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Sunday, April 14, 2024

 "जागो देश के जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों,
आज देश पूकार रहा है।
त्यज दो इस चिर निंद्रा को,
हिमालय पूकार रहा है।।1।।

छोड़ आलस्य का आँचल,
दुश्मन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर,
गर्जन करते केहरि बन।।2।।

मंडरा रहे हैं संकट के घन,
इस देश के गगन में।
शोषणता व्याप्त हुयी है,
जग के जन के मन में।।3।।

घिरा हुवा है आज देश,
चहुँ दिशि से अरि सेना से।
शोषण नीति टपक रही,
पर देशों के नैना से।।4।।

भूल गयी है उन्नति का पथ,
इधर इसी की सन्तानें।
भटक गयी है सच्चे पथ से,
स्वार्थ के पहने बाने।।5।।

दीवारों में है छेद कर रही,
वो अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा,
ठोकर खाती दर दर की।।6।।

चला जा रहा आज देश,
गर्त में अवनति के गहरे।
आज इसी के विस्तृत नभ में,
पतन पताका है फहरे।।7।।

त्राहि त्राहि है मची हुयी,
देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है,
आज देश की रोने में।।8।।

अब तो जाग उठो जवानों,
जी में साहस ले कर।
काली बन अरि के सीने का,
दिखलाओ शोणित पी कर।।9।।

जग को अब तुम दिखलादो,
वीर भगत सिंघ बन कर।
वीरों की यह पावन भूमि,
वीर यहां के सहचर।।10।।

गांधी सुभाष बन कर के तुम,
भारत का मान बढ़ाओ।
जाति धर्म देश सेवा हित,
प्राणों की बलि चढ़ाओ।।11।।

मोहन बन कर के तुम जन को,
गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को तुम,
सच्ची राह दिखाओ।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Thursday, April 4, 2024

"अनाथ"

यह कौन लाल है जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में,
छिपा हुआ है कौन इन विकृत पत्रों में।
कौन बिखेर रहा है दीन दशा मुख से,
बिता रहा है कौन ऐसा जीवन दुःख से।।1।।

यह अनाथ बालक है छिपा हुआ चिथड़ा में,
आनन लुप्त रखा अपना गहरी पीड़ा में।
अपना मित्र बनाया दारुण दुःख को जिसने,
ठान लिया उसके संग रहना इसने।।2।।

फटे हुए चिथड़ों में लिपटा यह मोती,
लख जग की उपेक्षा आँखें प्रतिदिन रोती।
कर में अवस्थित है टूटी एक कटोरी,
पर हा दैव! वह भी है बिल्कुल कोरी।।3।।

है अनाथ जग में कोई नहीं इसका है,
परम परमेश्वर ही सब कुछ जिसका है।
मात पिता से वंचित ये जग में भटकता,
जग का कोई जन नाता न इससे रखता।।4।।

एक सहारा इसका भिक्षा की थोड़ी आशा,
दया कर दे का स्वर ही है इसकी भाषा।
बड़ा ही कृशकाय है इसका अबल तन,
पर बड़ा गम्भीर है बालक का अंतर्मन।।5।।

लघु ललाम लोचन चंचल ही बड़े हैं,
जग भर की आशा निज में समेटे पड़े हैं।
ओठ शुष्क पड़े हैं भूख प्यास के कारण,
दुःख संसार भर का कर रखे हैं धारण।।6।।

गृह कुटिया से यह सर्वथा है बंचित,
रखता न पास यह धरोहर भी किंचित।
नगर पदमार्ग आवास इसका परम है,
उसी पर यह जीवन के करता करम है।।7।।

हाथ मुँह कर शुद्ध प्रातःकाल में यह,
भिक्षाटन को निकलता सदैव ही वह।
उदर के लिए यह घर घर में भटकता,
भिक्षा मांगता यह ईश का नाम कहता।।8।।

याचना करता यह परम दीन बन के,
टिका हुआ है ये सहारे पे जग जन के।
आनन से इसके महा दीनता टपकती,
रोम रोम से इसके करुणा छिटकती।।9।।

जग में इस अनाथ का कोई नहीं है,
भावना जग जन की स्वार्थ में रही है।
इसका सहारा केवल एक वही ईश्वर,
'नमन' उसे जो पालता यह जग नश्वर।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Friday, March 22, 2024

"प्रातः वर्णन"

उदित हुआ प्रभाकर प्रखर प्रताप लेके,
समस्त जग को सन्देश स्फूर्ति का देके।
रक्त वर्ण रम्य रश्मियाँ लेके आया,
प्राची दिशि को अरुणिमा से सजाया।।1।।

पद्म खण्ड सुंदर सरोवरों में उपजे,
तुषार बिंदुओं से प्रसस्त पल्लव सजे।
विहग समूह भी आनन्द में समाया,
मधुर कलरव से दिग दिगन्त गूँजाया।।2।।

हर्ष में खिले हैं विभिन्न पशु पक्षी गण,
क्रियाकलाप में लगा सबका ही जीवन।
हर्षोन्माद छाया चहुँ दिशि ओ गगन में, 
उठी उमंग की लहर जनमानस मन में।।3।।

प्रातः शोभा में जग उद्यान लहराया,
दिशाओं में आलोक आवरण छाया।
घोर अंधकार अभी जहां संसार में था,
नीरवता का शासन पूर्ण प्रसार में था।।4।।

कहाँ छिपा रखा था तिमिर वधु निशा ने,
रखा दूर शोभा को कौनसी दिशा ने।
कहाँ से है आयी सुबह की ये शोभा,
कहाँ छिपी थी यह अरुणिमा मन लोभा।।5।।

जीविका के कारण जाना था जिनको बाहर,
जाने लगे वे सजधज गृह को त्यज कर।
रत हुई गृहणियाँ गृह कार्यों में नाना,
आलस्य त्यज नव स्फूर्ति का पहना बाना।।6।।

जलाशय कूपों पर जन समूह छाया,
स्नान पेय हेतु जल उनको भाया।
गो पालक भी अब अकाज न दिखते,
गो दुहन की तैयारी अब वे करते।।7।।

भगवत आलयों में घण्टा घोष छाया,
वातावरण को आरतियों से गूँजाया।
जीवन्त हो उठे हैं विद्यालयों के प्रांगण,
फैलाते प्रार्थनाओं की छात्र नभ में गूँजन।।8।।

कृषक समुदाय भी कुछ खा पी कर,
चल पड़े खेतों में हल बैल ले कर।
सींच रहे मालीगण वाटिकाओं को,
दाना डाल रहे कुछ कपोत सारिकाओं को।।9।।

खिलने लगे मन्जुल कमल सरोवरों में,
आनन्द तरंग उठने लगी चकोरों में।
सुबह के ही कारण यह हर्षोल्लास छाया,
कार्य सागर में अब जग जा समाया।।10।।

नव जागृति का है यह सुंदर सवेरा,
नाना कार्यों की चाह ने जग जन को घेरा।
'नमन' इसे सब कार्य प्रारम्भ इस में होते,
जो इसमें सोते अपना सर्वस्व खोते।।11।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
(1970 की लिखी कविता)

Saturday, March 2, 2024

"दो राही"

एक पथिक था चला जा रहा अपने पथ पर
मोह माया को त्याग बढ़ रहा जीवन रथ पर।
जग के बन्धन तोड़ छोड़ आशा का आँचल
पथ पर हुवा अग्रसर लिये अपना मन चंचल।1।

जग की नश्वरता लख उसे वैराग्य हुवा था
क्षणभंगुर इस जीवन पर उसे नैराश्य हुवा था।
जग की दाहक ज्वाला से मन झुलस उठा था
नितप्रति बढ़ती तृष्णा से मन भर चुका था।2।

इस नश्वर जग के प्रति घृणा के अंकुर उपजे
ज्ञान मार्ग अपनाने के मन में भाव सजे।
विचलित हुवा जग से लख जग की स्वार्थपरता
अर्थी जग की ना देख सका वह धनसंचयता।3।

लख इन कृत्रिम कर्मों को छोड़ चला जग को
लगा विचारने मार्ग शांति देने का मन को।
परम शांति का एक मार्ग उसने वैराग्य विचारा
आत्मज्ञान का अन्वेषण जीवन का एक सहारा।4।

एक और भी राही इस जग में देह धरा था
मोह माया का संकल्प उसके जीवन में भरा था।
वृत्ती उसने अपनायी केवल स्वार्थ से पूरित
लख इस वृत्ती को वह अधम हो रहा मोहित।5।

पथ पर हुवा अग्रसर वह पाप लोभ मद के
तट पर था वह विचरता दम्भ क्षोभ नद के।
स्वार्थ दुकूल लपेटे कपटी राहों में भटकता
तृष्णा के झरने में नित वो अपनी प्यास बुझाता।6।

धन संचय ही बनाया एकमात्र जीवन का कर्म
अन्यों का शोषण करना था उसका पावन धर्म।
अपने से अबलों पर जुल्म अनेकों ढ़ाह्ता
अन्यों की आहों पर निज गेह बनाना चाहता।7।

इन दोनो पथिकों में अंतर बहुत बड़ा है
एक चाहता मुक्ति एक बन्धन में पड़ा है।
त्यज जग पहले राही ने मोक्ष मार्ग अपनाया
अपना मोह माया दूजेने जग में रुदन मचाया।8।

इस नश्वर जग में धन्यवान पहले जन
वृत्ती सुधा सम अपना करते अमर वो जीवन।
ज्ञान रश्मि से वे जग में आलोक फैलाते
जग मन उपवन में सुधा वारि बरसाते।9।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-05-1971

Tuesday, February 13, 2024

"कहाँ से कहाँ"

मानव तुम कहाँ थे कहाँ पहुँच चुके हो।
ज्ञान-ज्योति से जग आलोकित कर सके हो।
वानरों की भाँति तुम वृक्षों पे बसते थे।
जंगलों में रह कर निर्भय हो रमते थे।।1।।

सभ्यता की ज्योति से दूर थे भटकते।
ज्ञान की निधि से तुम दूर थे विचरते।
कौन है पराया और कौन तेरा अपना।
नहीं समझ पाते थे प्रकृति की रचना।।2।।

परुष पाषाण ही थे अस्त्र शस्त्र तेरे।
जीविका के हेतु लगते थे कितने फेरे।
तेरे थे परम पट पत्र और छालें।
वन-सम्पदा पर तुम देह को थे पाले।।3।।

बिता रहा था पशुवत बन में तु जीवन।
दूर भागता था देख अपने ही स्वजन।
मोह का न नाता वियोग का न दुख था।
धन की न तृष्णा समाज का न सुख था।।4।।

पर भिन्न पशु से हुआ तेरा तुच्छ जीवन।
मन-उपवन में जब खिला ज्ञान का सुमन।
आगे था प्रसस्त तेरे प्रगति का विशाल अम्बर।
चमक उठा उसमें तेरा ज्ञान का दिवाकर।।5।।

त्याग अंध जीवन आ गये तुम प्रकाश में।
लगी गूंजने सभ्यता तेरी हर श्वास में।
लगा बाँधने विश्व ज्ञान के तुम गुण में।
छाने लगी प्रेम शांति अब तुम्हारे गुण में।।6।।

होने लगा लघु जग फैलाने लगा पाँव अपने।
लगा साकार करने भविष्य के समस्त सपने।
रचकर के अनेक यन्त्र जीवन सुलभ बनाया।
मानवी-विकास नई ऊँचाइयों पे पहुँचाया।।7।।

आने लगा इन सब से विलास तेरे जीवन में।
ऊँच नीच के भाव आने लगे तेरे मन में।
भूल गये तुम मिलजुल के साथ चलना।
चाहने लगे तुम अन्यों के श्रम पे पलना।।8।।

कहलाते हो सभ्य यद्यपि इस युग में।
मुदित हो रहे हो इस नश्वर सुख में।
उच्च बन रहे हो अभिमान के तुम रंग में।
मस्त हो रहे घोर स्वार्थ की तरंग में।।9।।

उत्थान और पतन जग का अमिट नियम है।
जीवन और मरण का भी अटल नियम है।
आज उन्नति के शिखर पर पहुँच चुके हो।
अब पतनोन्मुख होने के लिये रुके हो।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता 

Saturday, February 3, 2024

"इधर और उधर"

इधर चलती जनता कछुए सी धीमी चाल,
मचा भीषण आर्तनाद हमारे अंतर को जगाते;
पर हाथों में हाथ धरे हम रह गए सोचते,
क्यों कैसे की उलझन में हिचकोले खाते।
उधर वे सजा काफ़िले ए.सी.कारों के,
सड़कों पे दौड़े सरपट हड़कम्प मचाते ;
इनके ही श्रम पर पलनेवाले वे शोषक,
रह रह कर इनको ही वे आँख दिखाते ।।

इधर घोर दुःखों से भरे हुए इस सागर में,
डोल रही इनकी जीवन नौका लगातार;
पर कैसे गहरे उतरें इस सागर में हम,
और बन जाएं नव क्रांति की इनकी पतवार ।
उधर वे मगरमच्छों से उसमे तैर रहे,
जबड़े खोल और चंगुल का करके प्रसार;
सब कुछ देख रहे हम फिर भी हैं चुप,
क्योंकि मगर से वैर होता नहीं मेरे यार ।।

मरोड़ रही इधर भूख इनकी आंतड़ियां,
और आहों में ही कट जाती इनकी रातें;
पर आखिर समझ नहीं आता हमको,
हम बाँटे तो कैसे बाँटे इनको सौगातें ।
उधर बदहजमी में भी वो लेके डकारें,
नहीं छोड़ते अपनी स्वार्थ की लम्बी बातें;
पर उनकी सुनना मजबूरी रही हमारी,
नहीं तो क्या कहर बरपा दे उनकी घातें ।।

इधर अभाव की ज्वाला में दिल खौल रहा,
व्याप्त हो रही इनके पूरे तन में एक तपन;
पर कैसे ठंडक पहुँचा शांत करें हम,
इन अबलों की वो दुखभरी जलन ।
उधर भेदभाव की उनकी विषभरी नीतियां,
विषबाणों जैसी हमें दे रही चुभन;
पर उन्होंने तो हमें विषधर ही बना डाला,
करा करा उस कराल विष को सहन ।।

इधर बुरे वक़्त की लगी हुई है निरन्तर,
अश्रुधार की सावन जैसी एक झड़ी;
पर कैसे पोंछे हम इनके झड़ते आँसू,
यह एक समस्या सदैव हमारे समक्ष खड़ी ।
उधर नहीं ले रही नाम खत्म होने का,
झूठे वादों की वह द्रौपदी के चीर सी लड़ी;
पर हम अंधों के ये वादे ही हैं एक सहारा,
अब कैसे छोड़ें हम हाथों से एकमात्र छड़ी ।।

हमने करने का तो बहुत कुछ ठाना मन में,
इन दुखियों के लिए द्रवित हो कर;
पर मन की इच्छा दबी रही मन में ही,
क्योंकि कभी किया नहीं कुछ आगे बढ़कर ।
उधर उनके आगे बन्द रखी हमने आँखें,
डर डर कर कभी तो कभी सहम कर;
रख बन्दूक पराए कन्धों पर,
बनना चाहते हम परिवर्तन के सहचर ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी

Monday, January 15, 2024

"भारत गौरव"

जय भारत जय पावनि गंगे,
जय गिरिराज हिमालय ;
आज विश्व के श्रवणों में,
गूँजे तेरी पावन लय ।
नमो नमो हे जगद्गुरु,
तेरी इस पुण्य धरा को ;
गुंजित करना ही सुझे,
तेरा यश इन अधरों को ।।1।।

उत्तर में नगराज हिमालय,
तेरा शीश सजाए;
दक्षिण में पावन रत्नाकर,
तेरे चरण धुलाए ।
खेतों की हरियाली तुझको,
हरित वस्त्र पहनाए ;
सरिता और शैल उस में,
मनभावन सुमन सजाए ।।2।।

गंगा यमुना और कावेरी,
की शोभा है निराली;
अपनी पावन जलधारा से,
खेतों में डाले हरियाली ।
तेरी प्यारी भूमि की,
शोभा है बड़ी निराली;
कहीं पहाड़ है कहीं नदी है,
कहीं बालू सोनाली ।।3।।

तुने अपनी ज्ञान रश्मि से,
जग में आलोक फैलाया;
अपनी धर्म भेरी के स्वर से,
तुने जग को गूँजाया ।
तेरे ऋषि मुनियों ने,
जग को उपदेश दिया था;
योग साधना से अपनी,
जग का कल्याण किया था ।।4।।

अनगिनत महाजन जन्मे,
तेरी पावन वसुधा पर;
शरणागतवत्सल वे थे,
अरु थे पर दुख कातर ।
दानशीलता से अपनी,
इनने तुमको चमकाया;
तेरे मस्तक को उनने,
अपनी कृतियों से सजाया ।।5।।

तेरी पुण्य धरा पर,
जन्मे राम कृष्ण अवतारी;
पा कर के उन रत्नों को,
थी धन्य हुई महतारी ।
अनगिनत दैत्य रिपु मारे,
धर्म के कारण जिनने;
ऋषि मुनियों के कष्टों को,
दूर किया था उनने ।।6।।

अशोक बुद्ध से जन्मे,
मानवता के सहायक;
जन जन के थे सहचर,
धर्म भेरी के निनादक ।
राणा शिवा से आए,
हिंदुत्व के वे पालक;
मर मिटे जन्म भूमि पे,
वे देश के सहायक ।।7।।

थे स्वतन्त्रता के चेरे,
भगत सुभाष ओ' गांधी;
अस्थिर न कर सकी थी,
उनको विदेशी आँधी ।
साहस के थे पुतले,
अरु धैर्य के थे सहचर;
सितारे बन के चमके,
वे स्वतन्त्रता के नभ पर ।।8।।

मातृ भूमि की रक्षा का,
है पावन कर्त्तव्य हमारा;
निर्धन दीन निसहाय,
जनों के बनें सहारा ।
नंगों को दें वस्त्र,
और भूखों को दें भोजन;
दुखियों के कष्टों का,
हम सब करें विमोचन।।9।।

ऊँच नीच की पूरी हम,
मन से त्यजें भावना;
रंग एक में रंग जाने की,
हम सब करें कामना ।
भारत के युवकों का,
हो यह पावन कर्म;
देश हमारा उच्च रहे,
उच्च रहे हमारा धर्म ।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

(यह मेरी प्रथम कविता थी जो दशम कक्षा में 02-04-1970 को लिखी थी)