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Tuesday, January 17, 2023

ग़ज़ल (जो सब से बराबर खुशी बाँटता है)

बह्र:- 122 122 122 122

जो सब से बराबर खुशी बाँटता है,
डरा उससे हर दूर ग़म भागता है।

उठाले ए इंसान हस्ती को इतनी,
मिले तुझको वो सब जो तू सोचता है।

सनम याद में तेरी तड़पूँ बहुत ही,
मनाये भी ये दिल नहीं मानता है।

अमीरी गरीबी से क्या फ़र्क पड़ता,
जमाना किसी को नहीं बक्शता है।

बता दे हमें एक भी शख़्स ऐसा,
हुई जिन्दगी में न जिससे ख़ता है।

मुहब्बत की नजरों से दुनिया जो देखे,
उसी आदमी को खुदा चाहता है।

छुपायेगा कैसे 'नमन' उससे जिस को,
तेरी सारी गुस्ताखियों का पता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08.01.23

Friday, August 7, 2020

ग़ज़ल (बुझी आग फिर से जलाने लगे हैं)

बह्र :- 122*4

बुझी आग फिर से जलाने लगे हैं,
वे फितरत पुरानी दिखाने लगे हैं।

गुलों से नवाजा सदा जिनको हम ने,
वे पत्थर से बदला चुकाने लगे हैं।

जबाब_उन की हिम्मत लगी जब से देने,
वे चूहों से हमको डराने लगे हैं।

दुनाली का बदला मिला तोप से जब,
तभी होश उनके ठिकाने लगे हैं।

मजा आ रहा देख कर उनको यारो,
जो खा मुँँह की अब तिलमिलाने लगे हैं।

मिली चोट ऐसी भुलाये न भूले,
हकी़क़त वे इसकी छिपाने लगे हैं।

'नमन' बाज़ आयें वे हरक़त से ओछी,
जो भारत पे आँखें गड़ाने लगे हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-20

Wednesday, December 4, 2019

ग़ज़ल (लगाए बहुत साल याँ आते आते)

बह्र:- 122  122  122  122

लगाए बहुत साल याँ आते आते,
रुला ही दिया क़द्र-दाँ आते आते।

बहुत थक गए हम रह-ए-ज़िन्दगी में,
थकीं पर न दुश्वारियाँ आते आते।

घुटी साँस ज्यूँ ही गली आई उनकी,
न मर जाएँ उनका मकाँ आते आते।

करें याद गर वो ज़रा भी नहीं ग़म,
निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते।

बड़ी गर्मजोशी से दावत सजी थी,
हुआ ठंडा सब मेज़बाँ आते आते।

बताऐँ तुझे क्या ए ख्वाबों की मंज़िल,
कहाँ पहुँचे थे हम यहाँ आते आते।

'नमन' क्या बचा जो करें फ़िक्र उसकी,
लुटा कारवाँ पासबाँ आते आते।

(पासबाँ - रक्षक, चौकीदार)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-10-19

Friday, April 19, 2019

ग़ज़ल (तेरे वास्ते घर सदा ये)

बह्र:- 122   122   122   122

तेरे वास्ते घर सदा ये खुला है,
ये दिल मैंने केवल तुझे ही दिया है।

तगाफ़ुल नहीं और बर्दाश्त होता,
तेरी बदगुमानी मेरी तो कज़ा है।

तू वापस चली आ यही मेरी मन्नत,
किसी से नहीं कोई मुझको गिला है।

समझ मत हँसी देख मुझको न है ग़म,
ये चेह्रा तुझे देख कर ही खिला है।

लगें मुझको आसेब से ये शजर सब,
जलन दे सहर और चुभती सबा है।

मैं तड़पा बहुत हूँ जला भी बहुत हूँ,
धुआँ ये उसी आग का दिख रहा है।

'नमन' की यही इल्तिज़ा आज आखिर,
बसा भी दे घर ये जो सूना पड़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-1-2017