अस्थिपिंजर
कफ़न में लिपटा
एक ठूँठ सा।
पूर्ण उपेक्ष्य
मानवी जीवन का
कटु घूँट सा।
स्लेटी बदन
उसपे भाग्य लिखे
मैलों की धार।
कटोरा लिए
एक मूर्त ढो रही
तन का भार।
लाल लोचन
अपलक ताकते
राहगीर को।
सूखे से होंठ
पपड़ी में छिपाए
हर पीर को।
उलझी लटें
बरगद जटा सी
चेहरा ढके।
उपेक्षित हो
भरी राह में खड़ा
कोई ना तके।
शून्य चेहरा
रिक्त फैले नभ सा
है भाव हीन।
जड़े तमाचा
मानवी सभ्यता पे
बालक दीन।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-07-2016
वासुदेव जी आपकी बालक पर लिखी हुई यह हाइकु शैली में कविता वास्तव में बहुत ही सराहनीय है. यूं तो हर हाइकु अपने-आप में स्वतंत्र होता है लेकिन आपने अनेक हाई को एक साथ मिलाकर बालक पर एक बहुत ही मार्मिक कविता का रूप दिया है मैं इस कविता को हाइकु में एक प्रयोग के रूप में देखता हूं साथ ही आपने 2 हाइकु को तुकांत के रूप में मिलाकर इस कविता को पठनीय बना दिया है जैसे गजल में हर शेर अपने आप में स्वतंत्र होता है लेकिन अगर गजल का हर शेर एक ही विषय को लेकर कहा जाता है तो वह मुसलसल गजल कहलाती है इसी तरह से मैं इसे निरंतर हाइकु कविता कहना चाहूंगा आपका
ReplyDeleteसुरेंद्र सिंघल