Wednesday, June 26, 2024

राखी (कुण्डलिया छंद)

राखी का त्योहार है, भ्रात बहन का प्यार।
बहना राखी बाँधती, भाई करे दुलार।
भाई करे दुलार, वचन रक्षा का देता।
जीवन भर का बोझ, बहन का काँधे लेता।
कहे 'बासु' कविराय, डोर रक्षा की साखी।
बंधन सदा अटूट, बँधी जो कर में राखी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
17-08-2016

Wednesday, June 19, 2024

"आँसू"

मानस के गहरे घावों को स्मर,
जो अनवरत है रोती।
उसी हृदय की टूटी माला के,
बिखरे हुये ये मोती।।1।।

मानस सागर की लहरों के,
ये आँसू फेन सदृश हैं।
लोक लोचन समक्ष ये आँसू पर,
इनके भाव अदृश हैं।।2।।

करुण हृदय के गम्भीर भाव के,
ये रूप हैं अति साकार।
उस भाग्यहीन माँ के अश्रु ये,
दुःख है जिसका निराकार।।3।।

वह भाग्यवती गृह रमणी सुंदर,
जिसकी दुनिया सम्पन्न थी।
थे जग के सब वैभव प्राप्य उसे,
गृह में उसकी कम्पन थी।।4।।

उस सम्पन्ना का था एक सहारा,
था अनुरूप उसके सब भाँति।
जीवन में थी उनके हरियाली,
छिटकी हुयी थी कीर्ति कांति।।5।।

उन दोनों के जीवन मध्य एक,
विकशित था जीवन बिंदु।
मोहित करता उनको क्रीडा से,
वह रजनी का कल इंदु।।6।।

बीता रही थी उनका यह जीवन,
सुंदर सुंदर कल क्रीडा।
उनसे हो क्रूर विधाता वाम,
ला दी जीवन मे भीषण पीड़ा।।7।।

हा छीन लिया उस रमणी से,
उसका जीवन धन समस्त।
धुल गया सुहाग का सिन्दूर,
हुवा कांति का सूर्य अस्त।।8।।

पर एक वर्ष भी बीत न पाया,
उस सुहाग को लुटे हुये।
दूजी बड़ विपदा ने आ घेरा,
दुःख की सेना लिये हुये।।9।।

जो उगा हुवा था नव मयंक,
बिखेर रहा था शुभ्र प्रकाश।
पर वाम विधाता भेज राहु को,
करवा डाला उसका ह्रास।।10।।

उसी समय से दुखिया के जीवन में,
छाया कष्टों का तूफान।
संगी साथी सब त्याग चले,
अब जीवन बना वीरान।।11।।

अब हर गली द्वार वह भटक भटक,
करती इस पीड़ा का स्मरण।
उस विकशित जीवन की यादों में,
ढुलका देती दो अश्रु कण।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता 

Monday, June 10, 2024

दोहे (धन तेरस)

धनतेरस का पुण्य दिन, जग में बड़ा अनूप।
रत्न चतुर्दश थे मिले, वैभव के प्रतिरूप।।

आज दिवस धनवंतरी, लाए अमरित साथ।
रोग विपद को टालते, सर पे जिसके हाथ।।

देव दनुज सागर मथे, बना वासुकी डोर।
मँदराचल थामे प्रभू, कच्छप बन अति घोर।।

प्रगटी माता लक्षमी, सागर मन्थन बाद।
धन दौलत की दायनी, करें भक्त नित याद।।

शीतल शशि उस में मिला, शंभु धरे वह माथ।
धन्वन्तरि थे अंत में, अमिय कुम्भ ले हाथ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
28-10-2016

Wednesday, June 5, 2024

"भारत यश गाथा"

ज्ञान राशि के महा सिन्धु को,
तमपूर्ण जगत के इंदु को,
पुरा सभ्यता के केंद्र बिंदु को,
नमस्कार इसको मेरे बारम्बार ।
रूप रहा इसका अति सुंदर,
है वैभव इसका जैसा पुरंदर,
स्थिति भी ना कम विस्मयकर,
है विधि का ये पावन पुरस्कार ।।1।।

प्रकाशमान किया विश्वाम्बर,
अनेकाब्दियों तक आकर,
इसका सभ्य रूप दिवाकर,
छाई इसकी पूरे भूमण्डल में छवि ।
इसका इतिहास अमर है,
इसका अति तेज प्रखर है,
इसकी प्रगति एक लहर है,
ज्ञान काव्य का है प्रकांड कवि ।।2।।

रहस्यों से है ना वंचित,
कथाओं से भी ना वंचित,
अद्भुत है न अति किंचित्,
सुंदर इसका भारत अभिधान ।
शकुंतला दुष्यंत का पुत्र रत्न,
धीर वीर सर्व गुण सम्पन्न,
गूंजा जिसका रण में कम्पन,
भरत भूप पर इसका शुभ नाम ।।3।।

ऋषभदेव का पुत्र विख्याता,
जड़ भरत नाम जिसका जग गाता,
उससे भी है इसका नाता,
केवल नाम मात्र इतना महान ।
इस धरा के रंग मंच पर,
प्रगटे अनेक वीर नर वर,
जिनकी पुन्य पताका रही फहर,
जग गाता आज उनका गुणगान ।।4।।

सम्राटों की दानशीलता,
उनकी शरणागतवत्सलता,
उनकी प्रजा हित चिन्तकता,
है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में चमक रही ।
भगवन को भी यह भाया,
समस्त संसार को बिसराया,
अपना यहाँ धाम बसाया,
की मुक्त असुर भार से अखिल मही ।।5।।

प्राकृतिक दशा भी ना कम है,
इतिहास से अग्र दो कदम है,
जग से दूर इसका जन्म है,
विश्व में इसका एक अलग अस्तित्व ।
उत्तर में गिरिराज हिमांचल,
धवल रूप फैलाता आँचल,
रूप श्रेणियों का अति चँचल,
देश पर इसका गम्भीर महत्व ।।6।।

दक्षिण में इसका चाकर,
बना हुआ पावन रत्नाकर,
धन्य देश उसको पाकर,
सिंचित करती इसकी जलधारा ।
स्वर्ग द्वार की शुभ सोपान,
महेश जटा की शुभ शान,
सुरसरिता जैसी नदी महान,
बहती इसमें पाप पुञ्ज हारा ।।7।।

यमुना की वह पावन गूँज,
कावेरी के मनमोहक कुंज,
नदियों के बलखाते पुञ्ज,
छाए हुए इस धरती के ऊपर ।
झरनों की सुंदर झरझर,
झीलों की वह शोभा प्रखर,
नदियों की मतवाली लहर,
गूँजाती इसका नभ आठों पहर ।।8।।

मधुपरियों का मोहक स्वांग,
मधुकर का नित गुंजित राग,
पुष्पों के मधु पूरित पराग,
हर कोने में सुरभित फैलाते।
फल लदे पादप अनेक,
वृक्षावेष्टित लता प्रत्येक,
केशर क्यारी एक एक,
सब घाटी के धरातल को सजाते ।।9।।

मानसरोवर के हँस धवल,
कैलाश की शोभा नवल,
हिममंडित श्रेणियाँ प्रबल,
है पावन स्वर्ग के शाक्षात द्वार ।
प्रकृति का हम पर आभार,
करती यहाँ वह षट् श्रृंगार,
ऋतुएँ देती अलग संसार,
नवल रूप से आकर हर बार ।।10।।

अल्प नहीं राजबाला से,
गीत सुने सरिता वीणा से,
अभय है तुंग शैल रक्षा से,
भारत भूमि का धरातल पावन ।
प्रकृति जिसकी स्वयं सहचरी,
फलदायिनी वाँछाकारी,
सिंचन करता सागर वारि,
वस्त्र बनाती हरियाली मनभावन ।।11।।

जिसकी धरा इतनी विकशित,
वसुधा जिसकी वैभव से सित,
धरती जिसकी इतनी प्रफुल्लित,
कम क्यों होंगे उस माता के जन ।
पुत्रों में रहा स्वाभिमान,
मातृभूमि पर रहा अभिमान,
विजयी बनी इसकी सुसंतान,
वीर पुत्र रहे वैभव से सम्पन्न ।।12।।

मानवता के रहे पूजारी,
सत्यव्रत के पालनकारी,
शरणागत के कष्टनहारी,
रहे भूप यहाँ के प्रजापालक ।
नृप थे इतने औजवान्,
भूप थे इतने वीर्यवान्,
नरेश थे इतने शौर्यवान्,
जिनकी शरण चाहता सुर पालक ।।13।।

बने हरिश्चंद्र चाण्डाल भृत्य,
प्राण त्याग शिवि हुए कृत कृत्य,
अस्थिदान किए मुनि ये सत्य,
दान प्रियता शरणागत रक्षा कारण ।
भिक्षु बना अशोक सम्राट,
भर्तरी त्यागा राजपाट,
पांडव भटके घाट घाट,
भटके रघुनंदन पितु आज्ञा कारण ।।14।।

जग गाता इसका गुणगान,
यह है सर्वरतन की खान,
इसका गौरव अति महान,
रक्षा पाते यहाँ दीन दुखी अति आरत ।
करें देश सेवा हो निश्चल,
रिपु मन में मचा दें हलचल,
यह संकल्प हमारा हो अटल,
प्राणों से हो उच्च हमारा भारत ।।15।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता