Saturday, June 26, 2021

पंचिक (बतरस)

पंचिक (बतरस)

विधाओं की वर्जनाओं से परे,, विशुद्ध बतरस का आनंद लीजिए 😃😃🙏

(1)

पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी
इनसे कोई भी, विषय कहाँ रहा बाकी
बाजार से घर की खाटी समीक्षा
भेद बताने की, कितनी तितीक्षा
काट करे    कोई, फिर बनती है झाँकी
(पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी)

(2)

उसकी बहु, कहना मत, बात है क्या की
सुना है मैने, कि वो  रसिकन है पाकी
अरे,  डिस्को में जाती है वो
सुना, रेस्त्रां  में खाती  है वो
हाय राम, ये ही क्या, देखना था बाकी
(पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी।)

(3)

ये शर्माईन, इसकी तो बात ही न्यारी है
चालीसी मे आ गई, सजने की मारी है
शर्मा को देखो उड़ गये बाल
बेचारा    घूमे, लगता बेहाल
अपने को क्या मतलब, पर कहती हूँ, क्या की। 
(पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी।)

(4)

वो वर्मा की छोरी, इक दिन कर देगी नाम
सारे  दिन स्कूटी पे, हांडने भर  का काम
बित्ती   है पर देखो तो  कपड़े 
रोज नये पटयाले, कंगन, कड़े
वैसे अपने को क्या, न माँ ने परवा की
(पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी।)

(5)

देर   हो गई   री मुझे, दूध लेने  जाना
हाँ, गुप्ता के छोरे को थोड़ा समझाना
दढियल क्यों बन बैठा
रहता  भी  है      ऐंठा
अपने को क्या है पर, मरजी गुप्ता की
(पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी।)

(6)

कुछ भी हो, सुख दुख मे काम तो आती
इसके घर की सब्जी, उसके घर जाती
पल भर की नाराजी
अगले पल हो राजी
कहती, तूने भी सुन ली न   कमला की
(पत्नी, पड़ौसन, और पंडिताइन काकी
इनसे कोई भी, विषय कहाँ रहा बाकी)
😃😃😃😃

          सुप्रभात सा
       जैगोबिंद बिरामण
           लोसल

Monday, June 21, 2021

हनुमत पिरामिड

आरोही अवरोही पिरामिड
(1-11 और 11-1)

को 
नहीं
जानत
जग में तु
दूत राम को।
महिमा दी तूने
सालासर ग्राम को।
राम लखन को लाए
पावन किष्किंधा धाम को।
सागर लांघा  लंकिनी  मारी
लंका में छेड़ दिया संग्राम को।

सौंप मुद्रिका, उजाड़ी  वाटिका
जारे तब लंका ललाम को।
स्वीकार   करो  बजरंगी
तुम मेरे प्रणाम को।
हे बाबा  रक्षा  कर
आठहुँ याम को।
'नमन' करूँ
पूर्ण करो
सारे ही
काम
को।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-06-18

गोवर्धन धारण

गोवर्धन धारण


ब्रज विपदा हारण, सुरपति कारण, आये जब यदुराज।
गोवर्धन धारा, सुरपति हारा, ब्रज का साधा काज।
हे कृष्ण मुरारी! जनता सारी, विपदा में है आज।
कर जोड़ सुमरते, विनती करते, रखियो हमरी लाज।

बासुदेव अग्रवाल
तिनसुकिया

Tuesday, June 15, 2021

मुक्तक (नारी)

पहचान ले नारी तू ताकत जो छिपी तुझ में,
कारीगरी उसकी जो सब ही तो सजी तुझ में,
मंजिल न कोई ऐसी तू पा न सके जिसको,
भगवान दिखे उसमें ममता जो बसी तुझ में।

(221  1222)*2
***********

बदी के बदले भलाई सदा न पाओगे,
सितम ढहाओगे, तुम भी वफ़ा न पाओगे,
सदा ही जुल्म किया औरतों पे मर्दों ने,
डरो ख़ुदा से नहीं तो पता न पाओगे।

(1212  1122  1212  22)
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जीवन में जो दाखिल हुई सौगात बनकर दिलरुबा,
जब हुस्न था तब तक रही नगमात बनकर दिलरुबा,
तू औरतों की हक़ परस्ती की करे बातें बड़ी,
तो क्यों रहे तेरे लिये खैरात बनकर दिलरुबा।

(2212×4)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-04-2017

मुक्तक (राजनीति-2)

जो भी सत्ता पा जाता है, दिखता मद में चूर है,
संवेदन से जनता लेकिन, भारत की भरपूर है,
लोकतंत्र को कम मत आँको, हरदम इसका भान हो,
काम करो तो सत्ता भोगो, वरना दिल्ली दूर है।

(16+13 मात्रा)
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प्रथम विरोधी को शह दे कर, दिल के घाव दुखाते हैं,
फिर उन रिसते घावों पर वे, मलहम खूब लगाते हैं,
'फूट डालके राज करो' का, है सिद्धांत पुराना ये,
बचके रहना ऐसों से जो, अपना बन दिखलाते हैं।

(ताटंक छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-11-18

Thursday, June 10, 2021

दोहे "मन"

दोहा छंद

पंकज जैसा मन रखो, चहुँ दिशि चाहे कीच।
पाप कभी छू नहिं सके, जितने रहलो बीच।।

कमल खिले सब पंक में, फिर भी पूजे जाय।
गुण तो छिप सकते नहीं, अवगुण बाहर आय।।

जग काजल की कोठरी, मन ज्यों धवल कपास।
ज्यों बूड़े त्यों श्याम हो, बूड़े नहीं उजास।।

जब उमंग मन में रहे, बनते बिगड़े काम।
गात प्रफुल्लित नित रहे, जग में होता नाम।।

चिंतन मन का कीजिये, देखो जब एकांत।
दोष प्रगट हो सामने, करे हृदय को शांत।।

दया भाव जब मन नहीं, व्यर्थ बाहुबल जान।
औरन को सन्ताप दे, बढ़ता है अभिमान।।

जिनका मन पाषाण है, पाते दुख वे घोर।
दया धर्म जाने नहीं, डाकू पातक चोर।।

झूठ कपट को त्याग कर, मन को करलें शुद्ध।
इससे मन के द्वार सब, कभी न होें अवरुद्ध।।

वाणी ऐसी बोलिये, मन में कपट न राख।
मित्र बनाए शत्रु को, और बढ़ाए साख।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-04-18

लावणी छन्द "सांध्य वर्णन"

 (लावणी छन्द)

दिन के उज्ज्वल अम्बर से ये, प्रगटी है संध्यारानी।
छिपते दिन की सब प्राणी को, कहने आयी ये वाणी।।
तेज भानु की तप्त करों को, छिपा लिया निज आँचल में।
रक्तवर्ण आभा बिखरा दी, सारे लोचन चंचल में।।

सांध्य निमंत्रण दी जीवों को, ठौर ठाँव में जाने का।
कार्यशील लोगों को ये दी, न्योता वापस आने का।।
कृषक वर्ग भी त्यज के अपने, प्यारे प्यारे खेतों को।
आवासों को हुए अग्रसर, ले कुदाल, हल, बैलों  को।।

पक्षी गण भी वनस्थली से, नीड़ों में उड़ सभी पड़े।
पशुगण चारागाह छोड़ के, स्वस्थानों में हुए खड़े।।
रंभाती गाएँ खुर-रज से, गगन धरा में धूल भरे।
सुंदर थाल सजा गृहरमणी, सांध्य दीप प्रज्वलित करे।।

संध्या ने अपने कलरव से, दिग्दिगंत मुखरित कर दी।
जो मध्याह्न मौन था उसमें, कोलाहल को ये भर दी।।
कैसी प्यारी शोभा है यह, अस्ताचल रवि गमन करे।
चंन्द्र चाँदनी अब छिटकाने, जग को सज-धज 'नमन' करे।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-05-2016

Saturday, June 5, 2021

ग़ज़ल (दर्द दे वो चले पर दवा कौन दे)

बह्र:- 212*4

दर्द दे वो चले पर दवा कौन दे,
साँस थमने लगी अब दुआ कौन दे।

चाहतें दफ़्न सब हो के दिल में रहीं,
जब जफ़ा ही लिखी तो वफ़ा कौन दे।

उनकी यादों में उजड़ा है ये आशियाँ,
इसको फिर से बसा घर बना कौन दे।

ख़ार उन्माद नफ़रत के पनपे यहाँ,
गुल महब्बत के इसमें खिला कौन दे।

देश फिर ये बँटे ख्वाब देखे कई,
जड़ से इन जाहिलों को मिटा कौन दे।

ज़िंदगी से हो मायूस तन्हा बहुत,
हाथको थाम कर आसरा कौन दे।

मौत आती नहीं, जी भी सकते नहीं,
ऐ 'नमन' अब सुहानी कज़ा कौन दे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-09-2016

ग़ज़ल (बढ़े ये देश जिन पर)

बह्र:- 1222-1222-1222-1222

बढ़े ये देश जिन पर रास्ते हम वे तलाशेंगे।
समस्याएँ अगर इसमें तो हल मिल के तलाशेंगे।

स्वदेशी वस्तुएं अपना के होंगे आत्मनिर्भर हम,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।

महक खुशियों की बिखराने वतन में बाग़बाँ बन कर,
हटा के ख़ार राहों के, खिले गुंचे तलाशेंगे।

बँधे जिस एकता की डोर में प्यारा वतन सारा,
उसी डोरी के सब मजबूत हम धागे तलाशेंगे।

पुजारी अम्न के हम तो सदा से रहते आये हैं,
जहाँ हो शांति की पूजा वे बुतख़ाने तलाशेंगे।

सही इंसानों से रिश्तों को रखना कामयाबी है,
बड़ी शिद्दत से हम रिश्ते सभी ऐसे तलाशेंगे।

अगर बाकी कहीं है मैल दिल में कुछ किसी से तो,
मिटा पहले ये रंजिश राब्ते अगले तलाशेंगे।

पराये जिनके अपने हो चुके, लाचार वे भारी,
बनें हम छाँव जिनकी वे थकेहारे तलाशेंगे।

यही हो भावना सब की, यही आशा सभी से है,
गले मिलने के लोगों के 'नमन' मौके तलाशेंगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-10-19

Thursday, June 3, 2021

इंदिरा छंद "पथिक"

(इंदिरा छंद / राजहंसी छंद)

तमस की गयी ये विभावरी।
हृदय-सारिका आज बावरी।।
वह उड़ान उन्मुक्त है भरे।
खग प्रसुप्त जो गान वो करे।।

अरुणिमा रही छा सभी दिशा।
खिल उठा सवेरा, गयी निशा।।
सतत कर्म में लीन हो पथी।
पथ प्रतीक्ष तेरे महारथी।।

अगर भूत तेरा डरावना।
पर भविष्य आगे लुभावना।।
रह न तू दुखों को विचारते।
बढ़ सदैव राहें सँवारते।।

कर कभी न स्वीकार हीनता।
जगत को दिखा तू न दीनता।।
सजग तू बना ले शरीर को।
'नमन' विश्व दे कर्म वीर को।।
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राजहंसी छंद / इंदिरा छंद विधान:-

"नररलाग" से आप लो बजा।
मधुर 'इंदिरा' छंद को सजा।।

"नररलाग"  =  नगण रगण रगण + लघु गुरु
111 212  212 12,
चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत।

"राजहंसी छंद" के नाम से भी यह छंद प्रसिद्ध है।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-01-19

Wednesday, June 2, 2021

कामदा छंद "देश की हालत"

कामदा छंद / पंक्तिका छंद

स्वार्थ में सनी राजनीति है।
वोट नोट से आज प्रीति है।
देश खा रहे हैं सभी यहाँ।
दौर लूट का देखिये जहाँ।।

त्रस्त आज आतंक से सभी।
देश की न थी ये दशा कभी।
देखिये जहाँ रक्त-धार है।
लोकतंत्र भी शर्मसार है।।

शील नारियाँ हैं लुटा रही।
लाज से मरी जा रही मही।
अर्थ पाँव पे जो टिकी हुई।
न्याय की व्यवस्था बिकी हुई।।

धूर्त चोर नेता यहाँ हुये।
कीमतें सभी आसमाँ छुये।।
देश की दशा है बड़ी बुरी।
वृत्ति छा गयी आज आसुरी।।
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कामदा छंद / पंक्तिका छंद विधान -

कामदा छंद जो कि पंक्तिका छंद के नाम से भी जाना जाता है, १० वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है।

"रायजाग" ये वर्ण राखते।
छंद 'कामदा' धीर चाखते।।

"रायजाग" = रगण यगण जगण गुरु।

(212  122  121  2) = 10 वर्ण प्रति चरण, 4 चरण, दो दो सम तुकान्त।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-06-17