Tuesday, August 24, 2021

हाइकु (जीवन)

जलते रहे
जीवन के आले में
स्मृति दीपक।
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जीवन चाहे
हर हाल में ढ़ल
बने रहना।
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जो ढ़ल गया
सतत-जीवन सा
वो ही जी गया।
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जीवन-गति
कोष बद्ध स्पन्दित
शाश्वत शक्ति
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-05-19

Friday, August 20, 2021

गीत "नरक चतुर्दशी"

"नरक चतुर्दशी"

नरकासुर मार श्याम जब आये।
घर घर मंगल दीप जले तब, नरकचतुर्दश ये कहलाये।।

भूप प्रागज्योतिषपुर का वह, चुरा अदिति के कुण्डल लाया,
सौलह दश-शत नार रूपमति, कारागृह में लाय बिठाया,
साथ सत्यभामा को ले हरि, दुष्ट असुर के वध को धाये।
नरकासुर मार श्याम जब आये।।

पक्षी राज गरुड़ वाहन था, बनी सारथी वह प्रिय रानी,
घोर युद्ध में उसका वध कर, उसकी मेटी सब मनमानी,
नार मुक्त की कारागृह से, तब से जग ये पर्व मनाये।
नरकासुर मार श्याम जब आये।।

स्नान करें प्रातः बेला में , अर्घ्य सूर्य को करें समर्पित,
दीप-दान सन्ध्या को देवें, मृत्यु देव यम को कर पूजित,
नरक-पाश का भय विलुप्त कर, प्राणी सुख की वेणु बजाये।
नरकासुर मार श्याम जब आये।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-11-2018

Sunday, August 15, 2021

तुलसी जयंती

तुलसीदास जी की जयंती पर मुक्तक पुष्प


लय:- इंसाफ की डगर पे

तुलसी की है जयंती सावन की शुक्ल सप्तम,
मानस सा ग्रन्थ जिसने जग को दिया है अनुपम,
चरणों में कर के वन्दन करता 'नमन' में तुमको,
भारत के गर्व तुम हो हिन्दी की तुमसे सरगम।।

(221 2122)*2
*********

मनहरण घनाक्षरी "विदेशी पिट्ठुओं पर व्यंग"

देश से जो पाएं मान, जान और पहचान,
यहाँ के ही खान-पान, से वो पेट भरते।

देश का वे अपमान, करें भूल स्वाभिमान,
जो विदेशी गुणगान, लाज छोड़ करते।

यहाँ तोड़ वहाँ जोड़, अपनों से मुख मोड़।
देश का जो साथ छोड़, दूसरों पे मरते।

देश बीच आँख मीच, रहते जो ऐसे नीच,
खींच उन्हें राह बीच, प्राण क्यों न हरते।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
27-12-16

Saturday, August 14, 2021

क्षणिकाएँ (विडम्बना)

(1)

झबुआ की झोंपड़ी पर
बुलडोजर चल रहे हैं
सेठ जी की
नई कोठी जो
बन रही है।
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(2)

बयान, नारे, वादे
देने को तो
सारे तैयार
पर दुखियों की सेवा,
देश के लिये जान
से सबको है इनकार।
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(3)

पुराना मित्र
पहली बार स्टेशन आ
गाडी में बैठा गया
दूसरी बार
स्टेशन के लिये
ऑटो में बैठा दिया
तीसरी बार
चौखट से टा टा किया।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-05-19

Thursday, August 12, 2021

मुक्तक (कलम, कविता -3)

मिट्टी का परिचय मिट्टी है, जो मिट्टी में मिल जानी है,
अपनी महिमा अपने मुख से, कवि को कभी नहीं गानी है,
कवि का परिचय उसकी कविता, जो सच्ची पहचान उसे दे, 
ढूँढें कवि उसकी कविता में, बाकी सब कुछ बेमानी है।

(32 मात्रिक छंद)
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दिल के मेरे भावों का इज़हार है हिन्दी ग़ज़ल,
शायरी से बेतहाशा प्यार है हिन्दी ग़ज़ल
छंद में हो भाव भी हो साथ में हो गायकी,
आज इन बातों का ही विस्तार है हिन्दी ग़ज़ल।

(2122*3 212)
*********

लिख सकूँगा या नहीं ये था वहम,
पर कलम ज्यों ली मिटा सारा भरम,
भाव मन में ज्यों ही उमड़े यूँ लगा,
बात मुझ से कर रही है ये कलम।

(2122  2122  212)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-08-2016

Tuesday, August 10, 2021

दोहा छंद "वर्षा ऋतु"

दोहा छंद

ग्रीष्म विदा हो जा रही, पावस का शृंगार।
दादुर मोर चकोर का, मन वांछित उपहार।।

आया सावन झूम के, मोर मचाये शोर।
झनक झनक पायल बजी, झूलों की झकझोर।।

मेघा तुम आकाश में, छाये हो घनघोर।
विरहणियों की वेदना, क्यों भड़काते जोर।।

पिया बसे परदेश में, रातें कटती जाग।
ऐसे में क्यों छा गये, मेघ लगाने आग।।

उमड़ घुमड़ के छा गये, अगन लगाई घोर।
शीतल करो फुहार से, रे मेघा चितचोर।।

पावस ऋतु में भर गये, सरिता कूप तड़ाग।
कृषक सभी हर्षित भये, मिटा हृदय का राग।।

दानी कोउ न मेघ सा, कृषकों की वह आस।
सींच धरा को रात दिन, शांत करे वो प्यास।।

मेघ स्वाति का देख के, चातक हुआ विभोर।
उमड़ घुमड़ तरसा न अब, बरस मेघ घनघोर।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
17-07-2016

Monday, August 9, 2021

32 मात्रिक छंद "आँसू"

 32 मात्रिक छंद

"आँसू"

अंतस के गहरे घावों को, कर जो याद निरंतर रोती।
उसी हृदय की माला से ये, टूट टूट कर बिखरे मोती।।
मानस-सागर की लहरों से, फेन समान अश्रु ये बहते।
छिपी हुई अंतर की पीड़ा, जग समक्ष ये आँसू कहते।।

दुखियारी उस माँ के आँसू, निराकार जिसका भीषण दुख।
ले कर के साकार रूप ये, प्रकट हुये हैं जग के सम्मुख।।
भाग्यवती गृहणी वह सुंदर, बसी हुई थी जिसकी दुनिया।
प्राप्य उसे सब जग के वैभव, खिली हुई थी जीवन बगिया।।

एक सहारा सम्पन्ना का, सभी भाँति अनुरूप उसी के।
जीवन में उनके हरियाली, बीत रहे पल बहुत खुशी के।।
दोनों की जीवन रजनी में, सुंदर एक इंदु मुकुलित था।
मधुर चंद्रिका में उस शशि की, जीवन उनका उद्भासित था।।

बिता रही थी उनका जीवन, नव शिशु की मधुरिम  कल क्रीडा़।
हो कर वाम विधाता उनसे, पर ला दी यह भीषण पीड़ा।।
छीन लिया उस रमणी से हा! उसके जीवन का धन सारा।
वह सुहाग सिन्दूर गया धुल, जीवन में छाया अँधियारा।।

उस सुहाग को लुटे हुये पर, एक वर्ष का लगा न फेरा।
दुख की सेना लिये हुये अब, दूजी बड़ विपदा ने घेरा।।
नव मयंक से छिटक रहा था, जो कुछ भी थोड़ा उजियाला।
वाम विधाता भेज राहु को, ग्रसित उसे भी करवा डाला।।

कष्टों का तूफान गया छा, उस दुखिया के जीवन में अब,
जग उसका वीरान गया हो, छूट गये रिश्ते नाते सब।
भटक भटक हर गली द्वार वह, स्मरण करे इस पीड़ा के क्षण।
उस जीवन की यादों में अब, ढुलका देती दो आँसू कण।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
23-05-2016

Wednesday, August 4, 2021

ग़ज़ल (देश की ख़ातिर सभी को)

बह्र :- 2122 2122 2122 212

देश की ख़ातिर सभी को जाँ लुटाने की कहो,
दुश्मनों को खून के आँसू रुलाने की कहो।

देश की चोड़ी हो छाती और ऊँचा शीश हो,
भाव ऐसे नौजवानों में जगाने की कहो।

ज्ञान की जिस रोशनी में हम नहा जग गुरु बने,
फिर उसी गौरव को भारत भू पे लाने की कहो।

बेसुरे अलगाव के जो गीत गायें अब उन्हें,
देश की आवाज में सुर को मिलाने की कहो।

जो हमारी भूमि पे आँखें गड़ायें बैठे हैं,
जड़ से ही अस्तित्व उन सब का मिटाने की कहो।

देश बाँटो राज भोगो का रखें सिद्धांत जो,
ऐसे घर के दुश्मनों से पार पाने की कहो।

शान्ति का संदेश जग को दो 'नमन' करके इसे,
शस्त्र भी इसके लिये पर तुम उठाने की कहो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-07-20

ग़ज़ल (नर से नर शर्मिंदा क्यूँ है)

बह्र:- 22  22  22  22

नर से नर शर्मिंदा क्यूँ है,
पर जन की बस निंदा क्यूँ है।

थोड़े रुपयों ख़ातिर बिकता,
सरकारी कारिंदा क्यूँ है।

आख़िर आज अभाव' में इतना,
देश का हर बाशिंदा क्यूँ है।

जिस को देखो वो ही लगता,
सत्ता का साज़िन्दा क्यूँ है।

नूर ख़ुदा का पा कर भी नर,
वहशी एक दरिंदा क्यूँ है।

देख देख जग की ज्वाला को,
अंतर्मन तू जिंदा क्यूँ है।

'नमन' मुसीबत का ही मानव,
इक लाचार पुलिंदा क्यूँ है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-10-19