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Tuesday, June 9, 2020

आल्हा छंद "मूर्खो पर मुक्तक माला"

आल्हा छंद / वीर छंद

मूर्खों की पीठों पर चढ़कर, नित चालाक बनाते काम।
मूर्ख जुगाली करते रहते, मग्न भजे अपने ही राम।
सिर धुन धुन फिर भाग्य कोसते, दूजों को वे दे कर दोष।
नाम कमा लेते प्रवीण जो, रह जाते हैं मूर्ख अनाम।।

मूर्खों के वोटों पर करते, नेता सत्ता-सुख का पान।
इनके ही चंदे पर चलते, ढोंगी बाबा के संस्थान।
काव्य-मंच पर लफ्फाजों को, आसमान में टांगे मूर्ख।
बाजारों में इनके बल पर, चले छूट की खूब दुकान।।

मूर्ख बनाये असुर गणों को, रूप मोहनी धर भगवान।
कृष्ण हरे गोपिन-मन ब्रज में, छेड़ बाँसुरी की मधु तान।
पृथ्वी-जन को छलते आये, वेश बदल कर सुर पति इंद्र।
कथित बुद्धिजीवी पिछड़ों का, खा लेते हैं सब अनुदान

निपट अनाड़ी गर्दभ जैसे, मूर्ख रहे त्यों सोच-विहीन।
आस पास की खबर न रखते,अपनी धुन में रहते लीन।
धूर्त और चालाक आदमी, ऐसों का कर इस्तेमाल।
जग की हर सुविधा को भोगे, भूखे मरते मूरख दीन।।

आल्हा छंद / वीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-12-2018

Monday, December 9, 2019

आल्हा छंद "आलस्य"

आल्हा छंद / वीर छंद

कल पे काम कभी मत छोड़ो, आता नहीं कभी वह काल।
आगे कभी नहीं बढ़ पाते, देते रोज काम जो टाल।।
किले बनाते रोज हवाई, व्यर्थ सोच में हो कर लीन।
मोल समय का नहिं पहचाने, महा आलसी प्राणी दीन।।

बोझ बने जीवन को ढोते, तोड़े खटिया बैठ अकाज।
कार्य-काल को व्यर्थ गँवाते, मन में रखे न शंका लाज।
नहीं भरोसा खुद पे रखते, देते सदा भाग्य को दोष,
कभी नहीं पाते ऐसे नर, जीवन का सच्चा सन्तोष।।

आलस ऐसा शत्रु भयानक, जो जर्जर कर देता देह।
मान प्रतिष्ठा क्षीण करे यह, अरु उजाड़ देता है गेह।।
इस रिपु से जो नहीं चेतते, बनें हँसी के जग में पात्र।
बन कर रह जाते हैं वे नर, इसके एक खिलौना मात्र।।

कुकड़ू कूँ से कुक्कुट प्रतिदिन, देता ये पावन संदेश।
भोर हुई है शय्या त्यागो, कर्म-क्षेत्र में करो प्रवेश।।
चिड़िया चहक चहक ये कहती, गौ भी कहे यही रंभाय।
वातायन से छन कर आती, प्रात-प्रभा भी यही सुनाय।।

पर आलस का मारा मानस, इस सब से रह कर अनजान।
बिस्तर पे ही पड़ा पड़ा वह, दिन का कर देता अवसान।।
ऊहापोह भरी मन-स्थिति के, घोड़े दौड़ा बिना लगाम।
नये बहाने नित्य गढ़े वह, टालें कैसे दैनिक काम।।

मानव की हर प्रगति-राह में, खींचे आलस उसके पाँव।
अकर्मण्य रूखे जीवन पर, सुख की पड़ने दे नहिं छाँव।।
कार्य-क्षेत्र में नहिं बढ़ने दे, हर लेता जो भी है पास।
घोर व्यसन यह तन मन का जो, जीवन में भर देता त्रास।।

आल्हा छंद / वीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन,
तिनसुकिया
02-09-16

Thursday, April 11, 2019

आल्हा छंद "समय"

आल्हा छंद / वीर छंद

कौन समय को रख सकता है, अपनी मुट्ठी में कर बंद।
समय-धार नित बहती रहती, कभी न ये पड़ती है मंद।।
साथ समय के चलना सीखें, मिला सभी से अपना हाथ।
ढल जातें जो समय देख के, देता समय उन्हीं का साथ।।

काल-चक्र बलवान बड़ा है, उस पर टिकी हुई ये सृष्टि।
नियत समय पर फसलें उगती, और बादलों से भी वृष्टि।।
वसुधा घूर्णन, ऋतु परिवर्तन, पतझड़ या मौसम शालीन।
धूप छाँव अरु रात दिवस भी, सभी समय के हैं आधीन।।

वापस कभी नहीं आता है, एक बार जो छूटा तीर।
तल को देख सदा बढ़ता है, उल्टा कभी न बहता नीर।।
तीर नीर सम चाल समय की, कभी समय की करें न चूक।
एक बार जो चूक गये तो, रहती जीवन भर फिर हूक।।

नव आशा, विश्वास हृदय में, सदा रखें जो हो गंभीर।
निज कामों में मग्न रहें जो, बाधाओं से हो न अधीर।।
ऐसे नर विचलित नहिं होते, देख समय की टेढ़ी चाल।
एक समान लगे उनको तो, भला बुरा दोनों ही काल।।

मोल समय का जो पहचानें, दृढ़ संकल्प हृदय में धार।
सत्य मार्ग पर आगे बढ़ते, हार कभी न करें स्वीकार।।
हर संकट में अटल रहें जो, कछु न प्रलोभन उन्हें लुभाय।
जग के ही हित में रहतें जो, कालजयी नर वे कहलाय।।

समय कभी आहट नहिं देता, यह तो आता है चुपचाप।
सफल जगत में वे नर होते, लेते इसको पहले भाँप।।
काल बन्धनों से ऊपर उठ, नेकी के जो करतें काम।
समय लिखे ऐसों की गाथा, अमर करें वे जग में नाम।।

आल्हा छंद / वीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-03-2018

Saturday, February 2, 2019

आल्हा छंद "अग्रदूत अग्रवाल"

आल्हा छंद / वीर छंद

अग्रोहा की नींव रखे थे, अग्रसेन नृपराज महान।
धन वैभव से पूर्ण नगर ये, माता लक्ष्मी का वरदान।।
आपस के भाईचारे पे, अग्रोहा की थी बुनियाद।
एक रुपैया एक ईंट के, सिद्धांतों पर ये आबाद।।

ऊँच नीच का भेद नहीं था, वासी सभी यहाँ संपन्न।
दूध दही की बहती नदियाँ, प्राप्य सभी को धन अरु अन्न।।
पूर्ण अहिंसा पर जो आश्रित, वणिक-वृत्ति को कर स्वीकार।
सवा लक्ष जो श्रेष्ठि यहाँ के, नाम कमाये कर व्यापार।।

कालांतर में अग्रसेन के, वंशज 'अग्रवाल' कहलाय।
सकल विश्व में लगे फैलने, माता लक्ष्मी सदा सहाय।।
गौत्र अठारह इनके शाश्वत, रिश्ते नातों के आधार।
मर्यादा में रह ये पालें, धर्म कर्म के सब व्यवहार।।

आशु बुद्धि के स्वामी हैं ये, निपुण वाकपटु चतुर सुजान।
मंदिर गोशाला बनवाते, संस्थाओं में देते दान।।
माँग-पूर्ति की खाई पाटे, मिलजुल करते कारोबार।
जो भी इनके द्वारे आता, पाता यथा योग्य सत्कार।।

सदियों से लक्ष्मी माता का, मिला हुआ पावन वरदान। 
अग्रवंश के सुनो सपूतों, तुम्हें न ये दे दे अभिमान।।
धन-लोलुपता बढ़े न इतनी, स्वारथ में तुम हो कर क्रूर।
'ईंट रुपैयै' की कर बैठो, रीत सनातन चकनाचूर।।

'अग्र' भाइयों से तुम नाता, देखो लेना कभी न तोड़।
अपने काम सदा आते हैं, गैर साथ जब जायें छोड़।।
उत्सव की शोभा अपनों से, उनसे ही हो हल्का शोक।
अपने करते नेक कामना, जीवन में छाता आलोक।।

सगे बिरादर बांधव से सब, रखें हृदय से पूर्ण लगाव।
जैसे भाव रखेंगे उनमें, वैसे उनसे पाएँ भाव।।
अपनों की कुछ हो न उपेक्षा, धन दौलत में हो कर चूर। 
नाम दाम सब धरे ही रहते, अपने जब हो जातें दूर।।

बूढ़े कहते आये हरदम, रुपयों की नहिं हो खनकार।
वैभव का तो अंध प्रदर्शन, अहंकार का करे प्रसार।।
अग्रसेन जी के युग से ही, अपनी यही सनातन रीत।
भाव दया के सब पर राखें, जीव मात्र से ही हो प्रीत।।

वैभव में कुछ अंधे होकर, भूल गये सच्ची ये राह।
जीवन का बस एक ध्येय रख, मिल जाये कैसे भी वाह।।
अंधी दौड़ दिखावे की कुछ, इस समृद्ध-कुल में है आज।
वंश-प्रवर्तक के मन में भी, लख के आती होगी लाज।।

छोड़ें उत्सव, खुशी, व्याह को, अरु उछाव के सारे गीत।
बिना दिखावे के नहिं निभती, धर्म कर्म तक की भी रीत।।
'बासुदेव' विक्षुब्ध देख कर, 'अग्र' वंश की अंधी चाल।
अब समाज आगे आ रोके, निर्णय कर इसको तत्काल।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
06-05-18

आल्हा छंद/वीर छंद 'विधान'

आल्हा छंद / वीर छंद

आल्हा छंद वीर छंद के नाम से भी प्रसिद्ध है जो 31 मात्रा प्रति पद का सम पद मात्रिक छंद है। यह चार पदों में रचा जाता है। इसे मात्रिक सवैया भी कहते हैं। इसमें यति 16 और 15 मात्रा पर नियत होती है। दो दो या चारों पद समतुकांत होने चाहिए। 

16 मात्रा वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाली है। 15 मात्रिक चरण का अंत ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। तथा बची हुई 12 मात्राएँ तीन चौकल के रूप में हो सकती हैं या फिर एक अठकल और एक चौकल हो सकती हैं। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे। 

’यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करते आल्हा छंद या वीर छंद के कथ्य अक्सर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। जनश्रुति इस छंद की विधा को यों रेखांकित करती है - 

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़। 
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़। 

परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि इस छंद में वीर रस के अलावा अन्य रस की रचना नहीं रची जा सकती।
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भारत के जवानों पर कुछ पंक्तियाँ।

संभाला है झट से मोर्चा, हुआ शत्रु का ज्योंही भान।
उछल उछल के कूद पड़े हैं, भरी हुई बन्दूकें तान।
नस नस इनकी फड़क उठी है, करने रिपु का शोणित पान।
झपट पड़े हैं क्रुद्ध सिंह से, भारत के ये वीर जवान।।

रिपु मर्दन का भाव भरा है, इनकी आँखों में अति क्रूर।
गर्ज मात्र ही सुनकर जिनकी, अरि का टूटे सकल गरूर।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, दृढ़ निश्चय कर जो तैयार।
दुश्मन के छक्के छुट जायें, सुन कर के उनकी हूँकार।।

(बासुदेव अग्रवाल 'नमन' रचित) ©