Saturday, February 3, 2024

"इधर और उधर"

इधर चलती जनता कछुए सी धीमी चाल,
मचा भीषण आर्तनाद हमारे अंतर को जगाते;
पर हाथों में हाथ धरे हम रह गए सोचते,
क्यों कैसे की उलझन में हिचकोले खाते।
उधर वे सजा काफ़िले ए.सी.कारों के,
सड़कों पे दौड़े सरपट हड़कम्प मचाते ;
इनके ही श्रम पर पलनेवाले वे शोषक,
रह रह कर इनको ही वे आँख दिखाते ।।

इधर घोर दुःखों से भरे हुए इस सागर में,
डोल रही इनकी जीवन नौका लगातार;
पर कैसे गहरे उतरें इस सागर में हम,
और बन जाएं नव क्रांति की इनकी पतवार ।
उधर वे मगरमच्छों से उसमे तैर रहे,
जबड़े खोल और चंगुल का करके प्रसार;
सब कुछ देख रहे हम फिर भी हैं चुप,
क्योंकि मगर से वैर होता नहीं मेरे यार ।।

मरोड़ रही इधर भूख इनकी आंतड़ियां,
और आहों में ही कट जाती इनकी रातें;
पर आखिर समझ नहीं आता हमको,
हम बाँटे तो कैसे बाँटे इनको सौगातें ।
उधर बदहजमी में भी वो लेके डकारें,
नहीं छोड़ते अपनी स्वार्थ की लम्बी बातें;
पर उनकी सुनना मजबूरी रही हमारी,
नहीं तो क्या कहर बरपा दे उनकी घातें ।।

इधर अभाव की ज्वाला में दिल खौल रहा,
व्याप्त हो रही इनके पूरे तन में एक तपन;
पर कैसे ठंडक पहुँचा शांत करें हम,
इन अबलों की वो दुखभरी जलन ।
उधर भेदभाव की उनकी विषभरी नीतियां,
विषबाणों जैसी हमें दे रही चुभन;
पर उन्होंने तो हमें विषधर ही बना डाला,
करा करा उस कराल विष को सहन ।।

इधर बुरे वक़्त की लगी हुई है निरन्तर,
अश्रुधार की सावन जैसी एक झड़ी;
पर कैसे पोंछे हम इनके झड़ते आँसू,
यह एक समस्या सदैव हमारे समक्ष खड़ी ।
उधर नहीं ले रही नाम खत्म होने का,
झूठे वादों की वह द्रौपदी के चीर सी लड़ी;
पर हम अंधों के ये वादे ही हैं एक सहारा,
अब कैसे छोड़ें हम हाथों से एकमात्र छड़ी ।।

हमने करने का तो बहुत कुछ ठाना मन में,
इन दुखियों के लिए द्रवित हो कर;
पर मन की इच्छा दबी रही मन में ही,
क्योंकि कभी किया नहीं कुछ आगे बढ़कर ।
उधर उनके आगे बन्द रखी हमने आँखें,
डर डर कर कभी तो कभी सहम कर;
रख बन्दूक पराए कन्धों पर,
बनना चाहते हम परिवर्तन के सहचर ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी

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