कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।
थर थर काँपत विनवत गोपिन यमुना जल बिच ठाडी गल तउ।।
सुन बोले मृदु हाँसी धर के बैठे शाख कदम्ब कन्हाई।
एक एक कर या फिर सँग में तोकु पड़ेगा बाहर आई।
बन कर भोले कान्ह कहे ये बाहर आ वस्त्रन ले जाहउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।
परम ब्रह्म का रूप तिहारा भला बुरा जो सारा जानें।
तुम्हीं बताओ अब हे ज्ञानी अनुचित कहना कैसन मानें।
चीर देय दउ सो घर जाएँ देर भई तो डाँटिन पड़हउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।
नग्न होय शुचि यमुना पैठो बात ज्ञान की हमें सिखावत।
शुद्धि मिलन की तभी भएगी तन मन से जो हो प्रायश्चत।
'बासु' कहे शुचि मन बाहर आ ब्रह्म प्रकृति का भेद मिटाहउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-12-2018
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