Thursday, December 29, 2022

विविध मुक्तक -11

तुम मेरी पाक़ मुहब्बत का ये दरिया देखो,
झाँक आँखों में मेरी इस को उमड़ता देखो,
गर नहीं फिर भी यकीं चीर लो सीना मेरा,
दिले नादाँ पे असर कितना तुम्हारा देखो।

(2122 1122 1122 22)
***  ***

कभी भी जब मुझे उनका ख़याल आता है,
तो गोते यादों में गुज़रा जो साल खाता है।
नज़र झुका के तुरत पहलू में सिमट जाना,
नयन पटल पे वो सारा ही काल छाता है।

(1212 1122 1212 22)
***  ***

साथ सजन तो चाँद सुहाना लगता है,
दूर पिया तो वो भी जलता लगता है,
उस में लख पिय की परछाई पूछ रहे,
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है।

मुक्तक  2*11
***  ***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-07-22

Saturday, December 24, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -२)

जनक आदि ने कर्म से, प्राप्त किया निर्वाण। 
श्रेष्ठ जनों का आचरण, जग में सदा प्रमाण।।२२।। 

तुम भी बनो उदाहरण, जग समक्ष हे पार्थ। 
जन-हित की रख भावना, कर्म करो लोकार्थ।।२३।। 

मुझ ईश्वर का विश्व में, शेष न कछु कर्त्तव्य।
प्राप्तनीय भी कुछ नहीं, कर्म करूँ पर दिव्य।।२४।।

सावधान हो मैं न यदि, रहूँ कर्म संलग्न। 
छिन्न भिन्न कर जग करूँ, लोक-आचरण भग्न।।२५।। 

लोक-मान्यता ध्यान रख, ज्ञानी का हो आचरण।
लोगों पर डाले न वो, बुद्धि-भेद का आवरण।।२६।। उल्लाला छंद

करे स्वयं कर्त्तव्य अरु, प्रेरित अन्यों को करे।
अज्ञानी आसक्त की, मन की दुविधा वो हरे।।२७।। उल्लाला 

प्रकृति जनित गुण से हुवे, कर्म सृष्टि के सारे।
अहम् भाव से मूढ़ पर, कर्ता खुद को धारे।।२८।। मुक्तामणि छंद 

त्रीगुणाश्रित ये सृष्टि है, कर्म गुणों में अटके। 
गुण ही कारण कार्य गुण, जो जाने नहिँ भटके।।२९।। मुक्तामणि छंद 

गुण अरु कर्म रहस्य से, जो नर हैं अनभिज्ञ। 
ऐसे गुण-सम्मूढ़ को, विचलित करे न विज्ञ।।३०।।
 
त्यज ममत्व आशा सभी, दोष-दृष्टि सन्ताप। 
सौंप कर्म सब ही मुझे, युद्ध करो निष्पाप।।३१।। 

मुझमें देखे दोष जो, सभी ज्ञान से भ्रष्ट। 
यह मत जो मानें नहीं, उनको समझो नष्ट।।३२।। 

परवश सभी स्वभाव के, विज्ञ न भी अपवाद। 
क्या इसमें फिर कर सके, निग्रह दमन विषाद।।३३।। 

सुख से सब को राग है, दुख से सब को द्वेष।
बाधा दे कल्याण में, दोनों का परिवेश।।३४।। 

अनुपालन निज धर्म का, उत्तम यध्यपि हेय। 
मरना भी इसमें भला, अन्य धर्म भय-देय।।३५।।

क्यों फिर हे माधव! कहो, पापों में नर मग्न।
बल से ज्यों उसको किया, बिन इच्छा संलग्न।।३६।।

देत रजोगुण कामना, उससे जन्मे क्रोध।
पार्थ परम वैरी समझ, दोनों का अवरोध।।३७।।

गर्भ अग्नि दर्पण ढके, जेर धूम्र अरु मैल।
त्यों विवेक अरु ज्ञान को, ढकता तृष्णा-शैल।।३८।।

अनल रूप यह कामना, कभी न जो हो शांत।
ज्ञानी जन के ज्ञान को, सदा रखे यह भ्रांत।।३९।।

इन्द्रिय मन अरु बुद्धि में, रहे काम का वास।
तृष्णा इनसे ही करे, ज्ञान मनुज का ह्रास।।४०।।

इन्द्रिय की गति साध, सभी दुख की प्रदायिनी।
प्रथम कामना मार, ज्ञान विज्ञान नाशिनी।।४१।। रोला छंद

तन से इन्द्रिय सूक्ष्म, इन्द्रियों से फिर मन है।
मन से पर है बुद्धि, अंत में आत्म-मनन है।।४२।। रोला

आत्म तत्व पहचान, हृदय में कर के मंथन।
अपने को तू तोल, काम-रिपु का कर मर्दन।।४३।। रोला

इति तृतीय अध्याय 

रचयिता :
बासुदेव अग्रवाल 


Wednesday, December 21, 2022

चंडिका छंद "आँखें"

चंडिका छंद / धरणी छंद

जिनसे जग लख, मैं बहूँ।
उन आँखों पर, क्या कहूँ।।
भव की इनसे, भव्यता।
प्राणी की सब, योग्यता।।

आँखें हैं तो, प्रीत है।
सब कामों में, जीत है।।
नयनों की कर, चाकरी।
रचता हूँ मैं, शायरी।।

नयन आपके, झील से।
कजरारे कुछ, नील से।।
मेरे मन पर, राजते।
डुबा डुबा कर, मारते।।

नीली आँखें, आपकी।
जड़ ये मन के, ताप की।।
हिरणी सी ये, चंचला।
करती मुझको, बावला।।

दो दो दीपक, नैन के।
जलते जो बिन, चैन के।।
कहें आपकी, भावना।
छिपी हृदय में, कामना।।

नयनों के जो, तीर से।
घायल इसकी, पीर से।।
इश्क सताया, पूत है।
रहता सर पर, भूत है।।

दो ही आँखें, हैं भली।
गोरी हो या, साँवली।।
दो से जब ये, चार हों।
चैन रैन के, पार हों।।

ऊपर के इन, नैन का।
नहीं भरोसा, बैन का।।
मन की आँखें, खोल के।
देखें जग को, तोल के।।

आँखो की जो, रोशनी।
जीवन की वह, चाँदनी।।
सृष्टि इन्हीं से, भासती।
'नमन' उतारे, आरती।।
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चंडिका छंद / धरणी छंद विधान -

चंडिका छंद जो कि धरणी छंद के नाम से भी जाना जाता है, 13 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत रगण (S1S) से होना आवश्यक है। इसमें प्रथम 8 मात्रा पर यति अनिवार्य है। यह भागवत जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 13 मात्राओं का विन्यास अठकल, रगण (S1S) है। यह विन्यास दोहा छंद के विषम चरण वाला ही है।
अंतर केवल अठकल के बाद यति का है तथा अंतिम 5 मात्रा गुरु, लघु, गुरु वर्ण के रूप में हो।

अठकल = 4 4 या  3 3 2
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
31-05-22

Sunday, December 11, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "छंदा")

                        पाठ - 05

छंदा सागर ग्रन्थ

(छंद के घटक "छंदा")

छंदा शब्द की व्युत्पत्ति छंद से हुई है। छंदा का अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदाओं के नाम में ही उनका पूरा विधान रहता है। छंद में वर्णों की आवृत्ति का, कल आधारित छंद में कल की आवृत्ति का, मध्य में यदि कहीं यति है तो उसका तथा छंद के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान उसकी छंदा के नाम से ही मिल जाता है। चतुर्थ पाठ में हमने छंदाओं के नामकरण में प्रयुक्त संख्यावाचक तथा अन्य संकेतकों के विषय में विस्तार से जाना। तृतीय पाठ में विभिन्न गुच्छक की संरचना के विषय में जाना। अब इस पंचम पाठ से हम  छंदाओं की संरचना का अध्ययन करेंगे। इस छंदा-सागर ग्रन्थ का उद्देश्य हिन्दी में प्रचलित छंदों की छंदाएँ बनाकर प्रस्तुत करना है जो सामने आते ही पूरी छंद का स्वरूप प्रकट हो जाये। हमें अनेक छंदों के नाम तो याद रहते हैं पर विधान याद नहीं रहता। अब उस छंद में रचना करने के लिए उसके विधान को खोजना पड़ता है। परन्तु हम जो इन पाठों के माध्यम से अध्ययन कर रहे हैं उससे हमें छंदा के नाम में ही छुपा उसका पूरा विधान मिल जायेगा।

छंदाओं से संबन्धित पाठों का संयोजन छंदाओं को स्वरूप के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभक्त करके किया गया है। इस कड़ी में सर्वप्रथम वृत्त छंदाएँ आती हैं।

वृत्त छंदा:- इन छंदाओं में केवल एक गुच्छक रहता है और उसी एक गुच्छक की कई आवृत्ति रहती है, इसीलिए इनका नाम वृत्त-छंदा दिया गया है। एक ही मात्रा क्रम की विभिन्न आवृत्ति से विशेष लय बनती है और इस बात से वे सभी लोग भलीभांति परिचित होंगे जो सवैया छंद से परिचित हैं। 

वृत्त छंदाओं में एक गुच्छक की 1, 2, 3, 4, 6 और 8 की आवृत्ति से कुल 6 प्रकार की छंदाएं मिलती हैं। एक की आवृत्ति के लिये छंदा में चार वर्ण होने आवश्यक हैं अतः त्रिवर्णी गण में एक की आवृत्ति की छंदाएँ नहीं हैं। 

वृत्त छंदाएँ सर्वाधिक प्रचलित छंद हैं। हिन्दी में विभिन्न नामों से ये छंद प्रचलित हैं। वृत्त छंदाओं की रचना छंदों के तीनों स्वरूप - वाचिक, मात्रिक और वर्णिक में होती है। उदाहरणार्थ - ईयग गणक की 4 आवृत्ति (1222*4) की वृत्त छंदा हर स्वरूप में प्रचलित है। हर स्वरूप में रचना करने के अलग अलग नियम हैं। इसी विभिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए इस ग्रन्थ में हर स्वरूप की अलग छंदाएँ दी हुई हैं जिससे कि छंदा का नाम सामने आते ही यह पता चल जाय कि यह किस गुच्छक की, कितनी आवृत्ति की, छंद के किस स्वरूप की छंदा है। इसके मध्य में यदि यति है तो उसका भी पता चल जाये। छंदों के तीन स्वरूप निम्न हैं।

(1) वाचिक स्वरूप:- वाचिक रूप में उच्चारण की प्रधानता रहती है। एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु सदैव गुरु वर्ण के रूप में प्रयुक्त होते  हैं। जहाँ भी दो लघु (11) दर्शाये जाएँगे वे सदैव 'ऊलल' वर्ण यानी स्वतंत्र लघु माने जाते हैं। यदि इन्हें एक शब्द में रखना है तो एक लघु की या दोनों लघु की मात्रा गिरानी आवश्यक है। मात्रा गिराने का अर्थ प्रत्यक्ष रूप में वर्ण तो दीर्घ है परन्तु उच्चरित लघु होता है।

मात्रा पतन:- मात्रा पतन के कुछ विशेष नियम हैं जिनके अन्तर्गत मात्रा पतन किया जा सकता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में यह नियमों के अंतर्गत आता है और इस छूट के कारण रचनाकार को शब्द चयन का कुछ अतिरिक्त क्षेत्र मिल जाता है।

1- एक वर्णी कारक चिन्ह, सहायक क्रिया व अन्य शब्दों की मात्रा गिरा कर उन्हें लघु मान सकते हैं जैसे - का की हैं मैं था भी ही आदि। परन्तु संयुक्त अक्षर से युक्त ऐसे शब्दों की मात्रा नहीं गिराई जा सकती जैसे - क्यों क्या त्यों आदि।
2- शब्द के अंत के गुरु की मात्रा गिरा कर आवश्यकतानुसार लघु की जा सकती है। किंतु इसमें भी ऐ, औ की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। 
3- शब्द के बीच या प्रारंभ में आये गुरु वर्ण की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। परन्तु तेरा, मेरा, कोई जैसे कुछ शब्दों में दोनों अक्षरों की मात्रा गिराई जा सकती है। इसमें भी गायेगा, जाएगा, सिखायेगा जैसे शब्दों के मध्य के ये, ए को लघु की तरह गिना जा सकता है।
4- शास्वत दीर्घ यानि एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु की मात्रा कभी भी नहीं गिराई जा सकती। इसी कारण से यह शास्वत दीर्घ कहलाता है।

मात्रा पतन के अतिरिक्त वाचिक स्वरूप में पदांत में लघु वृद्धि मान्य है। वैसे तो प्रायः छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ अलग से दी गयी हैं। परन्तु गुर्वंत छंदाओं में रचनाकार लघु वृद्धि करने के लिए स्वतंत्र है। वाचिक में ग वर्ण से प्रारंभ होने वाले वर्ण तथा म से प्रारंभ होनेवाले गुच्छक के गुरु वर्ण को ऊलल (11) वर्ण में तोड़ने की छूट है यदि उस वर्ण के दोनों तरफ भी गुरु वर्ण रहे। जैसे रबगी छंदा के गी (22) को 112 रूप में लिया जा सकता है।

(2) मात्रिक छंद:- मात्रिक छंदों में किसी भी प्रकार का मात्रा पतन अमान्य है। इन छंदों में गुरु वर्ण को दो लघु में तोड़ा जा सकता है। मात्रिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है, अतः 'ऊलल' वर्ण (11) को एक शब्द में शास्वत दीर्घ के रूप में रखा जा सकता है पर 'ऊलल' वर्ण दीर्घ में रूपांतरित नहीं हो सकता।

(3) वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद की रचना सदैव गुच्छक में प्रयुक्त लघु गुरु के अनुरूप होनी चाहिए। न कोई मात्रा पतन होना चाहिए और न ही गुरु को दो लघु में तोड़ा जाना चाहिए। इन में भी स्वतंत्र लघु जैसी कोई विचारधारा नहीं है।

वृत्त छंदाओं के पश्चात हम गुरु छंदाओं का अध्ययन करेंगे। 

गुरु छंदाएँ:- जैसा कि नाम से स्पष्ट है, वे छंदाएँ जो केवल गुरु (2) और ईगागा वर्ण (22) तथा मगण, ईमग गणक (2222) और एमागग गणक (22222) के संयोग से बनी होती हैं। गुरु छंदाएँ समकल आधारित होती हैं और समस्त छंद बद्ध सृजन का आधार होती हैं। इनकी लय और गति अबाध शांत रूप से बहती कलकल करती सरिता के समान होती है। ये छंदाएँ द्विकल गुरु वर्ण (2), चौकल ईगागा (22), छक्कल मगण (222) और अठकल ईमग (2222) के संयोग से बनती हैं। ये छंदाएँ सामान्यतः 2*4 से प्रारंभ हो कर 2*16 तक बनती हैं।

मिश्र छंदाएँ:- वे छंदाएँ जिनमें एक से अधिक प्रकार के गुच्छक या गुच्छक और वर्ण रहते हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इन पर प्रारंभ के गण के आधार पर सात पाठों में पूर्ण प्रकाश डाला गया है। मिश्र छंदाओं के विषय में एक अलग से पाठ दिया गया है जिसमें इनकी पूर्ण व्याख्या की गयी है।

उपरोक्त समस्त प्रकार की छंदाओं की क्रमशः
वाचिक, मात्रिक और वर्णिक तीनों स्वरूप की छंदाएँ इस ग्रन्थ में दी गई हैं। साथ ही छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ भी दी गई हैं।

इसके पश्चात हिन्दी की मात्रिक छंदों की छंदाएँ हैं अंत में वर्णिक छंदों की छंदाएँ दी गई हैं। इन्हींके अंतर्गत अलग पाठों में कवित्त और सवैया की छंदाएँ भी सम्मिलित की गई हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Tuesday, December 6, 2022

सुचि और संदीप के विवाह की रजत जयंती


तारिख पच्चिस मास दिसम्बर की शुभ बेला आई।
घर की प्यारी मुनिया 'शुचिता' इस दिन हुई पराई।
प्रणयबन्ध में बन्ध वो लाडो हर्षित हो सकुचाई। 
पच्चिस वर्षों पूर्व जमी ये जोड़ी सबकी मन भाई।।

जीवन साथी संदीप संग जीवन की खुशियाँ लाई।
रौनक सा सुत और बार्बी मिष्टी सी बिटिया पाई।
मन के मीत और बच्चों संग सुघड़ गृहणी बन छाई।
दो दो घर को आज जोड़ती सबको लगे सुहाई।।

शादी की है रजत जयंती आज बड़ी है वो हरषाई।
बच्चे जीवन साथी को ले पावन गंगा तट पर आई।
संग मनाये रजत जयंती भैया भाभी देत बधाई।
जीवन की हर खुशियाँ पाओ सदा रहो यूँ ही मुस्काई।।

बासुदेव अग्रवाल नमन 
25-12-2018

Friday, December 2, 2022

लावणी छंद "सच्ची कमाई"

सच्ची तुम ये किये कमाई, मानुस तन जो यह पाया।
देवों को भी जो है दुर्लभ, तुमने पायी वह काया।।
इस कलियुग में जन्म लिया फिर, नाम जपे नर तर जाये।
अन्य युगों के वर्षों का फल, इसमें तुरत-फुरत पाये।।

जन्मे तुम उस दिव्य धरा पर, देव रमण जिस पर करते।
शुभ संस्कार मिले ऋषियों के, भव-बन्धन जो‌ सब हरते।।
नर-तन में प्रभु भारत भू पर, बार बार अवतार लिये।
कर लीला हर भार भूमि का, उपकारी उपदेश दिये।।

धर्म सनातन जिसमें सोहे, ऐसा अनुपम गेह मिला।
गीता रामायण सम प्यारे, कुसुमों से यह देह खिला।।
वेद पुराण भागवत पावन, सीख सदा सच्ची देवें।
इस जीवन अरु जन्मांतर के, बंधन सारे हर लेवें।।

मंदिर के घण्टा घोषों से, भोर यहाँ पर होती है।
मधुर आरती की गूँजन में, सांध्य निशा में खोती है।।
कीर्तन और भजन के सुर से, दिग्दिगन्त अनुनादित हैं।
सद्सिद्धांत यहाँ जीने के, पहले से प्रतिपादित हैं।।

वातावरण यहाँ ऐसा है, सत्संगत जितनी कर लो।
हरि का नाम धार के भव के, सारे कष्टों को हर लो।।
जप, तप, ध्यान, दान के साधन,‌ चाहो‌ जितने अपना लो।
नाना व्रत धारण कर सारी, जीवन की विपदा टालो।।

मार्ग प्रसस्त करे पग पग पर, सब का संतों की वाणी।
जग का सार बताए जिससे, लाभान्वित हो हर प्राणी।।
है यह सार्थक तभी कमाई, इसका सद्उपयोग करें।
जीवन सफल बनाएँ अपना, और जगत के दुःख हरें।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-17