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Saturday, December 24, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -२)

जनक आदि ने कर्म से, प्राप्त किया निर्वाण। 
श्रेष्ठ जनों का आचरण, जग में सदा प्रमाण।।२२।। 

तुम भी बनो उदाहरण, जग समक्ष हे पार्थ। 
जन-हित की रख भावना, कर्म करो लोकार्थ।।२३।। 

मुझ ईश्वर का विश्व में, शेष न कछु कर्त्तव्य।
प्राप्तनीय भी कुछ नहीं, कर्म करूँ पर दिव्य।।२४।।

सावधान हो मैं न यदि, रहूँ कर्म संलग्न। 
छिन्न भिन्न कर जग करूँ, लोक-आचरण भग्न।।२५।। 

लोक-मान्यता ध्यान रख, ज्ञानी का हो आचरण।
लोगों पर डाले न वो, बुद्धि-भेद का आवरण।।२६।। उल्लाला छंद

करे स्वयं कर्त्तव्य अरु, प्रेरित अन्यों को करे।
अज्ञानी आसक्त की, मन की दुविधा वो हरे।।२७।। उल्लाला 

प्रकृति जनित गुण से हुवे, कर्म सृष्टि के सारे।
अहम् भाव से मूढ़ पर, कर्ता खुद को धारे।।२८।। मुक्तामणि छंद 

त्रीगुणाश्रित ये सृष्टि है, कर्म गुणों में अटके। 
गुण ही कारण कार्य गुण, जो जाने नहिँ भटके।।२९।। मुक्तामणि छंद 

गुण अरु कर्म रहस्य से, जो नर हैं अनभिज्ञ। 
ऐसे गुण-सम्मूढ़ को, विचलित करे न विज्ञ।।३०।।
 
त्यज ममत्व आशा सभी, दोष-दृष्टि सन्ताप। 
सौंप कर्म सब ही मुझे, युद्ध करो निष्पाप।।३१।। 

मुझमें देखे दोष जो, सभी ज्ञान से भ्रष्ट। 
यह मत जो मानें नहीं, उनको समझो नष्ट।।३२।। 

परवश सभी स्वभाव के, विज्ञ न भी अपवाद। 
क्या इसमें फिर कर सके, निग्रह दमन विषाद।।३३।। 

सुख से सब को राग है, दुख से सब को द्वेष।
बाधा दे कल्याण में, दोनों का परिवेश।।३४।। 

अनुपालन निज धर्म का, उत्तम यध्यपि हेय। 
मरना भी इसमें भला, अन्य धर्म भय-देय।।३५।।

क्यों फिर हे माधव! कहो, पापों में नर मग्न।
बल से ज्यों उसको किया, बिन इच्छा संलग्न।।३६।।

देत रजोगुण कामना, उससे जन्मे क्रोध।
पार्थ परम वैरी समझ, दोनों का अवरोध।।३७।।

गर्भ अग्नि दर्पण ढके, जेर धूम्र अरु मैल।
त्यों विवेक अरु ज्ञान को, ढकता तृष्णा-शैल।।३८।।

अनल रूप यह कामना, कभी न जो हो शांत।
ज्ञानी जन के ज्ञान को, सदा रखे यह भ्रांत।।३९।।

इन्द्रिय मन अरु बुद्धि में, रहे काम का वास।
तृष्णा इनसे ही करे, ज्ञान मनुज का ह्रास।।४०।।

इन्द्रिय की गति साध, सभी दुख की प्रदायिनी।
प्रथम कामना मार, ज्ञान विज्ञान नाशिनी।।४१।। रोला छंद

तन से इन्द्रिय सूक्ष्म, इन्द्रियों से फिर मन है।
मन से पर है बुद्धि, अंत में आत्म-मनन है।।४२।। रोला

आत्म तत्व पहचान, हृदय में कर के मंथन।
अपने को तू तोल, काम-रिपु का कर मर्दन।।४३।। रोला

इति तृतीय अध्याय 

रचयिता :
बासुदेव अग्रवाल 


Saturday, October 29, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'प्रथम भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -१)

श्रेयस्कर यदि कर्म से, आप मानते ज्ञान। 
फिर क्यों झोंकें घोर रण, जो है कर्म प्रधान।।१।। 

समझ न पाया ठीक से, कर्म श्रेय या बुद्धि।
निश्चित कर प्रभु कीजिए, भ्रम से मन की शुद्धि।।२।। 

अर्जुन के सुन कर वचन, बोले श्री भगवान। 
दो निष्ठा संसार में, जिन्हें पुरातन जान।।३।। 

ज्ञानयोग से सांख्य की, हुवे साधना पार्थ। 
निष्ठा जुड़ती योग की, कर्मयोग के साथ।।४।। 

प्राप्त न हो निष्कर्मता, बिना कर्म प्रारम्भ। 
कर्म-त्याग नहिं सिद्धि दे, देवे हठ अरु दम्भ।।५।। 

कर्म रहित नहिं हो सके, मनुज किसी भी काल।
कर्म हेतु करता विवश, प्रकृति जनित गुण जाल।।६।। 

इन्द्रिन्ह हठ से रोक शठ, बैठे बगुले की तरह।
भोगे मन से जो विषय, मिथ्याचारी मूढ़ वह।।७।। उल्लाला 

वश में कर संकल्प से, सभी इन्द्रियाँ धैर्य धर।
कर्मेन्द्रिय से जो करे, कर्मयोग वह श्रेष्ठ नर।।८।। उल्लाला 

शास्त्र विहित कर्त्तव्य कर, यह अकर्म से श्रेष्ठ।
जीवन का निर्वाह भी, कर्म बिना न यथेष्ठ।।९।। 

यज्ञ हेतु नहिं कर्म जो, कर्म-बन्ध दे पार्थ। 
जग के नित कल्याण हित, यज्ञ-कर्म लो हाथ।।१०।। 

यज्ञ सहित रच कर प्रजा, ब्रह्मा रचे विधान। 
यज्ञ तुम्हें करते रहें, इच्छित भोग प्रदान।।११।। 

करो यज्ञ से देवता, सब विध तुम सन्तुष्ट। 
यूँ ही वे तुमको करें, धन वैभव से पुष्ट।।१२।। 

बढ़े परस्पर यज्ञ से, मेल जोल के भाव। 
इससे उन्नत सृष्टि हो, चहुँ दिशि होय उछाव।।१३।। 

यज्ञ-पुष्ट ये देवता, बिन माँगे सब देय। 
देव-अंश राखे बिना, भोगे वो नर हेय।।१४।। 

अंश सभी का राख जो, भोगे वह अघ-मुक्त। 
देह-पुष्टि स्वारथ पगी, सदा पाप से युक्त।।१५।। 

प्राणी उपजें अन्न से, बारिस से फिर अन्न। 
वर्षा होती यज्ञ से, यज्ञ कर्म-उत्पन्न।।१६।। 

कर्म सिद्ध हों वेद से, अक्षर-उद्भव वेद। 
अतः प्रतिष्ठित यज्ञ में, शाश्वत ब्रह्म अभेद।।१७।। 

चलें सभी इस भाँति, सृष्टि चक्र प्रचलित यही।
जरा न उनको शांति, भोगों में ही जो पड़े।।१८।।सोरठा 

छोड़ राग अरु द्वेष, अपने में ही तृप्त जो। 
करना कुछ नहिं शेष, आत्म-तुष्ट नर के लिए।।१९।।सोरठा छंद

कुछ न प्रयोजन कर्म में, आत्म-तुष्ट का पार्थ। 
नहीं प्राणियों में रहे, लेश मात्र का स्वार्थ।।२०।। 

अतः त्याग आसक्ति सब, सदा करो कर्त्तव्य। 
ऐसे ही नर श्रेष्ठ का, परम धाम गन्तव्य।।२१।। 

इति सुगम्य गीता तृतीय अध्याय (भाग - 1)

रचयिता
बासुदेव अग्रवाल नमन 


Wednesday, September 7, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

द्वितीय अध्याय (भाग -२)

नष्ट न करे प्रयत्न ये, होय न कुछ प्रतिकूल। 
स्वल्प साधना बुद्धि की, हरे मृत्यु की शूल।।२६।। 

एक बुद्धि इस योग में, निश्चित हो कर रहती। 
अस्थिर मन में बुद्धि की, कई तरंगें बहती।।२७।। मुक्तामणि छंद

इच्छाओं में चूर जो, करके शास्त्र सहायी। 
कर्म करे ठहरा उचित, निम्न भोग फल दायी।।२८।। मुक्तामणि छंद

त्रिगुणाश्रित फल वेद दे, ऊँचा उठ तू पार्थ। 
चाह न कर अप्राप्य की, रहे प्राप्य कब साथ।।२९।। 

चित्त लगा उस नित्य में, जो जल-पूर्ण तड़ाग। 
गड्ढों से बाहर निकल, क्षुद्र कामना त्याग।।३०।। 

कर्म सदा अधिकार में, फल न तुम्हारे हाथ। 
त्यज तृष्णा फल-हेतु जो, त्यज न कर्म का साथ।।३१।। 

सफल-विफल में सम रहो, ये समता ही योग। 
योगास्थित हो कर्म कर, तृष्णा का त्यज रोग।।३२।। 

बुद्धि-योग बिन कर्म सब, निम्न कोटि के जान। 
आश्रय ढूँढो बुद्धि में, दीन फलाशा मान।।३३।। 

पाप-पुण्य के फेर से, बुद्धि-युक्त है मुक्त। 
समता से ही कर्म सब, होते कौशल युक्त।।३४।। 

बुद्धि मुक्त जब मोह के, होती झंझावात से। 
मानव मन न मलीन हो, सुनी सुनाई बात से।।३५।। उल्लाला छंद

कर्मों से फल प्राप्त जो, बुद्धि-युक्त त्यज कर उसे।
जन्म-मरण से मुक्त हो, परम धाम में जा बसे।।३६।। उल्लाला छंद

भाँति भाँति के सुन वचन, भ्रमित बुद्धि जो पार्थ।
थिर जब हो वह आत्म में, मिले योग का साथ।।३७।। 

क्या लक्षण, बोले, चले, बैठे जो थिर प्रज्ञ। 
चार प्रश्न सुन पार्थ के, बोले स्वामी यज्ञ।।३८।। 

मन की सारी कामना, त्यागे नर जिस काल। 
तुष्ट स्वयं में जो रहे, थिर-धी बिरला लाल।।३९।। 

सुख में कोउ न लालसा, दुःख न हो उद्विग्न। 
राग क्रोध भय मुक्त जो, वो नर थिर-धी मग्न।।४०।। 

स्नेह-रहित सर्वत्र जो, मिले शुभाशुभ कोय। 
प्रीत द्वेष उपजे नहीं, नर वो थिर-धी होय।।४१।। 

विषय-मुक्त कर इन्द्रियाँ, कच्छप जैसे अंग। 
हर्षित मन थिर-धी रहे, आशु-बुद्धि के संग।।४२।। 

इन्द्रिय संयम से भले, होते विषय निवृत्त, 
सूक्ष्म चाह फिर भी रहे, मिटे तत्त में चित्त।।४३।। 

बहुत बड़ी बलवान, पीड़ादायी इन्द्रियाँ। 
यत्नशील धीमान, का भी मन बल से हरे।।४४।। सोरठा छंद 

मेरे आश्रित बैठ, वश कर सारी इन्द्रियाँ। 
जिसकी मुझ में पैठ, थिर-मति जग उसको कहे।।४५।। सोरठा छंद

विषय-ध्यान आसक्ति दे, फिर ये बाढ़े कामना। 
पूर्ण कामना हो न जब, हुवे क्रोध से सामना।।४६।। उल्लाला छंद

मूढ़ चित्त हो क्रोध से, उससे स्मृति-भ्रम होय फिर।
बुद्धि-नाश भ्रम से हुवे, अंत पतन के गर्त गिर।।४७।। उल्लाला छंद

राग द्वेष से जो रहित, इन्द्रिय-जयी प्रवीन। 
विषय-भोग उपरांत भी, चिरानन्द में लीन।।४८।। 

धी-अयुक्त में भावना, का है सदा अभाव। 
शांति नहीं इससे मिले, मिटे न भव का दाव।।४९।। 

मन जिस इन्द्रिय में रमे, वही हरे फिर बुद्धि। 
उस अयुक्त की फिर कहो, किस विध मन की शुद्धि।।५०।। 

अतः महाबाहो उसे, थिर-धी नर तुम जान। 
जिसने अपनी इन्द्रियाँ, वश कर राखी ठान।।५१।। 

जो सबकी है रात, संयमी उस में जागे। 
जिसमें जागे लोग, निशा लख साधु न पागे।।५२।। रोला छंद 

सागर फिर भी शांत, समाती नदियाँ इतनी। 
निर्विकार त्यों युक्त, कामना घेरें जितनी।।५३।। रोला छंद

सभी कामना त्याग, अहम् अभिलाषा ममता।
विचरै जो स्वच्छंद, शांति अरु पाता समता।।५४।। रोला छंद 

ये ब्राह्मी स्थिति पार्थ, पाय नर हो न विमोहित। 
सफल करे वो अंत, ब्रह्म में होय समाहित।।५५।। रोला छंद 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -२)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 14-4-2017 से प्रारम्भ और 17 -4-2017 को समापन)



Friday, August 26, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'प्रथम भाग')

 द्वितीय अध्याय (भाग -१)

मृत या मरणासन्न पर, आह नहीं पण्डित भरे।
शोक-योग्य दोनों नहीं, बात ज्ञानियों सी करे।।१।।
उल्लाला छंद

तुम मैं या ये भूप सब, वर्तमान हर काल में। 
रहने वाले ये सदा, आगे भी हर हाल में।।२।। उल्लाला छंद

तीन अवस्था देह को, जैसे होती प्राप्त। 
देही को तन त्यों मिले, मोह हृदय क्यों व्याप्त।।३।। 

आते जाते ही रहें, विषयों के संयोग। 
सहन करो सम भाव से, सुख-दुख योग-वियोग।।४।। 

सुख-दुख में जो सम रहे, होय विषय निर्लिप्त।
पार करे आवागमन, मोक्ष-अमिय से तृप्त।।५।। 

सत की सत्ता सर्वदा, असत न स्थाई होय। 
तत्त्वों के इस सार को, सके न लख हर कोय।।६।। 

अविनाशी उसको समझ, जिससे यह सब व्याप्त।
शाश्वत अव्यय नाश को, कभी न होता प्राप्त।।७।। 

परे प्रमाणों से सखा, आत्म तत्त्व को जान। 
देह असत सत आतमा, करो युद्ध मन ठान।।८।। 

मरे न ये मारे कभी, षट छूये न विकार। 
नित शाश्वत अज अरु अमर, इसको सदा विचार।।९।। 

नये वस्त्र पहने यथा, लोग पुराने छोड़। 
देही नव तन से तथा, नाता लेता जोड़।।१०।। 

कटे नहीं ये शस्त्र से, जला न सकती आग। 
शुष्क पवन से ये न हो, जल की लगे न लाग।।११।। 

शोक करो तुम त्यक्त, इस विध लख इस आत्म को। 
अविकारी अव्यक्त, चिंतन पार न पा सके।।१२।। सोरठा छंद

मन में लो यदि धार, जन्म मरण धर्मी इसे। 
फिर भी करो विचार, शोभनीय क्या शोक यह।।१३।। सोरठा छंद

जन्म बाद मरना अटल, पुनर्जन्म त्यों जान। 
मान इसे त्यज शोक को, नर-वश ये न विधान।।१४।। 

प्रकट न ये नृप आदि में, केवल अभी समक्ष।
होने वाले लुप्त ये, फिर क्यों भीगे अक्ष।।१५।। 

कहे सुने देखे इसे, ज्ञानी अचरज मान। 
सुन कर भी कुछ मोह में, इसे न पाये जान।।१६।। 

आत्म तत्त्व हर देह का, नित अवध्य है पार्थ। 
मोह त्याग निर्द्वन्द्व हो, कैसा नाता स्वार्थ।।१७।। 

क्षत्रिय का सबसे बड़ा, धर्म-युद्ध है कर्म। 
धर्म दुहाई व्यर्थ है, युद्ध तुम्हारा धर्म।।१८।। 

भाग्यवान तुम हो बड़े, स्वयं मिला जो युद्ध। 
स्वर्ग-द्वार को मोह से, करो न तुम अवरुद्ध।।१९।। 

युद्ध-विमुखता पार्थ ये, करे कीर्ति का नाश। 
क्षात्र-धर्म के त्याग से, मिले पाप की पाश।।२०।। 

अर्जित तूने कर रखा, जग में नाम महान। 
होगी जब आलोचना, नहीं रहे वो मान।।२१।। 

रण-कौशल तेरा रहा, सदा सूर्य सा दिप्त। 
उसमें ग्रहण लगा रहे, भय में हो कर लिप्त।।२२।। 

मृत्यु मिले या जय मिले, उभय लाभ के काज।
एक स्वर्ग दे दूसरा, भू मण्डल का राज।।२३।। 

हार-जीत सुख-दुःख को, एक बराबर मान। 
युद्ध करो सब त्याग कर, पाप पुण्य का भान।।२४।। 

आत्मिक विषयक सांख्य का, अबतक दीन्हा ज्ञान। 
बुद्धि-योग अब दे तुझे, कर्म-बन्ध से त्रान।।२५।। 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -१)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 11-4-2017 से प्रारम्भ और 14 -4-2017 को समापन)


Wednesday, July 13, 2022

सुगम्य गीता (प्रथम अध्याय)

प्रथम अध्याय 

धर्म-क्षेत्र कुरुक्षेत्र में, रण-लोलुप एकत्र। 
मेरे अरु उस पाण्डु के, पुत्र किये क्या तत्र ।।१।।

सुन वाणी धृतराष्ट्र की, बोले संजय शांत। 
व्यास देव की दृष्टि से, पूरा कहूँ वृतांत।।२।। 

लख रिपु-दल का मोरचा, दुर्योधन मन भग्न। 
गुरु समीप जा ये कहे, वचन कुटिलता मग्न।।३।।
 
धृष्टद्युम्न को देखिए, खड़ा चमू ले घोर। 
योग्य शिष्य ये आपका, शत्रु-पुत्र मुँह जोर।।४।। 

चाप बड़े धारण किये, खड़े अनेकों वीर। 
अर्जुन भीम विराट से, द्रुपद युधिष्ठिर धीर।।५।। 

महारथी सात्यकि वहाँ, कुन्तिभोज रणधीर। 
पाण्डु-पौत्र सब श्रेष्ठ हैं, पुरजित शैव्य अधीर।।६।। 

अपने में भी कम नहीं, सबका लें संज्ञान। 
पुत्र सहित खुद आप हैं, गंगा-पुत्र महान।।७।। 

सोमदत्त का पुत्र है, कृपाचार्य राधेय। 
और अनेकों वीर हैं, मरना जिनका ध्येय।।८।।

सैना नायक भीष्म से, अजय हमारी सैन्य। 
बड़ बोले उस भीम से, शत्रु अवस्था दैन्य।।९।।

साथ पितामह का सभी, देवें उनको घेर। 
हर्षाने युवराज को, जगा वृद्ध तब शेर।।१०।।
 
शंख बजाया भीष्म ने, बाजे ढ़ोल मृदंग। 
हुआ भयंकर नाद तब, फड़कन लागे अंग।।११।। 

भीषण सुन ये नाद, शंख पाण्डवों के बजे। 
चहुँ दिशि था उन्माद, श्री गणेश हृषिकेश से।।१२।। सोरठा छंद

श्वेत अश्व से युक्त, रथ विशाल कपि केतु युत।। 
पाञ्चजन्य उन्मुक्त, फूंके माधव बैठ रथ।।१३।। सोरठा छंद

पौंड्र बजाया भीम ने, देवदत्त को पार्थ। 
माद्रि-पुत्र अरु ज्येष्ठ भी, शंख बजाए साथ।।१४।। 

उनके सभी महारथी, मिलके शंख बजाय। 
दहल उठे कौरव सभी, भू नभ में रव छाय।।१५।। 

लख कौरव के व्यूह को, बोला तब यूँ पार्थ। 
सैनाओं के मध्य में, रथ हाँको अब नाथ।।१६।। 

हाथों में गांडीव था, मुख से ये उद्गार। 
माधव उनको जान लूँ, करते जो प्रतिकार।।।१७।।
 
भलीभाँति देखूँ उन्हें, परखूँ उनका साज। 
कौन साधने आ गये, दुर्योधन का काज।।१८।। 

भीष्म द्रोण के सामने, झट रथ लाये नाथ। 
लख लो सब को ठीक से, जिनके लड़ना साथ।।१९।। 

आँखों में छाने लगे, सुनते ही माधव वचन। 
चाचा ताऊ भ्रात सब, दादा मामा अरु स्वजन।।२०।। उल्लाला छंद 

श्वसुर और आचार्य थे, पुत्र पौत्र अरु मित्र वर। 
बोले पार्थ विषाद से, अपनों को ही देख कर।।२१।। उल्लाला छंद

हाथ पैर फूलन लगे, देख स्वजन समुदाय। 
जीह्वा तालू से लगी, काँपे सारी काय।।२२।। 

हाथों से गांडीव भी, लगा सरकने मित्र। 
त्वचा बहुत ही जल रही, लगती दशा विचित्र।।२३।। 

लक्षण भी शुभ है नहीं, कारण से अनजाण। 
अपनों को ही मार कर, दिखे नहीं कल्याण।।२४।। 

भोग विजय सुख राज्य का, जीवन में क्या अर्थ। 
जिनके लिए अभीष्ट ये, माने वे ही व्यर्थ।।२५।। 

त्यजूं त्रिलोकी राज्य भी, इनके प्राण समक्ष। 
पृथ्वी के फिर राज्य का, क्यों हो मेरा लक्ष।।२६।। 

बन्धु आततायी अगर, लोभ वृत्ति में चूर। 
त्यज विवेक उनके सदृश, पाप करें क्यों क्रूर।।२७।। 

कुल-वध भीषण पाप है, वे इससे अनजान। 
समझदार हम क्यों न लें, समय रहत संज्ञान।।२८।। 

कुल-क्षय से कुल-धर्म का, सुना नाश है होता। 
धर्म-नाश फिर वंश में, पाप-बीज है बोता।।२९।। मुक्तामणि छंद

अच्युत पाप बिगाड़ता, नारी कुल की सारी। 
वर्ण संकरों को जने, तब ये दूषित नारी।।३०।। मुक्तामणि छंद

पिण्डदान अरु श्राद्ध से, संकर सदा विहीन। 
पितर अधोगति प्राप्त हों, धर्म सनातन क्षीन।।३१।। 

नर्क वास नर वे करें, जिनका धर्म विनष्ट। 
हाय समझ सब क्यों करें, घोर युद्ध का कष्ट।।३२।। 

शस्त्र-हीन उद्यम-रहित, लख वे देवें मार। 
समझ इसे कल्याणकर, करूँ मृत्यु स्वीकार।।३३।। 

राजन ऐसा बोल कर, चाप बाण वह छोड़। 
बैठा रथ के पृष्ठ में, रण से मुख को मोड़।।३४।। 

कृपण विकल लख मित्र तब, बोले कृष्ण मुरार। 
असमय में यह मोह क्यों, ये न आर्य आचार।।३५।। 

कीर्ति स्वर्ग भी ये न दे, तुच्छ हृदय की पीर। 
त्यज मन के दौर्बल्य को, उठो युद्ध कर वीर।।३६।। 

बोले विचलित पार्थ तब, किस विध हो ये युद्ध। 
भीष्म द्रोण हैं पूज्य वर, कैसे लड़ूँ विरुद्ध।।३७।। 

लहु-रंजीत इस राज्य से, भीख माँगना श्रेष्ठ। 
लोभ-प्राप्त को भोगने, क्यूँ मारूँ जो ज्येष्ठ।।३८।। 

युद्ध उचित है या नहीं, या जीतेगा कौन।
मार इन्हें जी क्या करूँ, प्रश्न सभी हैं मौन।।३९।। 

मूढ़ चित्त मैं हो रहा, मुझको दें उपदेश। 
शिष्य बना प्रभु सब हरें, कायर मन के क्लेश।।४०।। 

सुर-दुर्लभ यह राज्य भी, हरे न इंद्रिय-शोक। 
नाथ शरण ले लें मुझे, कातर दीन विलोक।।४१।। 

नहीं लड़ूँ कह कृष्ण से, हुआ मौन तब पार्थ। 
सौम्य हास्य धर तब कहे, तीन लोक के नाथ।।४२।। 

सुगम्य गीता इति प्रथम अध्याय 

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 5-4-2017 रामनवमी के शुभ दिन से प्रारम्भ और 10-4-2017 को 
समापन।


Wednesday, May 11, 2022

सुगम्य गीता "अवतरणिका"

 सुगम्य गीता
"अवतरणिका"

कृष्ण भाव की रास, थामें मन-रथ बैठ कर।
'बासुदेव' की आस, पूर्ण करें बसुदेव-सुत।।

व्यास देव दें दृष्टि, काव्य रचूँ कल्याणकर।
करें भाव की वृष्टि, ग्रन्थ बने ये शोक हर।।

बना शारदे वास, मन मन्दिर में पैठ कर।
विनती करता दास, 'बासुदेव' कर जोड़ कर।।

 "शारदा वंदना"

कलुष हृदय में वास बना माँ,
श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।
शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,
अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।

शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,
मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।
वीण-वादिनी स्वर लहरी से,
मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।

मन उपवन में हे माँ मेरे,
कविता पुष्प प्रस्फुटित होंवे ।
मन में मेरे नव भावों के,
अंकुर सदा अंकुरित होंवे ।।

माँ जनहित की पावन सौरभ,
मेरे काव्य कुसुम में भर दो ।
करूँ काव्य रचना से जग-हित,
'नमन' शारदे ऐसा वर दो ।।

रचयिता:-
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया