बह्र:- 2122 1122 1122 22
मैं उजाले की लिए चाह सफ़र पर निकला,
पर अँधेरों में भटकने का मुकद्दर निकला।
जो दिखाता था सदा बन के मेरा हमराही,
मेरी राहों का वो सबसे बड़ा पत्थर निकला।
दोस्त कहलाते जो थे उन पे रहा अब न यकीं,
आजमाया जिसे भी, जह्र का खंजर निकला।
पास जिसके भी गया प्रीत का दरिया मैं समझ,
पर अना में ही मचलता वो समंदर निकला।
कारवाँ ज़ीस्त की राहों का मैं समझा था जिसे,
नफ़रतों से ही भरा बस वो तो लश्कर निकला।
जीत के जो भी यहाँ आया था रहबर बन के,
सिर्फ अदना सा हुकूमत का वो चाकर निकला।
दोस्तों पर था बड़ा नाज़ 'नमन' को हरदम,
काम पड़ते ही हर_इक आँख बचा कर निकला।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-06-19
वाह, अच्छी ग़ज़ल है, बधाई
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