Thursday, December 10, 2020

लावणी छन्द "विष कन्या"

कई कौंधते प्रश्न अचानक, चर्चा से विषकन्या की।
जहर उगलती नागिन बनती, कैसे मूरत ममता की।।
गहराई से इस पर सोचें, समाधान हम सब पाते।
कलुषित इतिहासों के पन्ने, स्वयंमेव ही खुल जाते।।

पहले के राजा इस विध से, नाश शत्रु का करवाते।
नारी को हथियार बना कर, शत्रु देश में भिजवाते।।
जहर बुझी वो नाग-सुंदरी, रूप-जाल से घात करे।
अरि प्रदेश के प्रमुख जनों के, तड़पा तड़पा प्राण हरे।।

पहले कुछ मासूम अभागी, कलियाँ छाँटी थी जाती।
खिलने से पहले ही उनकी, जीवन बगिया मुरझाती।।
घोर बिच्छुओं नागों से फिर, उनको डसवाया जाता।
कोमल तन प्रतिरोधक विष का, इससे बनवाया जाता।।

पुरुषों को वश में करने के, दाव सभी पा वह निखरे।
जग समक्ष तब अल्हड़ कन्या, विषकन्या बन कर उभरे।।
छीन लिया जिस नर समाज ने, उससे बचपन मदमाता।
भला रखे कैसे वह उससे, नेह भरा कोई नाता।।

पुरुषों के प्रति घोर घृणा के, भाव लिये तरुणी गुड़िया।
नागिन सी फुफकार मारती, जहर भरी अब थी पुड़िया।।
जिससे भी संसर्ग करे वह, नख से नोचे या काटे।
जहर प्रवाहित कर वह उस में, प्राण कालिका बन चाटे।।

नये समय ने नार-शक्ति में, ढूंढा नव उपयोगों को।
वश में करती मंत्री, संत्री, अरु सरकारी लोगों को।।
दौलत से जो काम न सुधरे, वह सुलझा दे झट नारी।
कोटा, परमिट सब निकलाये, गुप्तचरी करले भारी।।

वर्तमान की ये विषकन्या, शत्रु देश को भी फाँसे।
अबला सबला बन कर देती,  प्रेम जाल के ये झाँसे।।
तन के लोभी हर सेना में, कुछ कुछ तो जाते पाये।
फिर ऐसों से साँठ गाँठ कर, राज देश के निकलाये।।

नारी की सुंदरता का नित, पुरुषों ने व्यापार किया।
क्षुद्र स्वार्थ में खो कर उस पर, केवल अत्याचार किया।।
विष में बुझी कटारी बनती, शदियों से नारी आयी।
हर युग में पासों सी लुढ़की, नर की चौपड़ पर पायी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-08-2016

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