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Friday, December 2, 2022

लावणी छंद "सच्ची कमाई"

सच्ची तुम ये किये कमाई, मानुस तन जो यह पाया।
देवों को भी जो है दुर्लभ, तुमने पायी वह काया।।
इस कलियुग में जन्म लिया फिर, नाम जपे नर तर जाये।
अन्य युगों के वर्षों का फल, इसमें तुरत-फुरत पाये।।

जन्मे तुम उस दिव्य धरा पर, देव रमण जिस पर करते।
शुभ संस्कार मिले ऋषियों के, भव-बन्धन जो‌ सब हरते।।
नर-तन में प्रभु भारत भू पर, बार बार अवतार लिये।
कर लीला हर भार भूमि का, उपकारी उपदेश दिये।।

धर्म सनातन जिसमें सोहे, ऐसा अनुपम गेह मिला।
गीता रामायण सम प्यारे, कुसुमों से यह देह खिला।।
वेद पुराण भागवत पावन, सीख सदा सच्ची देवें।
इस जीवन अरु जन्मांतर के, बंधन सारे हर लेवें।।

मंदिर के घण्टा घोषों से, भोर यहाँ पर होती है।
मधुर आरती की गूँजन में, सांध्य निशा में खोती है।।
कीर्तन और भजन के सुर से, दिग्दिगन्त अनुनादित हैं।
सद्सिद्धांत यहाँ जीने के, पहले से प्रतिपादित हैं।।

वातावरण यहाँ ऐसा है, सत्संगत जितनी कर लो।
हरि का नाम धार के भव के, सारे कष्टों को हर लो।।
जप, तप, ध्यान, दान के साधन,‌ चाहो‌ जितने अपना लो।
नाना व्रत धारण कर सारी, जीवन की विपदा टालो।।

मार्ग प्रसस्त करे पग पग पर, सब का संतों की वाणी।
जग का सार बताए जिससे, लाभान्वित हो हर प्राणी।।
है यह सार्थक तभी कमाई, इसका सद्उपयोग करें।
जीवन सफल बनाएँ अपना, और जगत के दुःख हरें।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-17


Thursday, June 10, 2021

लावणी छन्द "सांध्य वर्णन"

 (लावणी छन्द)

दिन के उज्ज्वल अम्बर से ये, प्रगटी है संध्यारानी।
छिपते दिन की सब प्राणी को, कहने आयी ये वाणी।।
तेज भानु की तप्त करों को, छिपा लिया निज आँचल में।
रक्तवर्ण आभा बिखरा दी, सारे लोचन चंचल में।।

सांध्य निमंत्रण दी जीवों को, ठौर ठाँव में जाने का।
कार्यशील लोगों को ये दी, न्योता वापस आने का।।
कृषक वर्ग भी त्यज के अपने, प्यारे प्यारे खेतों को।
आवासों को हुए अग्रसर, ले कुदाल, हल, बैलों  को।।

पक्षी गण भी वनस्थली से, नीड़ों में उड़ सभी पड़े।
पशुगण चारागाह छोड़ के, स्वस्थानों में हुए खड़े।।
रंभाती गाएँ खुर-रज से, गगन धरा में धूल भरे।
सुंदर थाल सजा गृहरमणी, सांध्य दीप प्रज्वलित करे।।

संध्या ने अपने कलरव से, दिग्दिगंत मुखरित कर दी।
जो मध्याह्न मौन था उसमें, कोलाहल को ये भर दी।।
कैसी प्यारी शोभा है यह, अस्ताचल रवि गमन करे।
चंन्द्र चाँदनी अब छिटकाने, जग को सज-धज 'नमन' करे।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-05-2016

Friday, March 12, 2021

लावणी छन्द (ईश गरिमा)

तेरी ईश सृष्टि की महिमा, अद्भुत बड़ी निराली है;
कहीं शीत है कहीं ग्रीष्म है, या बसन्त की लाली है।
जग के जड़ चेतन जितने भी, सब तेरे ही तो कृत हैं;
जो तेरी छाया से वंचित, वे अस्तित्व रहित मृत हैं।।

धैर्य धरे नित भ्रमणशील रह, धार रखे जीवन धरती;
सागर की उत्ताल तरंगें, अट्टहास तुझसे करती।
कलकल करते सरिता नद में, तेरी निपुण सृष्टि झलके;
अटल खड़े गिरि खंडों से भी, तेरी आभा ही छलके।।

रम्य अरुणिमा प्राची में भर, भोर क्षितिज में जब सोहे;
रक्तवर्ण वृत्ताकृति शोभा, बाल सूर्य की जग मोहे।
चंचल चपल चांदनी में तू, शशि की शीतलता में है।
तारा युक्त चीर से शोभित, निशि की नीरवता में है,

मैदानों की हरियाली में, घाटी की गहराई में;
कोयल की कुहु-कुहु से गूँजित, बासन्ती अमराई में।
अन्न भार से शीश झुकाए, खेतों की इन फसलों में; 
तेरा ही चातुर्य झलकता, कामधेनु की नसलों में।।

विस्तृत एवम् स्वच्छ सलिल से, नील सरोवर भरे हुए;
पुष्पों के गुच्छों से मुकुलित, तरुवर मोहक लदे हुए।
घिरे हुए जो कुमुद दलों से, इठलाते प्यारे शतदल;
तेरी ही आभा के द्योतक, ये गुलाब पुष्पित अति कल।।

पंक्ति बद्ध विहगों का कलरव, रसिक जनों को हर्षाए;
वन गूँजाती वनराजों की, सुन दहाड़ मन थर्राए।
चंचल हिरणी की आँखों में, माँ की प्यार भरी ममता,
तुझसे ही तो सब जीवों की, शोभित रहती है क्षमता।।

हे ईश्वर हे परमपिता प्रभु, दीनबन्धु जगसंचालक;
तेरी कृतियों का बखान है, करना अति दुष्कर पालक।
अखिल जगत सम्पूर्ण चराचर, तुझसे ही तो निर्मित है;
तुझसे लालित पालित होता, तुझसे ही संहारित है।।

भाव प्रसून खिला दे हे प्रभु, हृदय वाटिका में मेरी;
काव्य-सृजन से सुरभित राखूँ, पा कर इसे कृपा तेरी।
मनोकामना पूर्ण करो ये, ईश यही मेरी विनती;
तेरे उपकारों की कोई, मेरे पास नहीं गिनती।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-05-2016

Thursday, December 10, 2020

लावणी छन्द "विष कन्या"

कई कौंधते प्रश्न अचानक, चर्चा से विषकन्या की।
जहर उगलती नागिन बनती, कैसे मूरत ममता की।।
गहराई से इस पर सोचें, समाधान हम सब पाते।
कलुषित इतिहासों के पन्ने, स्वयंमेव ही खुल जाते।।

पहले के राजा इस विध से, नाश शत्रु का करवाते।
नारी को हथियार बना कर, शत्रु देश में भिजवाते।।
जहर बुझी वो नाग-सुंदरी, रूप-जाल से घात करे।
अरि प्रदेश के प्रमुख जनों के, तड़पा तड़पा प्राण हरे।।

पहले कुछ मासूम अभागी, कलियाँ छाँटी थी जाती।
खिलने से पहले ही उनकी, जीवन बगिया मुरझाती।।
घोर बिच्छुओं नागों से फिर, उनको डसवाया जाता।
कोमल तन प्रतिरोधक विष का, इससे बनवाया जाता।।

पुरुषों को वश में करने के, दाव सभी पा वह निखरे।
जग समक्ष तब अल्हड़ कन्या, विषकन्या बन कर उभरे।।
छीन लिया जिस नर समाज ने, उससे बचपन मदमाता।
भला रखे कैसे वह उससे, नेह भरा कोई नाता।।

पुरुषों के प्रति घोर घृणा के, भाव लिये तरुणी गुड़िया।
नागिन सी फुफकार मारती, जहर भरी अब थी पुड़िया।।
जिससे भी संसर्ग करे वह, नख से नोचे या काटे।
जहर प्रवाहित कर वह उस में, प्राण कालिका बन चाटे।।

नये समय ने नार-शक्ति में, ढूंढा नव उपयोगों को।
वश में करती मंत्री, संत्री, अरु सरकारी लोगों को।।
दौलत से जो काम न सुधरे, वह सुलझा दे झट नारी।
कोटा, परमिट सब निकलाये, गुप्तचरी करले भारी।।

वर्तमान की ये विषकन्या, शत्रु देश को भी फाँसे।
अबला सबला बन कर देती,  प्रेम जाल के ये झाँसे।।
तन के लोभी हर सेना में, कुछ कुछ तो जाते पाये।
फिर ऐसों से साँठ गाँठ कर, राज देश के निकलाये।।

नारी की सुंदरता का नित, पुरुषों ने व्यापार किया।
क्षुद्र स्वार्थ में खो कर उस पर, केवल अत्याचार किया।।
विष में बुझी कटारी बनती, शदियों से नारी आयी।
हर युग में पासों सी लुढ़की, नर की चौपड़ पर पायी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-08-2016

Wednesday, February 12, 2020

मधुशाला छंद "सरहदी मधुशाला"

रख नापाक इरादे उसने, सरहद करदी मधुशाला।
रोज करे वो टुच्ची हरकत, नफरत की पी कर हाला।
उठो देश के मतवालों तुम, काली बन खप्पर लेके।
भर भर पीओ रौद्र रूप में, अरि के शोणित का प्याला।।

सीमा पर अतिक्रमण करे नित, पहन शराफत की माला।
उजले तन वालों से मिलकर, करता वहाँ कर्म काला।
सुप्त सिंह सा जाग पड़ा तब, हिंद देश का सेनानी।
देश प्रेम की छक कर मदिरा, पी कर जो था मतवाला।।

जो अभिन्न है भाग देश का, दबा शत्रु ने रख डाला।
नाच रही दहशतगर्दों की, अभी जहाँ साकीबाला।
नहीं चैन से बैठेंगे हम, जब तक ना वापस लेंगे।
दिल में पैदा सदा रखेंगे, अपने हक की यह ज्वाला।।

सरहद पे जो वीर डटे हैं, गला शुष्क चाहें हाला।
दुश्मन के सीने से कब वे, भर पाएँ खाली प्याला।
सदा पीठ पर वार करे वो, छाती लक्ष्य हमारा है।
पक के अब नासूर गया बन, वर्षों का जो था छाला।।

गोली, बम्बों की धुन पर नित, जहाँ थिरकती है हाला।
जहाँ चले आतंकवाद का, झूम झूम करके प्याला।
नहीं रहेगी फिर वो सरहद, मंजर नहीं रहेगा वो।
प्रण करते हम भारतवासी, नहीं रहे वो मधुशाला।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-10-2016

 16-14 मात्रा पर यति अंत 22

Monday, September 9, 2019

लावणी छन्द "विधान"

लावणी छन्द सम पद मात्रिक छंद है। इस छन्द में चार चरण होते हैं, जिनमें प्रति चरण 30 मात्राएँ होती हैं।

प्रत्येक चरण दो विभाग में बंटा हुआ रहता है जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है। अर्थात् विषम पद 16 मात्राओं का और सम पद 14 मात्राओं का होता है। दो-दो चरणों की तुकान्तता का नियम है। चरणान्त सदैव गुरु या 2 लघु से होना चाहिये।

16 मात्रिक वाले पद का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक पद की बाँट 12+2 है। 12 मात्रिक 3 चौकल या एक अठकल और एक चौकल हो सकते हैं। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया

लावणी छन्द "गृह-प्रवेश"

सपनों का संसार हमारा, नव-गृह यह मंगलमय हो।
कीर्ति पताका इसकी फहरे, सुख वैभव सब अक्षय हो।।
यह विश्राम-स्थली सब की बन, शोक हृदय के हर लेवे।
इसमें वास करे उसको ये, जीवन का हर सुख देवे।।

तरुवर सी दे शीतल छाया, नींव रहे दृढ़ इस घर की।
कृपा दृष्टि बरसे इस पर नित, सवित, मरुतगण, दिनकर की।।
विघ्न हरे गणपति इस घर के, रिद्धि सिद्धि का वास रहे।
शुभ ऐश्वर्य लाभ की धारा, घर में आठों याम बहे।।

कुटिल दृष्टि इस नेह-गेह पर, नहीं किसी की कभी पड़े।
रिक्त कभी हो जरा न पाये, पय, दधि, घृत के भरे घड़े।।
परिजन रक्षित सदा यहाँ हो, अमिय-धार इसमें बरसे।
हो सत्कार अतिथि का इसमें, याचक नहीं यहाँ तरसे।।

दूर्वा, श्री फल, कुंकुम, अक्षत, दैविक भौतिक विपद हरे।
वरुण देव का पूर्ण कलश ये, घर के सब भंडार भरे।।
इस शुभ घर से जीवन-पथ में, आगे बढ़ते जायें हम।
सकल भाव ये उर में धर के, मंगल गृह में आयें हम।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-04-19