Friday, May 28, 2021

चोका "पूर्वाग्रह"

(चोका कविता)

जापानी विधा
5-7, 5-7, 5-7 -------- +7 वर्ण प्रति पंक्ति

पूर्वाग्रह क्या?
अधकचरी सोच
तर्क-विहीन
कुंठाओं का आगार।
जो मन में है
वही शाश्वत सत्य
अन्य सकल
केवल निराधार।
नवीन सोच?
वैचारिक क्षुद्रता
परिवर्तन?
पथभ्रष्ट विचार।
पूर्वाग्रही है...
स्वयंभू न्यायाधीश
थोपे जो न्याय
विरोध न स्वीकार।
पूर्वाग्रह दे
तानाशाही प्रवृत्ति,
दम्भ, पाखण्ड,
निर्लज्ज व्यवहार।
मानव-मन
पूर्वाग्रह ग्रसित
सदैव करे
स्वार्थ भरा व्यापार।
निर्मम अत्याचार।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-04-18

Wednesday, May 26, 2021

मुक्तक (कोरोना बीमारी - 1)

(लावणी छंद आधारित)

(1)

कोरोना का मतलब समझो, कोई रोडपे ना निकले,
लोगों के इस एक कदम से, हल बीमारी का निकले,
फैले जो छूने भर से हम, इससे सारे दूर रहें,
सबका ध्येय यही हो कैसे, देश से कोरोना निकले।

(2)

नाई की ज्यों नाइन होती, ठाकुर की ठकुराइन है,
कोरोना की घरवाली त्यों, समझो कोरोन्टाइन है,
नर की तो रहती नकेल ही, घरवाली के हाथों में,
कोरोन्टाइन से ही बस में, कोरोना की लाइन है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-03-21

Saturday, May 22, 2021

पंचिक - (विविध-1)

(पंचिक)

राजनीति में गये हैं घुस सब उचक्के चोर,
श्राद्धों वाले कौव्वों जैसे उतपाती घनघोर।
पड़ जाये जहाँ पाँव,
मचा देते काँव काँव,
चाट गये देश सारा निकमे मुफतखोर।
*****

नेता बने जब से ही गाँव के ये लप्पूजी,
राजनीति में भी वे चलाने लगे चप्पूजी।
बेसुरी अलापै राग,
सुन सभी जावै भाग।
लगे हैं ये कहलाने तब से ही भप्पूजी।।
*****

पट्टी बाँधी राज माता भीष्म हुआ दरकिनार,
द्रौपदी की देखो फिर लज्जा हुई तार तार।
न्याय की वेदियों पर,
चलते बुलडोजर,
शेरों के घरों में जब जन्म लेते हैं सियार।।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-09-2020

पंचिक विधा और स्वरूप

(पंचिक)

अंग्रेजी में हास्य विनोद की लघु कविता के रूप में लिमरिक्स एक प्राचीन विधा है। यह कुल पाँच पंक्तियों की लघु कविता होती है जिसकी एक विशिष्ट लय रहती है। यह लय विशिष्ट तुकांतता और सिलेबल की गिनती पर आधारित रहती है। तुकांतता की विशेषता इस अर्थ में है कि इसकी पाँच पंक्तियों में दो अलग अलग तुकांतता रहती है। पंक्ति संख्या एक, दो, पाँच में एक तुकांतता रहती है तथा पंक्ति संख्या तीन तथा चार में दूसरी तुकांतता रहती है। पंक्ति संख्या एक, दो, पाँच में आठ या नौ सिलेबल रहते हैं जबकि पंक्ति संख्या तीन, चार में पाँच या छह सिलेबल रहते हैं।

राजस्थानी भाषा में इस विधा को श्री मोहन आलोक जी ने डाँखला के नाम से विकसित किया है। डाँखला के नाम से उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें राजस्धानी भाषा में उनके दो सौ मजेदार डाँखले संग्रहित हैं।

हिन्दी में यह विधा हाइकु, ताँका, सेदोका जैसी अन्य विदेशी विधाओं जितनी प्रसिद्धि नहीं पा सकी है। काका हाथरसी जी के तीन तुक के तुक्तक मिलते हैं जो लिमरिक्स से अलग एक स्वतंत्र विधा है।उनके दो तुक्तक देखें।

"जाड़े में आग की, खाने में साग की
गाने में राग की, महिमा अनंत है।"

"रिश्ते में साली की, पान में छाली की 
बगिया में माली की, महिमा अनंत है।"

अंग्रेजी की लिमरिक्स की विधा को हिन्दी में एक नाम देकर नियम बद्ध करने का मैंने प्रयास किया है जिसे मैं इस आलेख के माध्यम से आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

लिमरिक्स की संरचना को दृष्टिगत रखते हुये इसका सुगम सा नाम "पंचिक" दिया है। इसका पाँच पंक्ति का होना एक गुण है और दूसरा गुण है अंग्रेजी भाषा का शब्द 'पंच' जिसका अर्थ छेदन, चुभन, कचोटना, मुष्टिक आघात इत्यादि है। लिमरिक यानि पंचिक की पंक्तियों में गुदगुदाहट पैदा करने वाली एक मीठी चुभन होनी चाहिए जो पाठक के हृदय को एकाएक छेद सके। यह चुभन या आघात कटु व्यंग के रूप में हो सकता है, उन्मुक्त हास्य हो सकता है या तार्किकता से मुक्त बिल्कुल अटपटा उटपटांग सा प्रहसन हो सकता है जो पाठक को अपने में समेट हल्का हल्का गुदगुदाता रहे। पंचिक कोई भी विचार मन में लेकर रचा जा सकता है। यह बाल कविता के रूप में भी काफी प्रभावी सिद्ध हो सकता है। हँसी हँसी में बच्चों को सामान्य ज्ञान दे सकता है।

आंग्ल भाषा की परंपरा के अनुसार पंचिक की प्रथम पंक्ति में किसी काल्पनिक पात्र को उसके गुण के आधार पर एक मजाकिया सा नाम देकर व्यंग का निशाना बनाया जाता है। किसी शहर या गाँव के नाम को भी इसी प्रकार विशुद्ध हास्य के रूप में लिया जा सकता है। दूसरी, तीसरी, चौथी पंक्ति में ऐसे पात्र के गुण उभारे जाते हैं। पाँचवी पंक्ति पटाक्षेप की चुभती हुई यानि पंच करती हुई पंक्ति होती है। इस पंक्ति में रचनाकार को तार्किकता इत्यादि में अधिक उलझने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम और दूसरी पंक्ति से तुक मिलाते हुये कुछ या पूरा लीक से हट कर चटपटा पटाक्षेप कर दें।

जहाँ तक पंचिक की पंक्तियों के विन्यास का प्रश्न है, यह किसी भी मात्रिक या वर्णिक विन्यास में बँधा हुआ नहीं है। फिर भी लयकारी की प्रमुखता है। पंक्तियों के वाचन में एक प्रवाह होना चाहिए। यह लय, गति ही इसे कविता का स्वरूप देती है। मैं यहाँ घनाक्षरी की लय को आधार बना कर कुछ दिशानिर्देश दे रहा हूँ।

घनाक्षरी की लय साधते हुये पंक्ति संख्या 1, 2, 5 में प्रति पंक्ति 14 से 18 तक वर्ण रख सकते हैं। घनाक्षरी के पद की प्रथम यति में 16 वर्ण रहते हैं पर इसमें यह रूढि नहीं है। यह ध्यान रहे कि लय रहे। 14 वर्ण हो तो गुरु वर्ण के शब्द अधिक रखें, 18 वर्ण हो तो लघु वर्ण के शब्द अधिक प्रयोग करें। इससे मात्राएँ समान होकर लय सधी रहेगी। पंक्ति संख्या 3 और 4 में प्रति पंक्ति 7 से 13 वर्ण तक रख सकते हैं। इसकी विशेषता दर्शाता मेरा एक पंचिक देखें:-

"अंगरेजी भाषा का जो खुराफाती लिमरिक,
हिन्दी में छायेगा अब बनकर 'पंचिक'।
व्यंग करने में पट्ठा पूरा टंच,
धूल ये चटाये मार मीठे पंच।
कवियों के हाथ लगा हथियार आणविक।।"

ऐतिहासिक धरोहर का परिचय देता एक बाल पंचिक:-

"लक्ष्मी बाई जी की न्यारी नगरी है झाँसी,
नाम से ही गद्दारों को दिख जाती फाँसी।
राणी जी की ऐसी धाक,
अंग्रेजों की नीची नाक,
सुन के फिरंगियों की चल जाती खाँसी।।"

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-09-20

Monday, May 17, 2021

कहमुकरी विवेचन

*कहमुकरी* साहित्यिक परिपेक्ष में:-

हिंदी किंवा संस्कृत साहित्य में अर्थचमत्कृति के अन्तर्गत दो अलंकार विशेष रूप से प्रयुक्त होते हैं,, पहला श्लेष व दूसरा छेकापहृति,, श्लेष में कहने वाला अलग अर्थ में कहता है व सुनने वाला उसका अलग अर्थ ग्रहण करता है,, पर छेकापहृति में प्रस्तुत को अस्वीकार व अप्रस्तुत को स्वीकार करवाया जाता है,,

कहमुकरीविधा छेकापहृति अलंकार का अनुपम उदाहरण है,, आईये देखते हैं एक उदाहरण:-

वा बिन रात न नीकी लागे
वा देखें हिय प्रीत ज जागे
अद्भुत करता वो छल छंदा
क्या सखि साजन? ना री चंदा

यहाँ प्रथम तीन पंक्तियां स्पष्ट रूप से साजन को प्रस्तुत कर रही है,, पर चौथी पंक्ति में उस प्रस्तुत को अस्वीकृत कर अप्रस्तुत (चंद्रमा) को स्वीकृत किया गया है,, यही इस विधा की विशेषता व काव्यसौंदर्य है।

वैयाकरणी दृष्टि से यह बड़ा सरल छंद है,, मूल रूप से इसके दो विधान प्रचलित है,, प्रति चरण 16 मात्रायें, चार चरण व प्रति चरण 15 मात्रायें चार चरण,

गेयता अधिकाधिक द्विकल के प्रयोग से स्पष्ट होती है इस छंद में,, इस लिए इसके वाचिक मात्राविन्यास निम्न हैं:-

या तो 22 22 22 22
या 22 22 22 21

इसके चार चरणों में दो दो चरण समतुकांत रखने की परिपाटी है।

इस विधा में एक प्रश्न बहुत बार उठता है कि,, क्या सखि साजन,,, यहाँ,, साजन, के स्थान पर अन्य शब्द प्रयोज्य है या नहीं? कुछ विद्वान इसका निषेध करते हैं व कुछ इसे ग्राह्य मानते है।

इसे पनघट पर जल भरती सखियों की चूहलबाजियों से उत्पन्न विधा माना गया है,, इसलिए स्वाभाविक रूप से,, साजन,, शब्द के प्रति पूर्वाग्रह,, समझ में आता है, इस विवाद को दूर करने के लिए व इसमें नवाचार को मान्यता देने के लिए, आजकल *नवकहमुकरी* शब्द भी काम में लिया जाता है,, जिसमें,, साजन,, के स्थान पर कोई अन्य शब्द प्रयुक्त हो,,

बहुत ही सरस व मनोरंजक विधा है,, जिसमें कवि का भावविलास व कथ्य चातुर्य अनुपम रूप से उजागर होता है,,

आईये कुछ उदाहरण और देखें

(नवकहमुकरी) 

पहले पहल जिया घबरावे
का करना कछु समझ न आवे
धीरे धीरे उसमे खोई
का सखि शय्या? अरी! रसोई

(कहमुकरी) 

हर पल साथ, नजर ना आवे
मन में झलक दिखा छिप जावे
ऐसे अद्भुत हैं वो कंता
ऐ सखि साजन? ना भगवंता

सादर समीक्षार्थ व अभ्यासार्थ:-

जय गोविंद शर्मा
लोसल

Sunday, May 16, 2021

विविध मुक्तक -8

ओ ख़ुदा मेरे तु बता मुझे मेरा तुझसे एक सवाल है,
जो ये ज़िन्दगी तुने मुझको दी उसे जीने में क्यों मलाल है,
इसे अब ख़ुदा तु लेले वापस नहीं बोझ और मैं सह सकूँ,
तेरी ज़िन्दगी को अब_और जीना मेरे लिए तो मुहाल है।

(11212*4)
*********

जहाँ भी आब-ओ-दाना है,
वहीं समझो ठिकाना है,
तु लेकर साथ क्या आया,
यहीं सब कुछ कमाना है।।

(1222*2)
*********

जमाने की जफ़ा ने मार डाला।
खिलाफ़त की सदा ने मार डाला।
रही कुछ भी कसर बाकी अगर तो।
तुम्हारी बददुआने मार डाला।

(1222 1222 122)
***********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-01-18

समान सवैया "मुक्तक"


वही दोहराया भारत ने, सदियों से जो होता आया,
बाहर के लोगों से मिल जब, गद्दारों ने देश लुटाया,
लोक तंत्र का अब तो युग है, सोच समझ पर वही पुरानी,
बंग धरा में अपनों ने ही, अपनों का फिर रक्त बहाया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10.05.21

Wednesday, May 12, 2021

मनहरण घनाक्षरी "राहुल पर व्यंग"

मनहरण घनाक्षरी

राजनायिकों के गले, मोदी का लगाना देख,
राहुल तिहारी नींद, उड़ने क्यों लगी है।

हाथ मिला हाथ झाड़, लेने की तिहारी रीत,
रीत गले लगाने की, यहाँ मन पगी है।

देश की परंपरा का, उपहास करो नित,
और आज तक किन्ही, बस महा ठगी है।

दुनिया से भाईचारा, कैसे है निभाया जाता,
तुझे क्या, तेरी तो बस, इटली ही सगी है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-01-18

सार छंद "पुष्प"

सार छंद / ललितपद छंद

अहो पुष्प तुम देख रहे हो, खिलकर किसकी राहें।
भावभंगिमा में भरते हो, किसकी रह रह आहें।।
पुष्पित हो तुम पूर्ण रूप से, ऐंठे कौन घटा पर।
सम्मोहित हो रहे चाव से, जग की कौन छटा पर।।

लुभा रहे भ्रमरों को अपने, मधुर परागों से तुम।
गूँजित रहते मधुपरियों के, सुंदर गीतों से तुम।।
कौन खुशी में वैभव का यह, जीवन बिता रहे हो।
आज विश्व प्राणी को इठला, क्या तुम दिखा रहे हो।।

अपनी इस आभा पर प्यारे, क्यों इतना इतराते।
अपने थोड़े वैभव पर क्यों, फूले नहीं समाते।।
झूम रहे हो आज खुशी से, तुम जिन के ही श्रम से।
बिसरा बैठे उनको अपने, यौवन के इस भ्रम से।।

मत भूलो तुम होती है, किंचित् ये हरियाली।
चार दिनों के यौवन में ये, थोड़ी सी खुशियाली।।
आज हँसी के जीवन पर कल, क्रंदन तो छाता है।
वृक्षों में भी इस बसन्त पर, कल पतझड़ आता है।।

क्षणभंगुर इस जीवन पर तुम, मत इठलाओ प्यारे।
दल, मकरंद चार दिन में ही, हो जायेंगे न्यारे।।
जितनी खुशबू फैला सकते, जल्दी ही फैला लो।
हँसते खिलते खुशियाँ बाँटो, जीवन अमर बना लो।।

नेकी कर कुंए में डालो, और न जोड़ो नाता।
सब अपनी ज्वाला में जलते, कोई किसे न भाता।।
स्वार्थ भाव से जग यह चलता, इतराओ तुम काहे।
दूजों के श्रम-कण पर आश्रित, जग तो रहना चाहे।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-05-16

Wednesday, May 5, 2021

ग़ज़ल (ढूँढूँ भला ख़ुदा की मैं रहमत)

बह्र:- 221  2121  1221  212

ढूँढूँ भला ख़ुदा की मैं रहमत कहाँ कहाँ,
अब क्या बताऊँ उसकी इनायत कहाँ कहाँ।

सहरा, नदी, पहाड़, समंदर ये दश्त सब,
दिखलाएँ सब ख़ुदा की ये वुसअत कहाँ कहाँ।

हर सिम्त हर तरह के दिखे उसके मोजिज़े,
जैसे ख़ुदा ने लिख दी इबारत कहाँ कहाँ।

अंदर जरा तो झाँकते अपने को भूल कर,
बाहर ख़ुदा की ढूँढते सूरत कहाँ कहाँ।

रुतबा-ओ-ज़िंदगी-ओ-नियामत ख़ुदा से तय,
इंसान फिर भी करता मशक्कत कहाँ कहाँ।

इंसानियत अता तो की इंसान को ख़ुदा,
फैला रहा वो देख तु दहशत कहाँ कहाँ।

कहता 'नमन' कि एक ख़ुदा है जहान में,
जैसे भी फिर हो उसकी इबादत कहाँ कहाँ।

सहरा = रेगिस्तान
दश्त = जंगल
वुअसत = फैलाव, विस्तार, सामर्थ्य
सिम्त = तरफ, ओर
मोजिज़े = चमत्कार (बहुवचन)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-07-2017

ग़ज़ल (जब से देखा उन को मैं तो)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

जब से देखा उन को मैं तो क़ैस जैसा बन गया,
अच्छा खासा जो था पहले क्या से अब क्या बन गया।

हाल कुछ ऐसा हुआ उनकी अदाएँ देख कर,
बन फ़साना सब की आँखों का मैं काँटा बन गया।

पेश क्या महफ़िल में कर दी इक लिखी ताज़ा ग़ज़ल,
घूरती सब की निगाहों का निशाना बन गया।

कामयाबी की बुलंदी पे गया गर चढ़ कोई,
हो सियासत में वो शामिल इक लुटेरा बन गया।

आये वो अच्छे दिनों का झुनझुना दे चल दिये,
देश के बहरों के कानों का वो बाजा बन गया।

लोगों की जो डाह में था इश्क़ का मेरा जुनूँ,
अब वो उन के जी को बहलाने का ज़रिया बन गया।

जो 'नमन' सब को समझता था महज कठपुतलियाँ,
आज वो जनता के हाथों खुद खिलौना बन गया।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-2018

ग़ज़ल (दीवाली पर जगमग जगमग)

बह्र:- 22 22 22 22 22 22 222

दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते हैं,
आतिशबाज़ी धूम धड़ाके हर नुक्कड़ पर होते हैं।

पकवानों की खुशबू छायी, आरतियों के स्वर गूँजे,
त्योहारों के ये ही क्षण खुशियों के अवसर होते हैं।

अनदेखी परिणामों की कर जंगल नष्ट करें मानव,
इससे नदियों का जल सूखे बेघर वनचर होते हैं।

क्या कहिये ऐसों को जो रहतें तो शीशों के पीछे,
औरों की ख़ातिर उनके हाथों में पत्थर होते हैं।

कायर तो छुप वार करें या दूम दबा कर वे भागें,
रण में डट रिपु जो ललकारें वे ताकतवर होते हैं।

दुबके रहते घर के अंदर भारी सांसों को ले हम,
आपे से सरकार हमारे जब भी बाहर होते हैं।

कमज़ोरों पर ज़ोर दिखायें गेह उजाड़ें दीनों के,
बर्बर जो होते हैं वे अंदर से जर्जर होते हैं।

पर हित में विष पी कर के देवों के देव बनें शंकर,
त्यज कर स्वार्थ करें जो सेवा पूजित वे नर होते हैं।

दीन दुखी के दर्द 'नमन' जो कहते अपनी ग़ज़लों में,
वैसे ही कुछ खास सुख़नवर सच्चे शायर होते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-10-20