Friday, July 26, 2024

लज्जा (कुण्डलिया छंद)

लज्जा मंगलसूत्र सी, सदा धार के राख।
लाज गई तो नहिँ बचे, यश, विवेक अरु साख।
यश, विवेक अरु साख, उचित, अनुचित नहिँ जाने।
मद में हो नर चूर, जरा संकोच न माने।
कहे 'बासु' कविराय, करो जितनी भी सज्जा।
सब कुछ है बेकार, नहीं जब मन में लज्जा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
21-10-2016

Friday, July 19, 2024

"हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा"

प्रज्वलित दीप सा जो तिल तिल जल रहा
जग के निकेतन को आलोकित जो कर रहा
देश के वो भाल पर अपना मुकुट सजा
फहराये वो विश्व में भारत के यश की ध्वजा
शिवजी के पुण्य धाम में ये दीप जल रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।1।

खड़ा है अटल बन देश का वो भाल बन
शीत ताप सहता हुवा जल रहा मशाल बन
आँधियाँ प्रचण्ड सह तूफान को वो अंक ले
तड़ित उपल वृष्टि थाम हृदय में उमंग ले
झंझावातों में भी आज अनवरत जल रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।2।

जगद्गुरु के यश को जग में है गा रहा
सर्वोच्च बन के महिमा देश की दर्शा रहा
जग को आलोक दे सभ्यता का दीप यह
ज्ञान का प्रकाश दे अखिल संसार को यह
उन्नत शीखर का दीप जग तम हर रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।3।

उत्तर की दीवाल यह जग से देश दूर रख
कोटि कोटि जनों को अपनी ही गोद में रख
स्वयं गल करके भी देश को यह प्राण दे
शत्रु सेना के भय से देश को यह त्राण दे
सर्वस्व लूटा करके भी देश को बचा रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।4।

सर्व रत्न की खान देश का है यह प्राण
गंगा यमुना का जनक देश का महान मान
ऋषि मुनियों का समाधि स्थल भी है यह
देव संस्कृति और सभ्यता का कोष यह
अक्षय कोष देश का यह सर्वदा बचा रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।5।

महान दीप की शिखा एक वस्तु मांग रही
देश के वीर पतंगों को पुकार के बुला रही
एक एक जल के जो निज प्राण आहुति दे
देश रक्षार्थ निज को दीप शिखा में झोंक दे
वीरों के बलिदान से ही यह आज बच रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।6।

स्वयं जल करके जो देश को बचा रहा
अपने तन के वारि से देश को है सींच रहा
उसकी रक्षा में उठना क्या हमारा धर्म नहीं
उसके लिये प्राण देना क्या हमारा कर्म नहीं
हमरे तन के स्वेद से यह दीप जल रहा।
हिमालय है आज भारत की कथा कह रहा।7।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-05-1970

Wednesday, July 10, 2024

दोहा छंद (मानस विविध प्रसंग)

दोहा छंद 
(मानस विविध प्रसंग)


तार अहिल्या राम ने, किया बहुत उपकार।
शरणागतवत्सल हरी, जग में जय जय कार।।

मुनि वशिष्ठ सर नाय के, किये राम प्रस्थान।
संग लखन अरु जानकी, अद्भुत रघुकुल आन।।

भरत अनुज सह वन रहें, अवध चलें रघुराय।
राजतिलक हो राम का, कहि वशिष्ठ समुझाय।।

परखें जग इन चार सिय, आपद जब सिर आय। 
दार मित्र धीरज धरम, कह अनुसुइया माय।।

परखन महिमा राम की, सुरपति तनय जयंत।
मार चोंच सिय-पद मृदुल, बीन्धा अधम असंत।।

अभिमंत्रित कर सींक सर, छोड़े श्री रघुराय।
लक्ष्य अधम सुरपति तनय, काना दिया बनाय।।

पाय रजायसु राम की, लखन चले तत्काल।
इंद्रजीत का वध करन, बन कर काल कराल।।

केवट की ये कामना, हरि-पद करूं पखार।
बोला धुलवाएँ चरण, फिर उतरें प्रभु पार।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
20-02-17

Tuesday, July 2, 2024

"ईश गरिमा"

ईश तुम्हारी सृष्टि की महिमा है बड़ी निराली;
कहीं शीत है कहीं ग्रीष्म है कहीं बसन्त की लाली ।
जग के जड़ चेतन जितने हैं सब तेरे ही कृत हैं;
जो तेरी छाया से वंचित अस्तित्व रहित वो मृत है ।।1।।

कलकल करती सरिता में तेरी निपुण सृष्टि है;
अटल खड़े शैल पर भी तेरी आभा की दृष्टि है ।
अथाह उदधि की उत्ताल तरंगों में तु नीहित है;
भ्रमणशील भू देवी भी तुझसे ही निर्मित है ।।2।।

अथाह अनंत अपार अम्बर की नील छटा में;
निशि की निरवता में काली घनघोर घटा में ।
तारा युक्त चीर से शोभित मयंक मयी रजनी में;
तु ही है शीतल शशि में अरु चंचल चपल चांदनी में ।।3।।

प्राची दिशि की रम्य अरुणिमा में उषा की छवि की;
रक्तवर्ण वृत्ताकृति सुंदरता में बाल रवि की ।
अस्ताचल जाते सन्ध्या में लालिम शांत दिवाकर की;
किरणों में तु ही नीहित है प्रखर तप्त भाष्कर की ।।4।।

हरे भरे मैदानों में अरु घाटी की गहराई में;
कोयल की कुहु से गूँजित बासन्ती अमराई में ।
अन्न भार से झुकी हुई खेतों की विकसित फसलों में; 
तेरा ही चातुर्य झलकता कामधेनु की नसलों में ।।5।।

विस्तृत एवम् स्वच्छ सलिल से भरे हुए ये सरोवर;
लदे हुए पुष्पों के गुच्छों से ये सुंदर तरुवर ।
घिरे हुए जो कुमुद समूह से ये मन्जुल शतदल;
तेरी ही आभा के द्योतक पुष्पित गुलाब अति कल ।।6।।

अथाह अनंत सागर की उफान मारती लहरों में;
खेतों में रस बरसाती नदियों की मस्त बहारों में ।
समधुर तोय से भरे पूरे इस धरा के सुंदर सोतों में;
दृष्टिगोचर होती है तेरी ही आभा खेतों में ।।7।।

मदमत्त मनोहर गजराज की मतवाली चालें:
बल विक्रम से शोभित वनराज की उच्च उछालें ।
चंचल हिरणी की आँखों में यह मा की ममता:
तुझसे ही तो शोभित है सब जीवों की क्षमता ।।8।।

हे ईश्वर हे परमपिता हे दीनबन्धु हितकारक;
तेरी कृतियों का बखान करना है कठिन ओ' पालक ।
तुझसे ही तो निर्मित है अखिल जगत सम्पूर्ण चराचर;
तुझसे जग का पालन होता तुझसे ही होता संहार ।।9।।

खिल जाए मेरी मन की वाटिका में भावों के प्रसून;
कर सकूँ काव्य रचना मैं जिनसे हो भावों में तल्लीन ।
ये मनोकामना पूर्ण करो हे ईश मेरी ये विनती;
तेरे उपकारों की मेरे पास नहीं कोई गिनती ।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-05-1970