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Tuesday, July 26, 2022

मुक्तक "बचपन"

कहाँ बचपन सुहाना छोड़ आया।
वो खुल हँसना हँसाना छोड़ आया।
नहीं कुछ फ़िक्र तब होती थी मन में।
कहाँ आलम पुराना छोड़ आया।।

(1222 1222 122)
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हमको ये मालूम नहीं है, किस्मत हमरी क्यों फूटी है,
जीवन जीने की आशाएँ, बचपन से ही क्यों टूटी है,
सड़कों पर कागज हम बीनें, हँस कर के तुम पढ़ते लिखते,
बसने से ही पहले दुनिया, किसने हमरी यूँ लूटी है।

(22×4//22×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-18

Monday, March 28, 2022

मुक्तक "बेवफाई"

शुरू बेवफ़ाई की जब भी, चर्चाएँ हो जाती हैं,
असफल प्रेम कथाओं की सब, यादें मन में छाती हैं,
इश्क़ मुहब्बत छोड़ और भी, ग़म दुनिया में हैं यारो,
आज बेवफ़ा नेताओं की, चालें कम न रुलाती हैं।

(ताटंक छंद)
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वार पीठ में करते देखा, लोगों को नज़दीकी से,
हुआ सामना तभी हमारा, दुनिया की तारीकी से,
देख बेवफ़ाई अपनों की, अश्क़ लहू के पीते हैं,
रंग बदलती इस दुनिया का, चखा स्वाद बारीकी से।

(ताटंक छंद)
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जो खाया जख्म अपनों से बताया भी नहीं जाता।
लगा है दिल के भीतर ये दिखाया भी नहीं जाता।
बड़ा बेचैन हूँ यारो करूँ भी तो करूँ क्या मैं।
कहीं अब और दुनिया छोड़ जाया भी नहीं जाता।।

(विधाता छंद वाचिक)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-08-17

Sunday, January 30, 2022

मुक्तक "टूलकिट"

(गीतिका छंद वाचिक)

टूलकिट से देश की छवि लोग धूमिल कर रहे,
शील भारत भूमि का बेशर्म हो ये हर रहे,
देशवासी इन सभी की असलियत पहचान लो,
पीढियों से देश को चर घर ये अपना भर रहे।

लोभ में सत्ता के कितने लोग अब गिरने लगे,
हो गये हैं टूलकिट के आज ये सारे सगे,
बाहरी की हैसियत क्या हम पे जो शासन करें,
लोग वे अपने ही जिन से हम रहे जाते ठगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
03-01-22

Thursday, January 20, 2022

मुक्तक "याद"

मुक्तक

हमें वे याद आते भी नहीं है,
कभी हमको सुहाये भी नहीं है,
मगर समझायें नादाँ दिल को कैसे,
कि पूरे इस से जाते भी नहीं है।

(1222  1222  122)
**********

ये तन्हाई सताती है नहीं बर्दास्त अब होती,
बसी यादें जो दिल में है नहीं बर्खास्त अब होती,
सनम तुझ को मनाते हम गए हैं ऊब जीवन से,
मिटा दो दूरियाँ दिल से नहीं दर्खास्त अब होती।

(1222*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-07-19

Wednesday, September 22, 2021

मुक्तक "हालात"

हालात से अभी मैं हिला तक ज़रा नहीं,
पर जख्म इस जहाँ का दिया भी भरा नहीं,
अहले जहाँ ये जान ले लड़ता रहूँगा मैं,
सुन लो जमाने वालों अभी मैं मरा नहीं।

(221  2121 1221  212)
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सदियों से चली आई रफ़्तार न बदलेंगे,
सुख दुख से भरा जो भी संसार न बदलेंगे,
ज़ालिम ओ जमाना सुन, चाहे तो बदल जा तू,
हालात हों कैसे भी दस्तार न बदलेंगे।

(221  1222)*2
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-8-18

Tuesday, June 15, 2021

मुक्तक (नारी)

पहचान ले नारी तू ताकत जो छिपी तुझ में,
कारीगरी उसकी जो सब ही तो सजी तुझ में,
मंजिल न कोई ऐसी तू पा न सके जिसको,
भगवान दिखे उसमें ममता जो बसी तुझ में।

(221  1222)*2
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बदी के बदले भलाई सदा न पाओगे,
सितम ढहाओगे, तुम भी वफ़ा न पाओगे,
सदा ही जुल्म किया औरतों पे मर्दों ने,
डरो ख़ुदा से नहीं तो पता न पाओगे।

(1212  1122  1212  22)
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जीवन में जो दाखिल हुई सौगात बनकर दिलरुबा,
जब हुस्न था तब तक रही नगमात बनकर दिलरुबा,
तू औरतों की हक़ परस्ती की करे बातें बड़ी,
तो क्यों रहे तेरे लिये खैरात बनकर दिलरुबा।

(2212×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-04-2017

Friday, April 16, 2021

मुक्तक (दुख, दर्द)

बेजुबां की पीड़ा का गर न दर्द सीने में,
सार कुछ नहीं फिर है इस जहाँ में जीने में।
मारते हो जीवों को ढूँढ़ते ख़ुदा को हो,
गर नहीं दया मन में क्या रखा मदीने में।

(212  1222)*2
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इस जमीं के सिवा कोई बिस्तर नहीं, आसमाँ के सिवा सर पे है छत नहीं।
मुफ़लिसी को गले से लगा खुश हैं हम, ये हमारे लिये कुछ मुसीबत नहीं।
उन अमीरों से पूछो जरा दोस्तों, जितना रब ने दिया उससे खुश हैं वो क्या।
पेट खाली भी हो तो न परवाह यहाँ, इस जमाने से फिर भी शिकायत नहीं।।

(212×8)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-17

Thursday, March 18, 2021

मुक्तक (जवानी)

खुले नभ की ये छत हो सर पे सुहानी,
करे तन को सिहरित हवा की रवानी,
छुअन मीत की हो किसे फिर है परवाह,
कि बैठें हैं कैसे, यही तो जवानी।

(122*4)
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जवानी का मजा है
हसीनों की सजा है
मरें हर रोज इसमें
कहाँ ऐसी क़जा है।

(1222 122)
********

न ऐसी कभी जिंदगानी लगी,
न दुनिया ही इतनी सुहानी लगी,
मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
न ऐसी कभी ये जवानी लगी।

(122*3 12)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-02-17

Monday, February 15, 2021

मुक्तक (घमण्ड, गुमान)

इतना भी ऊँची उड़ान में, खो कर ना इतराओ,
पाँव तले की ही जमीन का, पता तलक ना पाओ,
मत रौंदो छोटों को अपने, भारी भरकम तन से,
भारी जिनसे हो उनसे ही, हल्के ना हो जाओ।

(सार छंद)
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बिल्ले की शह से चूहा भी, शेर बना इतराता है,
लगे गन्दगी वह बिखेरने, फूल फुदकता जाता है,
खोया ही रहता गुमान में, वह नादान नहीं जाने,
हँसे जमाना उसकी मति पर, और तरस ही खाता है।

(ताटंक छंद)
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हवा बहुत ही भारी भारी, दम सा घुटता लगता है,
अहंकार की गर्म हवा में, तन मन जलता लगता है,
पंछी हम आज़ाद गगन के, अपनी दुनिया में चहकें,
रोज झपटते बाजों से अब, हृदय धड़कता लगता है।

(लावणी छंद)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-12-16

Saturday, December 26, 2020

मुक्तक (कांटे, फूल, मौसम)

हिफ़ाजत करने फूलों की रचे जैसे फ़ज़ा काँटे, 
खुशी के साथ वैसे ही ग़मों को भी ख़ुदा बाँटे,
अगर इंसान जीवन में खुशी के फूल चाहे नित,
ग़मों के कंटकों को भी वो जीवन में ज़रा छाँटे।

(1222×4)
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मौसम-ए-गुल ने फ़ज़ा को आज महकाया हुआ
है,
आमों पे भी क्या सुनहरा बौर ये आया हुआ है,
सुर्ख पहने पैरहन हैं टेसुओं की टहनियों ने,
खुशनुमा रंगों का मंजर हरतरफ छाया हुआ है।

(2122×4)
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सावन लगा तो हरतरफ मंजर सुहाना हो गया,
सब और हरियाली खिली लख दिल दिवाना हो गया,
उनके बिना इस खुशनुमा मौसम में सारी सून है,
महबूब अब तो आ भी जा काफ़ी सताना हो गया।

(2212×4)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-07-17

Sunday, November 22, 2020

मुक्तक (इंसान-2)

ढ़ोते जो हम बोझ चार पे, तुम वो दो पर ढ़ोते हो,
तरह हमारी तुम भी खाते, पीते, जगते, सोते हो,
पर उसने वो समझ तुम्हें दी, जिससे तुम इंसान बने,
वरना हम तुम में क्या अंतर, जो गरूर में खोते हो।

(लावणी छंद आधारित)
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बल बुद्धि शौर्य के स्वामी तुम, मानव जग में कहलाते हो,
तुम बात अहिंसा की करते, तुम ढोंग रचा बहलाते हो,
तुम नदी खून की बहा बहा, नित प्राण हरो हम जीवों के,
हम एक ईश की सन्तानें, फिर क्यों तुम यूँ दहलातेहो।

(मत्त सवैया)
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जुता रहा जीवन-कोल्हू में, एक बैल सा भरमाया,
आँखों पर पट्टी को बाँधे, लगातार चक्कर खाया,
तेरी खातिर मालिक ने तो, रची सुहानी दुनिया थी,
किंतु प्रपंचों में ही उलझा, उसको भोग न तू पाया। 

(लावणी छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-19

Tuesday, August 18, 2020

मुक्तक (उद्देश्य,स्वार्थ)

बेवज़ह सी ज़िंदगी में कुछ वज़ह तो ढूंढ राही,
पृष्ठ जो कोरे हैं उन पर लक्ष्य की फैला तु स्याही,
सामने उद्देश्य जब हों जीने की मिलती वज़ह तब,
जीएँ जो मक़सद को ले के चीज पाएँ हर वे चाही।

(2122*4)
**********

वैशाखियों पे ज़िंदगी को ढ़ो रहे माँ बाप अब,
वे एक दूजे का सहारा बन सहे संताप सब,
सन्तान इतनी है कृतघ्नी घोर स्वारथ में पगी,
माँ बाप चाहे मौत निश दिन अरु मिटे भव-ताप कब।

(हरिगीतिका  (2212*4)
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ऐसा है कौन आज फरिश्ता कहें जिसे,
कोई बता दे एक मसीहा कहें जिसे,
देखें जिधर भी आज है बस दौर स्वार्थ का ,
इससे बचा न एक भी अच्छा कहें जिसे।

(221 2121 1221 212)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-03-18

Saturday, June 13, 2020

मुक्तक (इंसान-1)

देखिए इंसान की कैसे शराफ़त मर गई,
लंतरानी रह गई लेकिन सदाकत मर गई,
बेनियाज़ी आदमी की बढ़ गई है इस क़दर,
पूर्वजों ने जो कमाई सब वो शुहरत मर गई।

आदमी के पेट की चित्कार हैं ये रोटियाँ,
ईश का सबसे बड़ा उपहार हैं ये रोटियाँ।
मुफ़लिसों के खून से भरतें जो ज़ाहिल पेट को,
ऐसे लोगों के लिये व्यापार हैं ये रोटियाँ।

(2122*3  212)
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मानवी-उद्यम से उपजा स्वेद श्रम जल-बिंदु हूँ मैं,
उसकी क्षमताओं से भाषित भाल सज्जित इंदु हूँ मैं,
व्यर्थ में मुझको बहाया या बहाया कुछ भला कर,
उसके सारे कर्म का प्रत्यक्ष द्रष्टा विंदु हूँ मैं।

विंदु= जानकार,ज्ञाता

(2122*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-01-19

Thursday, March 12, 2020

मुक्तक (आतंक)

आओ करें प्रण और अब आतंक को सहना नहीं,
अब मौन ज्यादा और हम को धार के रहना नहीं,
आतंक में डर डर के जीना भी भला क्या ज़िंदगी,
इसको मिटाने जड़ से अब करना है कुछ, कहना नहीं।

(2212×4)
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किस अभागी शाख का लो एक पत्ता झर गया फिर,
आसमां से एक तारा टूट कर के है गिरा फिर,
सरहदों के सैनिकों के खून की कीमत भला क्या,
वेदी पर आतंक की ये वीर का मस्तक चढ़ा फिर।

(2122*4)
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निशा आतंक की छायी गगन पर देश के भारी।
मरे शिव भक्त क्यों हैं बंद तेरे नेत्र त्रिपुरारी।
जो दहशतगर्द पनपे हैं किया दूभर यहाँ जीना।
मचा तांडव करो उनका धरा से नाश भंडारी।।

(1222×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-08-18

Monday, October 14, 2019

मुक्तक (आँसू)

मानस सागर की लहरों के हैं उफान मेरे आँसू,
वर्षों से जो दबी हृदय में वो पीड़ा कहते आँसू,
करो उपेक्षा मत इनकी तुम सुनलो ओ दुनियाँ वालों,
शब्दों से जो व्यक्त न हो उसको कह जाते ये आँसू।

(2×15)
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देख कर के आपकी ये जिद भरी नादानियाँ,
हो गईं लाचार सारी ही मेरी दानाइयाँ,
झेल जिनको कब से मैं बस खूँ के आँसू पी रहा,
लोग सरहाते बता कर आपकी ये खूबियाँ।

(2122*3 + 212)
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हम न वो राह से जो भटक जाएंगे,
इसकी दुश्वारियाँ देख थक जाएंगे,
हम तो खारों में भी हँसते गुल की तरह,
ये वो आँसू नहीं जो छलक जाएंगे

(212*3)
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बासुदेव अग्रवाल ,'नमन'
तिनसुकिया
24-08-17

Saturday, July 20, 2019

मुक्तक (उम्मीद,ईमान)

जो बने उम्मीद के थे वे क़िले अब ढ़ह गये;
जो महल ख्वाबों के थे वे आँसुओं में बह गये;
पर समझ अब आ गया है ढंग मुझ को जीने का;
जिंदगी जीता हूँ हँस तो ग़म सिमट के रह गये।

(2122*3  +  212)
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बड़ा जग में ईमान सब मानते हैं,
डिगेंगें न इससे क्या सब ठानते हैं,
बहुत कम ही ईमान वाले बचें अब,
बचें उनको भी हम कहाँ जानते हैं।

(122×4)
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कफ़स में क़ैद पंछी की तरह अरमान मेरे हैं,
अभी मज़बूरियाँ ऐसी हुए बेगाने अपने हैं,
मगर है हौसला जिंदा, न दे ये टूटने मुझ को,
झलक उम्मीद की पाने अभी खामोश सपने हैं।

(1222*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
9-4-17