पाठ - 01
"छंदा सागर" ग्रन्थ
(छंद और घटक)
मात्रा या वर्ण की निश्चित संख्या, ह्रस्व स्वर और दीर्घ स्वर की विभिन्न आवृत्ति, यति, गति तथा अन्त्यानुप्रास के नियमों में आबद्ध पद्यात्मक इकाई छंद कहलाता है। ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है दीर्घ स्वर के उच्चारण में उसका दुगुना समय लगता है। इसी उच्चारण की विभिन्नता से अनेकानेक छंद का सृजन होता है जिनकी अपनी अपनी लय होती है। छंदों में ह्रस्व स्वर की एक मात्रा गिनी जाती है जिसे लघु के नाम से जाना जाता है। इसे 1 की संख्या से भी प्रकट किया जाता है। दीर्घ स्वर की दो मात्रा होती है जिसे गुरु के नाम से जाना जाता है और 2 की संख्या से भी प्रकट किया जाता है।
उपरोक्त नियमों की विभिन्नता से अनेक लय का निर्माण होता है, जिनके आधार पर अनेकानेक छंद का निर्माण होता है। पदांत में केवल एक लघु की वृद्धि कर देने से ही छंद की लय, गति में अंतर आ जाता है और वह छंद का एक अलग भेद हो जाता है। संरचना, लक्षण और किसी छंद में काव्य सृजन के नियमों के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थ में छंदों को तीन वर्गों में रखा गया है।
1- वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद उसे कहा जाता है जिसके प्रत्येक पद में वर्णों का क्रम तथा वर्णों की संख्या नियत रहती है। जब लघु गुरु का क्रम और उनकी संख्या निश्चित है तो मात्रा स्वयंमेव सुनिश्चित है। वर्णिक छंद की रचना में उस के वर्णों के क्रम का सम्यक ज्ञान और पद के मध्य की यति या यतियों का ज्ञान होना ही पर्याप्त है। वर्णिक छंदो में रचना करने के लिए ह्रस्व या दीर्घ मात्रा के अनुसार केवल शब्द चयन आवश्यक है। जैसे - मेरी "सुमति छंद" की रचना का एक उदाहरण देखें जिसका वर्ण विन्यास- 111 212 111 122 है।
"प्रखर भाल पे हिमगिरि न्यारा।
बहत वक्ष पे सुरसरि धारा।।
पद पखारता जलनिधि खारा।
अनुपमेय भारत यह प्यारा।।"
रचना के हर चरण में ठीक 12 वर्ण हैं। वर्णिक छंदों में छंद के ह्रस्व दीर्घ के क्रम से कहीं भी च्युत नहीं हुआ जा सकता।
2- मात्रिक छंद:- मात्रिक छंद के पद में वर्णों की संख्या और वर्णों का क्रम निर्धारित नहीं रहता है परंतु मात्रा की संख्या निर्धारित रहती है। फिर भी हिन्दी में वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों का प्रचलन अधिक है। मात्रिक छंदों की लय भी बहुत मधुर तथा लोचदार होती है। यह लय केवल मात्राओं के बंधन से नहीं आती बल्कि उन मात्राओं को भी एक निश्चित क्रम में सजाने से प्राप्त होती है। मात्राओं के इस निश्चित क्रम का आधार है कल संयोजन। अधिकांश छंद समकल अर्थात द्विकल, चतुष्कल, षटकल, अठकल आदि पर आधारित रहते हैं परन्तु कई छंद में केवल विषम कल भी रहते हैं या समकलों के मध्य विषम कलों का भी समावेश रहता है। इस ग्रन्थ में आगे एक पूरा पाठ ही कलों पर है जिसमें कलों की पूर्ण विवेचना की गई है। कलों के अतिरिक्त कई मात्रिक छंद वर्ण-गुच्छक पर भी आधारित रहते हैं या कई छंदों के पदांत में वर्ण-गुच्छक रह सकता है। गुच्छक के पाठ में गुच्छक की संपूर्ण संरचना और विवेचना समाहित है। वर्ण गुच्छक में लघु गुरु का क्रम सुनिश्चित रहता है परंतु मात्रिक छंदों में गुरु को दो लघु में तोड़ा जा सकता है जबकि यह छूट वर्णिक छंदों में नहीं है। मेरी एक चौपाई का उदाहरण देखें जिसके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा आवश्यक है।
"भोले की महिमा है न्यारी।
औघड़ दानी भव-भय हारी।।
शंकर काशी के तुम नाथा।
रखो शीश पर हे प्रभु हाथा।।"
उदाहरण के चरणों में वर्ण संख्या क्रमशः 9, 11, 10, 11 है। पर मात्रा हर चरण में 16 एक समान है। और लय सधी हुई है।
3- वाचिक स्वरूप:- वर्तमान में हिंदी में वाचिक स्वरूप में सृजन करने का प्रचलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। वाचिक का स्वरूप तो वर्णिक है पर इसके सृजन में न तो वर्णों की संख्या का बंधन है और न ही मात्राओं का। इसमें उच्चारण की प्रमुखता है और इस आधार पर गुरु को दो लघु में भी तोड़ा जा सकता है और कहीं कहीं गुरु वर्ण को लघु रूप में भी लिया जा सकता है जिस पर ऐसे छंदों के आवंटित पाठ में प्रकाश डाला जायेगा। वाचिक में रचे गये मेरे एक मुक्तक का उदाहरण जिसकी मापनी (221 1222)*2 है।
"पहचान ले' नारी तू, ताकत जो' छिपी तुझ में,
कारीगरी' उसकी जो, सब ही तो' सजी तुझ में,
मंजिल न को'ई ऐसी, तू पा न सके जिसको,
भगवान दिखे उसमें, ममता जो' बसी तुझ में।"
रचना में चिन्हित कई स्थान पर दीर्घाक्षरों का लघुवत् उच्चारण है।
उपरोक्त तीन वर्ग के आधार पर छंद के एक पद में प्रयुक्त लघु गुरु के निश्चित क्रम को दिग्दर्शित करने के लिए इस ग्रन्थ में अष्ट गणों के आधार पर नवीन अवधारणा ली गयी है। इस नवीन अवधारणा के तीन घटक हैं जो क्रमशः वर्ण, गुच्छक और छंदा के नाम से परिभाषित किये गये हैं। लघु, गुरु और लघु गुरु के मेल से बने चार द्विवर्णी वर्ण ले कर कुल छह वर्ण हैं, यगण आदि आठ गण हैं, गण में इन वर्णों के संयोग से गणक बनते हैं। ये गण और गणक सम्मिलित रूप में गुच्छक कहलाते हैं। गुच्छक और वर्णों के मेल से छंदा बनती है। छंदा के अनुसार काव्य रचना करने से छंद का एक पद पूर्ण हो जाता है। द्विपदी छंद में ऐसे दो पद रचे जाते हैं और चतुष्पदी छंद में चार पद।
आगे के पाठों में एक एक घटक की पूर्ण विवेचना की जायेगी, छंदाओं में प्रयुक्त विशेष संकेतक के लिए एक अलग से पाठ है। एक पाठ कल विवेचन का है और उसके बाद विविध छंदाओं के वर्गीकृत पाठ हैं। हर छंदा का उस छंदा में प्रयुक्त गुच्छक और संकेतक के आधार पर एक नाम है जिसमें उस छंदा के पूरे विधान का समावेश है। इस पूरे विधान का इस प्रकार निर्माण किया गया है कि छंदा का नाम संक्षिप्त हो और उच्चारण में सरल हो जिससे कि उसे याद रखने में सरलता हो। जिसने भी इस विधान को समझ लिया है वह छंदा का नाम सामने आते ही छंद के पूरे पद की रचना आसानी से कर सकता है। विधान भी बहुत तर्कसंगत बनाया गया है जिससे कि उसे समझने में भी आसानी हो और स्मरण रखना भी सरल हो। मुझे पूर्ण आशा है कि हिन्दी के काव्य सृजकों को इस ग्रन्थ से बहुत सहायता मिलेगी।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
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