कँवल खिलो
मानव हृदयों में
तुम छोड़ पंक को।
जिससे कभी
तुषार न चिपके
मद की मानव पे।
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शांत सरिता
किनारों में सिमटी
सुशांत प्रवाहिता,
हो उच्छृंखल
तोड़े सकल बांध
ज्यों मतंग मदांध।
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जीवन-मुट्ठी
रिसती उम्र-रेत
अनजान मानव,
सोचता रहा
रेत अभी है बाकी
पर वह जा चुकी।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-04-17
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