Friday, August 26, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'प्रथम भाग')

 द्वितीय अध्याय (भाग -१)

मृत या मरणासन्न पर, आह नहीं पण्डित भरे।
शोक-योग्य दोनों नहीं, बात ज्ञानियों सी करे।।१।।
उल्लाला छंद

तुम मैं या ये भूप सब, वर्तमान हर काल में। 
रहने वाले ये सदा, आगे भी हर हाल में।।२।। उल्लाला छंद

तीन अवस्था देह को, जैसे होती प्राप्त। 
देही को तन त्यों मिले, मोह हृदय क्यों व्याप्त।।३।। 

आते जाते ही रहें, विषयों के संयोग। 
सहन करो सम भाव से, सुख-दुख योग-वियोग।।४।। 

सुख-दुख में जो सम रहे, होय विषय निर्लिप्त।
पार करे आवागमन, मोक्ष-अमिय से तृप्त।।५।। 

सत की सत्ता सर्वदा, असत न स्थाई होय। 
तत्त्वों के इस सार को, सके न लख हर कोय।।६।। 

अविनाशी उसको समझ, जिससे यह सब व्याप्त।
शाश्वत अव्यय नाश को, कभी न होता प्राप्त।।७।। 

परे प्रमाणों से सखा, आत्म तत्त्व को जान। 
देह असत सत आतमा, करो युद्ध मन ठान।।८।। 

मरे न ये मारे कभी, षट छूये न विकार। 
नित शाश्वत अज अरु अमर, इसको सदा विचार।।९।। 

नये वस्त्र पहने यथा, लोग पुराने छोड़। 
देही नव तन से तथा, नाता लेता जोड़।।१०।। 

कटे नहीं ये शस्त्र से, जला न सकती आग। 
शुष्क पवन से ये न हो, जल की लगे न लाग।।११।। 

शोक करो तुम त्यक्त, इस विध लख इस आत्म को। 
अविकारी अव्यक्त, चिंतन पार न पा सके।।१२।। सोरठा छंद

मन में लो यदि धार, जन्म मरण धर्मी इसे। 
फिर भी करो विचार, शोभनीय क्या शोक यह।।१३।। सोरठा छंद

जन्म बाद मरना अटल, पुनर्जन्म त्यों जान। 
मान इसे त्यज शोक को, नर-वश ये न विधान।।१४।। 

प्रकट न ये नृप आदि में, केवल अभी समक्ष।
होने वाले लुप्त ये, फिर क्यों भीगे अक्ष।।१५।। 

कहे सुने देखे इसे, ज्ञानी अचरज मान। 
सुन कर भी कुछ मोह में, इसे न पाये जान।।१६।। 

आत्म तत्त्व हर देह का, नित अवध्य है पार्थ। 
मोह त्याग निर्द्वन्द्व हो, कैसा नाता स्वार्थ।।१७।। 

क्षत्रिय का सबसे बड़ा, धर्म-युद्ध है कर्म। 
धर्म दुहाई व्यर्थ है, युद्ध तुम्हारा धर्म।।१८।। 

भाग्यवान तुम हो बड़े, स्वयं मिला जो युद्ध। 
स्वर्ग-द्वार को मोह से, करो न तुम अवरुद्ध।।१९।। 

युद्ध-विमुखता पार्थ ये, करे कीर्ति का नाश। 
क्षात्र-धर्म के त्याग से, मिले पाप की पाश।।२०।। 

अर्जित तूने कर रखा, जग में नाम महान। 
होगी जब आलोचना, नहीं रहे वो मान।।२१।। 

रण-कौशल तेरा रहा, सदा सूर्य सा दिप्त। 
उसमें ग्रहण लगा रहे, भय में हो कर लिप्त।।२२।। 

मृत्यु मिले या जय मिले, उभय लाभ के काज।
एक स्वर्ग दे दूसरा, भू मण्डल का राज।।२३।। 

हार-जीत सुख-दुःख को, एक बराबर मान। 
युद्ध करो सब त्याग कर, पाप पुण्य का भान।।२४।। 

आत्मिक विषयक सांख्य का, अबतक दीन्हा ज्ञान। 
बुद्धि-योग अब दे तुझे, कर्म-बन्ध से त्रान।।२५।। 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -१)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 11-4-2017 से प्रारम्भ और 14 -4-2017 को समापन)


2 comments:

  1. बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति। बार-बार पढ़ने लायक।

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    1. आपकी प्रतिक्रिया का हृदयतल से आभार।

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