Saturday, March 12, 2022

ग़ज़ल (बदगुमानी की अब इंतिहा चाहिए)

बह्र:- 212*4

बदगुमानी की अब इंतिहा चाहिए,
ज़िंदगी की नयी इब्तिदा चाहिए।

लू सी नफ़रत की झेलीं बहुत आँधियाँ,
ठंड दे अब वो बाद-ए-सबा चाहिए।

मेरी नाकामियों से भरी कश्ती को,
पार कर दे वो अब नाखुदा चाहिए।

राह-ए-उल्फ़त में अब तक मिलीं ठोकरें,
इश्क़ का आखिरी मरहला चाहिए।

देश का और खुद का उठा सर चलूँ,
दिल में वैसी ही मुझको अना चाहिए।

नेस्तनाबूद दुश्मन को करते समय,
जान दे मैं सकूँ वो कज़ा चाहिए।

पेश सबसे मुहब्बत से आया 'नमन',
कुछ तो उसको भी इसका सिला चाहिए।

बदगुमानी- सन्देह परक दृष्टि, असंतुष्टि
बाद-ए-सबा- पुरवाई
नाखुदा- मल्लाह, नाविक
मरहला- मंजिल, पड़ाव
अना- आत्म गौरव

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-06-19

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