Thursday, March 7, 2024

ग़ज़ल (जाने की जिद है)

बह्र:- 221 2121 1221 212

जाने की जिद है या है दिखावा कहें जिसे,
छेड़ा नया क्या अब ये शगूफ़ा कहें जिसे।

घर में लगेगी आग उठेगा धुँआ सनम,
देखेंगे सारे लोग तमाशा कहें जिसे।

महबूब मान जाओ भी कुछ तो बता सबब,
हालत हमारी देख लो खस्ता कहें जिसे।

रूठा है यार दिखती न सूरत मनाने की,
कोई न दे रहा है दिलासा कहें जिसे।

रो लेंगे हम सकून से गर छोड़ जाए वो,
मरहूम कब से लज्जत-ए-गिरिया कहें जिसे।

यादों में उसकी भटकेंगें हम क़ैस की तरह,
उठ जाए चाहे क्यों न जनाज़ा कहें जिसे।

खुदगर्ज़ और लोगों सा बनना नहीं 'नमन',
हरक़त न करना लोग कि बेजा कहें जिसे।

शगूफा = झगड़े की जड़ वाली बात
लज्जत-ए-गिरिया = रोने का स्वाद
क़ैस = मजनूँ

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
20-09-18

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