को पार्थ। 
माद्रि-पुत्र अरु ज्येष्ठ भी, शंख बजाए साथ।।१४।। 

उनके सभी महारथी, मिलके शंख बजाय। 
दहल उठे कौरव सभी, भू नभ में रव छाय।।१५।। 

लख कौरव के व्यूह को, बोला तब यूँ पार्थ। 
सैनाओं के मध्य में, रथ हाँको अब नाथ।।१६।। 

हाथों में गांडीव था, मुख से ये उद्गार। 
माधव उनको जान लूँ, करते जो प्रतिकार।।।१७।।
 
भलीभाँति देखूँ उन्हें, परखूँ उनका साज। 
कौन साधने आ गये, दुर्योधन का काज।।१८।। 

भीष्म द्रोण के सामने, झट रथ लाये नाथ। 
लख लो सब को ठीक से, जिनके लड़ना साथ।।१९।। 

आँखों में छाने लगे, सुनते ही माधव वचन। 
चाचा ताऊ भ्रात सब, दादा मामा अरु स्वजन।।२०।। उल्लाला छंद 

श्वसुर और आचार्य थे, पुत्र पौत्र अरु मित्र वर। 
बोले पार्थ विषाद से, अपनों को ही देख कर।।२१।। उल्लाला छंद

हाथ पैर फूलन लगे, देख स्वजन समुदाय। 
जीह्वा तालू से लगी, काँपे सारी काय।।२२।। 

हाथों से गांडीव भी, लगा सरकने मित्र। 
त्वचा बहुत ही जल रही, लगती दशा विचित्र।।२३।। 

लक्षण भी शुभ है नहीं, कारण से अनजाण। 
अपनों को ही मार कर, दिखे नहीं कल्याण।।२४।। 

भोग विजय सुख राज्य का, जीवन में क्या अर्थ। 
जिनके लिए अभीष्ट ये, माने वे ही व्यर्थ।।२५।। 

त्यजूं त्रिलोकी राज्य भी, इनके प्राण समक्ष। 
पृथ्वी के फिर राज्य का, क्यों हो मेरा लक्ष।।२६।। 

बन्धु आततायी अगर, लोभ वृत्ति में चूर। 
त्यज विवेक उनके सदृश, पाप करें क्यों क्रूर।।२७।। 

कुल-वध भीषण पाप है, वे इससे अनजान। 
समझदार हम क्यों न लें, समय रहत संज्ञान।।२८।। 

कुल-क्षय से कुल-धर्म का, सुना नाश है होता। 
धर्म-नाश फिर वंश में, पाप-बीज है बोता।।२९।। मुक्तामणि छंद

अच्युत पाप बिगाड़ता, नारी कुल की सारी। 
वर्ण संकरों को जने, तब ये दूषित नारी।।३०।। मुक्तामणि छंद

पिण्डदान अरु श्राद्ध से, संकर सदा विहीन। 
पितर अधोगति प्राप्त हों, धर्म सनातन क्षीन।।३१।। 

नर्क वास नर वे करें, जिनका धर्म विनष्ट। 
हाय समझ सब क्यों करें, घोर युद्ध का कष्ट।।३२।। 

शस्त्र-हीन उद्यम-रहित, लख वे देवें मार। 
समझ इसे कल्याणकर, करूँ मृत्यु स्वीकार।।३३।। 

राजन ऐसा बोल कर, चाप बाण वह छोड़। 
बैठा रथ के पृष्ठ में, रण से मुख को मोड़।।३४।। 

कृपण विकल लख मित्र तब, बोले कृष्ण मुरार। 
असमय में यह मोह क्यों, ये न आर्य आचार।।३५।। 

कीर्ति स्वर्ग भी ये न दे, तुच्छ हृदय की पीर। 
त्यज मन के दौर्बल्य को, उठो युद्ध कर वीर।।३६।। 

बोले विचलित पार्थ तब, किस विध हो ये युद्ध। 
भीष्म द्रोण हैं पूज्य वर, कैसे लड़ूँ विरुद्ध।।३७।। 

लहु-रंजीत इस राज्य से, भीख माँगना श्रेष्ठ। 
लोभ-प्राप्त को भोगने, क्यूँ मारूँ जो ज्येष्ठ।।३८।। 

युद्ध उचित है या नहीं, या जीतेगा कौन।
मार इन्हें जी क्या करूँ, प्रश्न सभी हैं मौन।।३९।। 

मूढ़ चित्त मैं हो रहा, मुझको दें उपदेश। 
शिष्य बना प्रभु सब हरें, कायर मन के क्लेश।।४०।। 

सुर-दुर्लभ यह राज्य भी, हरे न इंद्रिय-शोक। 
नाथ शरण ले लें मुझे, कातर दीन विलोक।।४१।। 

नहीं लड़ूँ कह कृष्ण से, हुआ मौन तब पार्थ। 
सौम्य हास्य धर तब कहे, तीन लोक के नाथ।।४२।। 

सुगम्य गीता इति प्रथम अध्याय 

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 5-4-2017 रामनवमी के शुभ दिन से प्रारम्भ और 10-4-2017 को 
समापन।


Sunday, July 10, 2022

गाथ छंद "वृक्ष-पीड़ा"

वृक्ष जीवन देते हैं।
नाहिं ये कुछ लेते हैं।
काट व्यर्थ इन्हें देते।
आह क्यों इनकी लेते।।

पेड़ को मत यूँ काटो।
भू न यूँ इन से पाटो।
पेड़ जीवन के दाता।
जोड़ लो इन से नाता।।

वृक्ष दुःख सदा बाँटे।
ये न हैं पथ के काँटे।
मानवों ठहरो थोड़ा।
क्यों इन्हें समझो रोड़ा।।

मूकता इनकी पीड़ा।
काटता तु उठा बीड़ा।
बुद्धि में जितने आगे।
स्वार्थ में उतने पागे।।
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गाथ छंद विधान -

सूत्र राच "रसोगागा"।
'गाथ' छंद मिले भागा।।

"रसोगागा" = रगण, सगण, गुरु गुरु  
212  112  22 = 8 वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
21-03-2017

Wednesday, July 6, 2022

छंदा सागर (प्रस्तावना)

"छंदा सागर" ग्रन्थ

(प्रस्तावना)

हिन्दी छंदों का संसार अत्यंत विशाल है। हिन्दी को अनेकानेक वर्ण वृत्त संस्कृत साहित्य से विरासत में मिले हुये हैं। फिर भक्ति कालीन, रीतिकालीन और अर्वाचीन कवियों ने कल आधारित अनेक नये नये मात्रिक छंदों का निर्माण किया है। समय के साथ साथ ग़ज़ल शैली में उच्चारण के आधार पर वाचिक स्वरूप में छंदों में काव्य सृजन का प्रचलन बढ़ा है। इस प्रकार आज के काव्य सृजकों के पास छंदों की विविधता की कोई कमी नहीं है। आज हमारे पास वर्णिक, मात्रिक और वाचिक रूप में छंदों का विशाल अक्षय कोष है।

मस्तिष्क में एक स्वभाविक सा प्रश्न उठता है कि हिन्दी साहित्य में आखिर इन तीनों स्वरूप के कितने या लगभग कितने छंद होंगे। छंदों के प्रमाणिक ग्रंथ "छंद प्रभाकर" में भानु कवि ने कुल 800 के आसपास वर्णिक और मात्रिक छंदों का सोदाहरण वर्णन किया है। और एक मोटे अनुमान के अनुसार लगभग इतने ही छंद और हो सकते हैं
जिनका नाम और पूर्ण विधान उपलब्ध हो। इस संख्या की तुलना में छंदों की कुल संख्या का उत्तर शायद अधिकांश साहित्य सृजकों की परिकल्पना से बाहर का हो। छंदों के प्राचीन आचार्यों के पिंगल ग्रंथों में कुल छंदों की गणना के सूत्र दिये हुये हैं।

कोई भी वर्ण या तो लघु होगा या दीर्घ होगा। तो एक वर्णी इकाई के दो भेद या छंद-प्रस्तार हुये। इसी प्रकार दो वर्णी इकाई के इसके दुगुने चार होंगे क्योंकि लघु के पश्चात लघु या दीर्घ जुड़ कर 11 या 12 तथा दीर्घ के पश्चात लघु या दीर्घ जुड़ कर 21 या 22 कुल चार छंद-प्रस्तार होंगे। इसी विधान से त्रिवर्णी गण के चार के दुगुने कुल आठ प्रस्तार संभव है और ये आठ प्रस्तार हमारे गण हैं जिन पर समस्त छंदों का संसार टिका है। इसी अनुसार:-
4 वर्ण के 8*2 =16 प्रस्तार
5 वर्ण के 16*2 =32 प्रस्तार
6 वर्ण के 32*2 =64 प्रस्तार
7 वर्ण के 64*2 =128 प्रस्तार
26 वर्ण के छंदों की प्रस्तार के नियम के अनुसार कुल संख्या होगी 6,71,08,864 प्रस्तार

एक वर्णी से लेकर 26 वर्णी तक के छंदों का योग करें तो यह संख्या होगी -
6,71,08,864*2-2 = 13,42,17,726

26 वर्ण तक के छंद सामान्य छंद में आते हैं तथा इससे अधिक के दण्डक छंद कहलाते हैं जो 48 वर्णों तक के मिलते हैं। उनके प्रस्तार की संख्या को छोड़ दें तो ही ठीक है। यह सब वर्णिक छंदों के प्रस्तार हैं।

इसी प्रकार मात्रिक छंदों के प्रस्तार हैं, जिनकी गणना 1,2,3,5,8,13,21,34 के क्रम में बढती है। मात्रिक छंद 32 मात्रा तक के सामान्य की श्रेणी में आते हैं तथा इससे अधिक के दण्डक की श्रेणी में आते हैं। इस विधान के अनुसार 32 मात्रा के मात्रिक छंदों के प्रस्तार की कुल संख्या 35,24,578 है। एक से 32 मात्रा के मात्रिक छंदों का कुल योग करोड़ से भी अधिक आयेगा।

अब आप स्वयं देखलें कि कुल छंदों की संख्या क्या है, कितने छंदों का नामकरण हो चुका है और सभी छंदों का कभी भी नामकरण संभव है क्या।
इन प्रस्तार के नियमों का विश्लेषण करने से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि वर्णिक और मात्रिक छंदों में लघु दीर्घ वर्णों का जो भी क्रम संभव है वह अपने आप में छंद है। छंद कहलाने के लिये किसी विशेष वर्ण-क्रम का होना छंद शास्त्र में कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है। लघु दीर्घ का कोई भी क्रम 1 से 26 तक की वर्ण संख्या में सामान्य वर्णिक और 1 से 32 तक की मात्रा संख्या में सामान्य मात्रिक छंद कहलाता है। 

अब ऐसा कोई भी क्रम जिसका नामकरण नहीं हुआ है, प्रचलन में नहीं आया है उसे कवि लोग नाम दे कर, यति आदि सुनिश्चित कर, उसमें रचनाएँ लिख कर प्रचलन में लाते हैं और वह यदि प्रचलित हो गया तो कालांतर में नया छंद बन जाता है।

प्रस्तुत ग्रंथ में सैंकड़ों मात्रिक व वर्णिक छंदों की गहराई में उतरते हुये उन छंदों की संरचना के आधार पर उस छंद का ऐसा नामकरण किया गया है कि उस नाम में ही उस छंद का पूरा विधान छिपा है। नाम के एक एक अक्षर का विश्लेषण करने से छंद का पूरा विधान स्पष्ट हो जाएगा।

उदाहरणार्थ विधाता छंद एक बहु प्रचलित और लोकप्रिय छंद है। गणों के अनुसार इसकी संरचना यगण, रगण, तगण, मगण, यगण तथा गुरु वर्ण है। 
'यरातामायगा' राखो विधाता छंद को पाओ।

गण विधान के अनुसार विधाता छंद का सूत्र 'यरातामायगा' है जिसमें छंद की संरचना आबद्ध है। इस पुस्तक में जो अवधारणा मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूँ उसके अनुसार विधाता छंद का नाम होगा "यीचा" जिसमें छंद का पूरा विधान छिपा है। 
साथ ही यीचा से यह भी पता चलता है कि इसे वर्णिक, मात्रिक या वाचिक किसी भी स्वरूप में लिख सकते हैं।

हिन्दी भाषा के छंदों के विशाल भंडार को एक गुलदस्ते में सजाकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। प्रस्तुत पुस्तक में छंदों के तीन वर्ग - वर्णिक, मात्रिक, वाचिक स्वरूप का संयोजन कर हर छंद की एक छंदा बना कर दी गयी है। इसीलिए इस ग्रन्थ का बहुत ही सार्थक नाम "छंदा-सागर" दिया गया है। छंदा एक परिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदा से संबन्धित पाठ में इसकी विस्तृत विवेचना की गयी है। इस ग्रंथ की पाठ्य सामग्री विभिन्न पाठों में संकलित की गयी है।

किसी भी छंदा की संरचना के अनुसार नामकरण की प्रणाली हिन्दी के लिये बिल्कुल नयी है। जिसने भी कुछ प्रयास से इस पूरी प्रणाली को, अवधारणा को ठीक से समझ लिया है उसके सामने छंदा का नाम आते ही उस से संबन्धित छंद की संरचना का पूरा खाका आँखों के सामने छा जाएगा।

प्रारंभ में कुछ धैर्य की अपेक्षा है। पूरा विधान अपनी गण आधारित प्रणाली पर ही टिका हुआ है, इसलिये समझने में बहुत सरल है। बस थोड़े से धैर्य के साथ ग्रंथ को आद्यांत पढ़ने का है। छंद प्रेमी ग्रंथ से बिल्कुल भी निराश नहीं होंगे। उन्हें अनेकों नये नये मात्रिक व वर्णिक छंद प्राप्त होने वाले हैं। इस ग्रंथ में सैंकड़ों प्रचलित और ऐसे छंद मिलेंगे जिनका नामकरण हो चुका है और उससे कई गुणा अधिक ऐसे अनाम छंद मिलेंगे जिनकी संरचना का आधार प्रचलित छंदों की संरचना ही है। जिस भी छंद का नाम मेरे संज्ञान में आया है उस छंद का नाम उस की छंदा के नाम के साथ साथ कोष्ठक में दिया गया है।

इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि छंदा का नाम छोटा सा तथा स्मरण रखने योग्य हो। छंदा का नाम संरचना के आधार पर है अतः यह सार्थक शब्द हो ऐसा संभव नहीं है। जैसे 'यरातामायगा' कोई सार्थक शब्द नहीं है वैसे ही अभी तो 'यीचा' भी कोई सार्थक शब्द नहीं है। परन्तु यीचा नाम अपने लघुरूप के कारण याद रखने में अत्यंत सुगम है।

मेरा यह प्रयास आज के रचनाकारों, समालोचकों और प्रबुद्ध पाठकों के लिये कुछ भी सहायक सिद्ध होता है, उनका चित्त रंजन करने वाला होता है, उन्हें कुछ नवीनता प्रदान करता है तो मैं इसे सार्थक समझूँगा।

जहाँ तक मुझसे संभव हो सका है छंदों के मान्य विधान को ही प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है फिर भी  कोई त्रुटि या मतांतर हो तो पाठकगण मुझे संबोधित करने का अनुग्रह करें।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-01-2020

Tuesday, July 5, 2022

उड़ियाना छंद 'विरह'

क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया।
मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।।
सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया।
छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।।

गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया।
झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।।
ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया।
विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।।

तेरे बिन शुष्क हुई, जीवन की बगिया।
बेसुर में बाज रही, बैन की मुरलिया।।
सुनने को विकल श्रवण, तेरी पायलिया।
तेरी ही बाट लखे, सूनी ये कुटिया।।

विरहा की आग जले, कटत न अब रतिया।
रह रह मन उठत हूक, धड़कत है छतिया।।
'नमन' तुझे भेज रहा, अँसुवन लिख पतिया।
बेगी अब आय मिलो, सुन मन की बतिया।।
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उड़ियाना छंद विधान -

उड़ियाना छंद 22 मात्रा का सम मात्रिक छंद है। यह प्रति पद 22 मात्रा का छंद है। इस में 12,10 मात्रा पर यति विभाजन है। यति से पहले त्रिकल आवश्यक।

मात्रा बाँट :- 6+3+3, 6+1+1+2 (S) 

(त्रिकल के तीनों रूप (21, 12, 111) मान्य। अंत सदैव दीर्घ वर्ण से। चार पद, दो दो पद समतुकांत या चारों पद समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
14-03-18