Sunday, April 26, 2020

हाइकु (आभासी जग)

आभासी जग
खा मनन, चिंतन
करे मगन।
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शाख बिछुड़ा
फूल न जान पाया
गड़ा या जला।
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गलियाँ ढूंढ़े
बच्चों के गिल्ली डंडे-
बस्ते में ठंडे।
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प्रीत का गर्व
कुछेक खास पर्व
समेटे सर्व।
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कब की भोर
रे राही सुन शोर
निद्रा तो छोड़।
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ओखली, घड़े
विकास तले गड़े
गाँव सिकुड़े।
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आज ये देश
प्रतिभा क्यों समेट?
भागे विदेश।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-01-2019

आसरो थारो बालाजी (जकड़ी विधा का गीत)

आसरो थारो बालाजी, काज सब सारो बालाजी।
भव सागर से पार उतारो, नाव फंसी मझ धाराँ जी।।

जद रावण सीता माता नै, लंका में हर ल्यायो,
सौ जोजन का सागर लाँघ्या, माँ को पतो लगायो।
आसरो थारो बालाजी, काज सब सारो बालाजी।

शक्ति बाण जब लग्यो लखन के, रामादल घबराया,
संजीवन बूंटी नै ल्या कर, थे ही प्राण बचाया।
आसरो थारो बालाजी, काज सब सारो बालाजी।

जद जद भीर पड़ै भक्तन में, थे ही आय उबारो,
थारै चरणां में जो आवै, वाराँ सब दुख टारो।
आसरो थारो बालाजी, काज सब सारो बालाजी।
भव सागर से पार उतारो, नाव फंसी मझ धाराँ जी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-5-19

तर्ज- तावड़ा मन्दो पड़ ज्या रै

Wednesday, April 22, 2020

मनहरण घनाक्षरी "गुजरात चुनाव"

गुजरात के चुनाव, लगें हैं सभी के दाव,
उल्टी गंगा कैसी कैसी, नेता ये बहा रहे।

मन्दिरों में भाग भाग, बोले भाग जाग जाग,
भोले बाबा पर डोरे, डाल ये रिझा रहे।

करते दिखावा भारी, लाज शर्म छोड़ सारी,
आसथा का ढोल देखो, कैसा वे बजा रहे।

देश छोड़ा वेश छोड़ा, धर्म और कर्म छोड़ा,
मन्दिरों में जाय अब, जात छोड़ आ रहे।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-12-17

Saturday, April 18, 2020

32 मात्रिक छंद "अनाथ"

कौन लाल ये छिपा हुआ है, जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में लिपटा।
दीन दशा मुख से बिखेरता, भीषण दुख-ज्वाला से चिपटा।।
किस गुदड़ी का लाल निराला, किन आँखों का है ये मोती।
घोर उपेक्षा जग की लख कर, इसकी आँखें निशदिन रोती।।

यह अनाथ बालक चिथड़ों में, आनन लुप्त रखा पीड़ा में।
बिता रहा ये जीवन अपना, दारुण कष्टों की क्रीड़ा में।।
गेह द्वार से है ये वंचित, मात पिता का भी नहिं साया।
सभ्य समझते जो अपने को, पड़ने दे नहिं इस पर छाया।।

स्वार्थ भरे जग में इसका बस, भिक्षा का ही एक सहारा।
इसने उजियारे कब देखे, छाया जीवन में अँधियारा।।
इसकी केवल एक धरोहर, कर में टूटी हुई कटोरी।
हाय दैव पर भाग्य लिखा क्या, वह भी तो है बिल्कुल कोरी।।

लघु ललाम लोचन चंचल अति, आस समेट रखे जग भर की।
शुष्क ओष्ठ इसके कहते हैं, दर्द भरी पीड़ा अंतर की।।
घर इसका पदमार्ग नगर के, जीवन यापन उन पे करता।
भिक्षाटन घर घर में करके, सदा पेट अपना ये भरता।।

परम दीन बन करे याचना, महा दीनता मुख से टपके।
रूखा सूखा जो मिल जाता, धन्यवाद कह उसको लपके।।
रोम रोम से करुणा छिटके, ये अनाथ कृशकाय बड़ा है।
सकल जगत की पीड़ा सह कर, पर इसका मन बहुत कड़ा है।।

है भगवान सहारा इसका, टिका हुआ है उसके बल पर।
स्वार्थ लिप्त संसार-भावना, जीता यह नित उसको सह कर।।
आश्रय हीन जगत में जो हैं, उनका बस होता है ईश्वर।
'नमन' सदा मैं उसको करता, जो पाले यह सकल चराचर।।

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-05-2016

Tuesday, April 7, 2020

ग़ज़ल (तेज़ कलमों की धार कौन करे)

बह्र:- 2122  1212   22

तेज़ कलमों की धार कौन करे,
दिल पे नग़मों से वार कौन करे।

जिनसे उम्मीद थी वो मोड़ें मुँह,
अब गरीबी से पार कौन करे।

जो मसीहा थे, वे ही अब डाकू,
उनके बिन लूटमार कौन करे।

आसमाँ ने समेटे सब रहबर,
अब हमें होशियार कौन करे।

पूछतीं कलियाँ भँवरे से तुझ को,
दिल का उम्मीदवार कौन करे।

आज खुदगर्ज़ी के जमाने में,
जाँ वतन पे निसार कौन करे।

आग नफ़रत की जो लगाते हैं,
उनको अब शर्मसार कौन करे।

*दाग़* पहले से ही भरें जिस में,
ऐसी सूरत को प्यार कौन करे।

आज ग़ज़लें 'नमन' हैं ऐसी जिन्हें,
शायरी में शुमार कौन करे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-08-19

ग़ज़ल (चोट दिल पर है लगी जो मैं)

बह्र: 2122 1122 1122  22

चोट दिल पर है लगी जो मैं दिखा भी न सकूँ,
बात अपनों की ही है जिसको बता भी न सकूँ।

अम्न की चाह यहाँ जंग पे वो आमादा,
ऐसे जाहिल से मैं नफ़रत को छिपा भी न सकूँ।

इश्क़ पर पहरे जमाने के लगे हैं कैसे,
एक नजराना मैं उनके लिए ला भी न सकूँ ।

सादगी मेरी बनी सब की नज़र का काँटा,
मुझको इतने हैं मिले जख़्म गिना भी न सकूँ।

हाय मज़बूरी ये कैसी है अना की मन में,
दोस्त जो रूठ गये उनको मना भी न सकूँ।

ऐसी दौलत से भला क्या मैं करूँगा हासिल,
जब वतन को हो जरूरत तो लुटा भी न सकूँ।

शाइरी ज़िंदगी अब तो है 'नमन' की यारो,
शौक़ ये ऐसा चढ़ा जिसको मिटा भी न सकूँ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-09-17

ग़ज़ल (दीन की ख़िदमत से बढ़कर)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

दीन की ख़िदमत से बढ़कर शादमानी फिर कहाँ,
कर सको उतनी ये कर लो जिंदगानी फिर कहाँ।

पास आ बैठो सनम कुछ मैं कहूँ कुछ तुम कहो,
शाम ऐसी फिर कहाँ उसकी रवानी फिर कहाँ।

नौनिहालों इन बुजुर्गों से ज़रा कुछ सीख लो,
इस जहाँ में तज्रबों की वो निशानी फिर कहाँ।

कद्र बूढ़ों की करें माँ बाप को सम्मान दें,
कब उन्हें ले जाएँ दौर-ए-आसमानी फिर कहाँ।

नौजवानों इस वतन के वास्ते कुछ कर भी लो,
सर धुनोगे बाद में ये नौजवानी फिर कहाँ।

गाँवों की उजड़ी दशा पर गर किया कुछ भी न अब,
उन भरे चौपालों की बातें पुरानी फिर कहाँ।

लिखता आया है 'नमन' खून-ए जिगर से नज़्म सब,
ठहरिये सुन लें ज़रा ये नज़्म-ख्वानी फिर कहाँ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-08-17

ग़ज़ल (छाया देते पीपल हो क्या)

बह्र:- 22  22  22  22

छाया देते पीपल हो क्या,
या दहशत के जंगल हो क्या।

जीवन का कोलाहल हो क्या,
थमे न जो वो दृग-जल हो क्या।

बजती जो पैसों की खातिर,
वैसी बेबस पायल हो क्या।

दुराग्रहों में अंधे हो कर,
सच्चाई से ओझल हो क्या।

दिखते तो हो, पर भीतर से,
मखमल जैसे कोमल हो क्या।

वक़्त चुनावों का जब आये,
हाल जो पूछे वो दल हो क्या।

गर हो माँ के आँचल से तो,
उसके जैसे शीतल हो क्या।

भूल गये बजरंग जिसे थे,
देश के बल तुम! वो बल हो क्या।

जाम-ओ-मीना हुस्न के जलवे,
'नमन' इन्हीं में पागल हो क्या।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-10-19