पाठ - 24
छंदा सागर ग्रन्थ
"मुक्तावली और मौक्तिका"
इसके पिछले पाठ में अंत्यानुप्रास पर प्रकाश डाला गया था। अंत्यानुप्रास यानी तुक दो तरह से मिलायी जाती है। पदांत का मिलान करके या ध्रुवांत के साथ समांत का मिलान करके। पदांत और समांत के मिलाने के नियमों में अंतर है। पदांत में स्वर साम्य के साथ वर्ण साम्य आवश्यक है चाहे स्वर लघु हो या दीर्घ हो परन्तु समांत के मिलान में वर्ण साम्य आवश्यक नहीं यदि आंत्य वर्ण दीर्घ मात्रिक हो। हिन्दी की रचनाओं में ध्रुवांत आधारित तुक कम ही दृष्टिगोचर होती है। इस पाठ में हम ध्रुवांत समांत पर आधारित तुकांतता की दो विधाओं का अवलोकन करने जा रहे हैं।
हिन्दी में गजल शैली में काव्य सृजन के प्रति विशेषकर नवोदित साहित्यकार वर्ग काफी उत्साहित है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए इस शैली पर आधारित दो विधाओं को नवीन अवधारणा के साथ यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रथम विधा में काव्य सृजन द्विपदी के आधार पर होता है। इसमें हर द्विपदी अपने आप में स्वतंत्र होती है पर प्रत्येक द्विपद एक ही तुकांतता में आबद्ध रहता है जिससे रचना में परस्पर कई असंबंधित द्विपदी रहते हुये भी एकरूपता परिलक्षित होती है। इस विधा को पूर्ण रूप से समझने के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दावली का सम्यक ज्ञान आवश्यक है।
मुक्ता :- प्रत्येक स्वतंत्र द्विपदी का नाम ही 'मुक्ता' दिया गया है। प्रत्येक द्विपदी कथन में पूर्वापर संबंध से मुक्त होती है तथा साथ ही विशिष्ट कथ्य शैली में वक्र रूप से कथन के कारण हर द्विपदी एक मुक्ता यानी मोती की तरह है। इसी लिए यह नाम दिया गया है।
पूर्व पद :- एक मुक्ता में दो पद रहते हैं जिसमें प्रथम पद का नाम 'पूर्व पद' है।
उत्तर पद :- मुक्ता के दूसरे पद की संज्ञा उत्तर पद दी गयी है।
मुक्तावली :- मुक्ता की लड़ी यानी 'मुक्तावली'। एक मुक्तावली में कम से कम चार मुक्ता होने चाहिए। मुक्तावली के मुक्ताओं में पूर्वापर संबंध होना आवश्यक नहीं। मुक्ता सदैव छंदा आधारित होना चाहिए।
आमुख :- मुक्तावली के प्रथम मुक्ता का नाम आमुख दिया गया है। आमुख के दोनों पद समतुकांत होने आवश्यक हैं। आमुख की तुकांतता से ही मुक्तावली के अन्य मुक्ताओं की तुकांतता का निर्धारण होता है। आमुख को छोड़ अन्य मुक्ताओं में केवल मुक्ता का उत्तरपद आमुख की तुकांतता के अनुसार समतुकांत रहना चाहिए। अन्य मुक्ताओं के पूर्व पद में इस तुकांतता का स्वर साम्य तक भी नहीं रह सकता।
आमुखी :- आमुख और आमुखी दोनों समरूप हैं। यदि किसी मुक्तावली में पांच से अधिक मुक्ता हैं तो रचनाकार यदि चाहे तो ठीक आमुख के पश्चात एक आमुखी भी रख सकता है। एक मुक्तावली में एक से अधिक आमुखी नहीं हो सकती।
समापक :- मुक्तावली का अंतिम मुक्ता ही समापक है। एक प्रकार से यह रचना के उपसंहार का मुक्ता होता है। समापक में रचनाकार अपना नाम या उपनाम पिरो सकता है।
मुक्तावली के मुक्ताओं में पूर्वापर संबंध आवश्यक नहीं पर ध्रुवांत के कारण भावों की दिशा निश्चित हो जाती है। मुक्ताओं की परस्पर समतुकांतता के कारण यह एक बंधी हुई सरस संरचना होती है। यदि कोई रचनाकार चाहे तो एक ही भाव पर संपूर्ण मुक्तावली की रचना भी कर सकता है।
मुक्तावली की संपूर्ण रूपरेखा आमुख से ही बन जाती है। इस रूप रेखा का प्रमुख आधार समांत और ध्रुवांत का निर्धारण है। छंदा का मात्रिक या वर्णिक विन्यास तथा समांत और ध्रुवांत की जुगलबंदी ही मुक्तावली को काव्यात्मक स्वरूप देने के लिए यथेष्ट है अतः मुक्ता के पद की रचना समांत ध्रुवांत की गहराई में जाते हुए प्रभावी वाक्य के रूप में करें। पूर्व पद में कोई अवधारणा लें, कोई भूमिका बांधें या सामान्य सा ही विचार रखें परन्तु उत्तर पद में उसका पटाक्षेप वक्रोक्ति के साथ या प्रभावी उपसंहार के रूप में करें। इसी के कारण कोई द्विपदी मुक्ता बनती है और ऐसे मुक्ताओं की लड़ी मुक्तावली।
मुक्तावली में समांत के निर्धारण में यह सदैव स्मरण रहे कि आमुख का समांत आपने जिस सीमा तक मिला दिया उससे कम आप बाद के मुक्ताओं में नहीं मिला सकते। केवल दीर्घ स्वर का साम्य समांतों में तभी हो सकता है जब आमुख के दोनों समांत में वर्ण भिन्न भिन्न हों। आमुख में यदि 'भुलाना नहीं का समांत 'रोका नहीं' है तो बाकी मुक्ताओं में आ स्वर का समांत यथेष्ट है। परन्तु 'भुलाना नहीं' का 'सताना नहीं' ले लिया तो और मुक्ताओं में अंत के ना के साथ साथ उपांत का आ स्वर भी मिलाना होगा। इसी प्रकार आमुख में यदि 'भुलाना नहीं' को 'सुलाना नहीं' से मिला दिया तो बाद में केवल रुलाना नहीं, बुलाना नहीं आदि से ही मिला सकते हैं।
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हिन्दी में चतुष्पदी छंदों के अधिक प्रचलन को देखते हुये इस शैली की दूसरी विधा चतुष्पदी के आधार पर निर्मित की गयी है। पहले इसकी भी परिभाषिक शब्दावली समझें।
मौक्तिक :- मौक्तिक भी ठीक मुक्ता की तरह ही है। इसमें दो के स्थान पर चार पद होते हैं। मौक्तिक सदैव छंदा आधारित होना चाहिए।
पूर्वा : चार पदों के मौक्तिक के प्रथम दो पद की संज्ञा पूर्वा है। पूर्वा का प्रथम पद पूर्व पद तथा दूसरा पद उत्तर पद कहलाता है।
अंत्या :- मौक्तिक के अंतिम दो पद की संज्ञा अंत्या है। इसका भी प्रथम पद पूर्व पद तथा दूसरा पद उत्तर पद कहलाता है।
मौक्तिका :- मौक्तिक की लड़ी ही मौक्तिका है। एक मौक्तिका में कम से कम चार मौक्तिक होने चाहिए। मौक्तिका सामान्यतः एक ही विषय पर कविता की तरह होती है पर कोई रचनाकार चाहे तो मुक्तावली की तरह इसे स्वतंत्र मौक्तिक की लड़ी के रूप में भी रच सकता है। मौक्तिका का प्रथम मौक्तिक भी आमुख कहलाता है। इसमें आमुखी नहीं होती। इसका भी अंतिम मौक्तिक समापक कहलाता है।
मौक्तिका के आमुख की पूर्वा और अंत्या समतुकांत रहती हैं। आमुख की तुकांतता से ही इसमें भी अन्य मौक्तिक की तुकांतता निश्चित होती है। अन्य मौक्तिक की अंत्या का उत्तर पद आमुख के अनुसार समतुकांत रहता है। पूर्वा के दोनों पद भी आपस में समतुकांत रहते हैं पर यह तुकांतता आमुख की तुकांतता से सदैव भिन्न होती है।
एक मौक्तिका का अवलोकन करें -
मौक्तिका (शहीदों की शहादत)
2122*3 212 (छंदा - रीबर)
(ध्रुवांत 'मन में राखलो', समांत 'आज')
भेंट प्राणों की दी जिनने आन रखने देश की,
उन जवानों के हमैशा काज मन में राखलो।।
भूल मत जाना उन्हें तुम ऐ वतन के दोस्तों,
उन शहीदों की शहादत आज मन में राखलो।।
छोड़ के घरबार सारा सरहदों पे जो डटे,
बीहड़ों में जागकर के जूझ रातें दिन कटे।
बर्फ के अंबार में से जो बनायें रास्ते,
उन इरादों का ओ यारों राज मन में राखलो।।
मस्तियाँ कैंपों में करते नाचते, गाते जहाँ,
साथ मिलके बाँटते ये ग़म, खुशी, दुख सब यहाँ।
याद घर की ये भुलाते हँस कभी तो रो कभी,
झूमती उन मस्तियों का साज मन में राखलो।।
गीत इनकी वीरता के गा रही माँ भारती,
देश का हर नौजवाँ इनकी उतारे आरती।
गर्व इनपे तुम करो इनको 'नमन' कर सर झुका ,
हिन्द की सैना का तुम सब नाज मन में राखलो।।
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कुण्डला मौक्तिका:- इसकी संरचना कुंडलियाँ छंद के आधार पर की गई है। यह मौक्तिका का ही एक प्रकार है। इसमें आमुख की पूर्वा का पूर्व पद दोहा की एक पंक्ति होता है तथा उत्तर पद रोला छंद की एक पंक्ति होता है। दोहा की पंक्ति के दूसरे चरण की तुक रोला के प्रथम चरण से मिलाने से रोचकता बढ़ जाती है। कुंडलियाँ छंद की तरह दोहा की पंक्ति जिस शब्द या शब्द समूह से प्रारंभ होती है रोला की पंक्ति का समापन भी उसी शब्द या शब्द समूह से होना आवश्यक है। यह शब्द या शब्द समूह पूरी रचना में ध्रुवांत का काम करता है। यही रूप अंत्या का रहेगा। पूर्वा से ध्रुवांत का निर्धारण हो गया अतः अंत्या के प्रारंभ में या अन्य मौक्तिक के प्रारंभ में उसका आना आवश्यक नहीं।
अन्य मौक्तिक की पूर्वा में 13+12 मात्रा के मुक्तामणि छंद के दो पद आते हैं या रोला छंद के दो पद। मेरी 'बेटी' शीर्षक की कुण्डला मौक्तिका देखें-
कुण्डला मौक्तिका (बेटी)
(ध्रुवांत 'बेटी', समांत 'अर')
बेटी शोभा गेह की, मात पिता की शान,
घर की है ये आन, जोड़ती दो घर बेटी।।
संतानों को लाड दे, देत सजन को प्यार,
रस की करे फुहार, नेह दे जी भर बेटी।।
रिश्ते नाते जोड़ती, मधुर सभी से बोले,
रखती घर की एकता, घर के भेद न खोले।
ममता की मूरत बड़ी, करुणा की है धार,
घर का सामे भार, काँध पर लेकर बेटी।।
परिचर्या की बात हो, नारी मारे बाजी,
सेवा करती धैर्य से, रोगी राखे राजी।
आलस सारा त्याग के, करती सारे काम,
रखती अपना नाम, सभी से ऊपर बेटी।।
चले नहीं नारी बिना, घर गृहस्थ की गाडी,
पूर्ण काज सम्भालती, नारी सब की लाडी।
हक देवें, सम्मान दें, उसकी लेवें राय,
दिल को लो समझाय, नहीं है नौकर बेटी।।
जिस हक की अधिकारिणी, कभी नहीं वह पाई,
नर नारी के भेद की, पाट सकी नहिं खाई।
पीछा नहीं छुड़ाइए, देकर चुल्हा मात्र,
सदा 'नमन' की पात्र, रही जग की हर बेटी।।
आमुख 'बेटी' शब्द से प्रारंभ हो रहा है और यह रचना में ध्रुवांत का काम कर रहा है। ध्रुवांत के ठीक पहले विभिन्न समांत घर, भर, कर आदि आ रहे हैं। दोहे की पंक्ति के अंत में आये शब्द शान, प्यार, धार आदि से रोला की प्रथम यति में तुक मिलाई गयी है। अन्य मौक्तिक की पूर्वा में मुक्तामणि छंद की दो पंक्तियाँ है। यह छंद दोहे की पंक्ति का अंत जो लघु होता है, उसको दीर्घ करने से बन जाता है। अतः बहुत उपयुक्त है। मुक्तामणि की जगह रोला की दो पंक्तियाँ भी रखी जा सकती हैं।
ग्रन्थ समापन
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-05-20
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