बह्र:- 2122 2122 2122 212
नेकियों का आजकल मिलता सिला कुछ भी नहीं,
ये जमाने का चलन है कर गिला कुछ भी नहीं।
दूर उनसे हैं बहुत ही जी रहे पर सोच यह,
जब तलक वे दिल में बसते फ़ासिला कुछ भी नहीं।
घूम आवारा कटें दिन और फुटपाथों पे शब,
ज़ीस्त का सुख आज तक हमको मिला कुछ भी नहीं।
आप आयें तो महक उट्ठेगा उजड़ा गुलसिताँ,
मुद्दतों से इस चमन में है खिला कुछ भी नहीं।
खाना, पीना, उठना, सोना सब ही बेतरतीब अब,
दूर वे जब से गये हैं सिलसिला कुछ भी नहीं।
चाहे कोई युग हो पुरुषों की अना के सामने,
द्रौपदी, सीता, अहिल्या, उर्मिला कुछ भी नहीं।
चंद साँसें साथ हैं बस पर 'नमन' कुछ कर दिखा,
यूँ तो लम्बी राह में ये काफ़िला कुछ भी नहीं।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-01-2019
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