पाठ - 23
छंदा सागर ग्रन्थ
"यति और अंत्यानुप्रास"
इस पाठ में अंत्यानुप्रास तथा यति विषयक चर्चा की जायेगी। हिन्दी के छंदों में यति का अत्यंत महत्व है और इसी को दृष्टिगत रखते हुये जहाँ तक संभव हो सका है इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर यतियुक्त छंदाएँ दी गयी हैं। किसी भी पद का बीच का ठहराव यति कहलाता है। एक सह यति पद से वही बिना यति का पद संरचना और लय के आधार पर बिल्कुल अलग हो जाता है। वाचिक स्वरूप की अनेक छंदाओं में यह आप सबने देखा होगा।
साधरणतया एक पद में मध्य यति और स्वयं सिद्ध पदांत यति के रूप में ये दो ही यतियाँ रहती हैं। पर कुछ छंद विशेष में दो से अधिक यतियाँ भी पद में रहती हैं जिनकी कई छंदाऐँ मात्रिक छंदाओं के पाठ में 'बहु यति छंद' शीर्षक से दी गयी हैं। यदि कोई छंदा यति युक्त है तो वह या तो सम यति होगी या विषम यति। सम यति छंदा में मध्य यति और पदांत यति की मात्राएँ एक समान रहती हैं जबकि विषम यति में अलग अलग। जैसे दोहा विषम यति छंद है, जिसकी मध्य यति 13 मात्रा की है तथा पदांत यति 11 मात्रा की। दो से अधिक यति के छंद बहु यति छंद की श्रेणी में आते हैं। जैसे त्रिभंगी छंद की प्रथम यति 10 मात्रा की, द्वितीय यति 8 मात्रा की, तृतीय यति भी 8 मात्रा की तथा पदांत यति 6 मात्रा की रहती है।
यति के अनुसार चार प्रकार की छंदाएँ हैं।
सम यति छंदा - दो समान यतियों की छंदा।
विषम यति छंदा - दो असमान यतियों की छंदा।
सम बहु यति छंदा - दो से अधिक समान यतियों की छंदा।
विषम बहु यति छंदा - दो से अधिक असमान यतियों की छंदा। जैसे त्रिभंगी।
यति कभी भी शब्द के मध्य में नहीं पड़नी चाहिए।
अंत्यानुप्रास:-
छंद के वर्णिक विन्यास या मात्रिक विन्यास से उस छंद विशेष के पदों के क्रमागत उच्चारण में समरूपता रहती है। वर्ण वृत्तों में तो पदों के उच्चारण में यह समरूपता अत्यधिक रहती है। इसके साथ साथ यदि पदांत सम स्वर या समवर्ण या दोनों ही रहे तो फिर माधुर्य में चार चांद लग जाते हैं। पदांत की यही समानता अंत्यानुप्रास या तुक मिलाना कहलाती है। हिन्दी भाषा के अधिकांश छंद मात्रिक विन्यास पर आधारित रहते हैं और लगभग सभी छंदो में अंत्यानुप्रास या तुक की अनिवार्यता रहती है।
पाठकों के लाभ की आशा से इस ग्रन्थ में अंत्यानुप्रास के कुछ नियम निर्धारित किये गये हैं। इसके लिए इससे संबंधित कुछ पारिभाषिक शब्दों को समझना आवश्यक है।
पदांत:- किसी भी छंद के पद का अंत ही पदांत है। सम पदांतता के कुछ नियम हैं जो निम्न हैं।
1- पदों का अंतिम वर्ण मात्रा सहित एक समान रहना चाहिए। इसमें 'है' को 'हे' या 'हैं' से नहीं मिलाया जा सकता, इसी प्रकार 'लो' के स्थान पर 'लौ' भी स्वीकार्य नहीं।
2- नियम 1 के अनुसार मिले वर्ण के उपांत वर्ण में भी स्वर साम्य होना आवश्यक है। चले के साथ खिले, घुले की तुक या सोना के साथ बिछौना की तुक निम्न स्तर की है। चले के साथ तले, पले जैसे शब्द ही आने चाहिए। इस संदर्भ में
नींद ले,
वे चले।
तुक ठीक है।
किसी भी छंद की तुक दो प्रकार से मिलाई जा सकती है। प्रथम तो पदांत का मिलान कर देना। दूसरे ध्रुवांत के साथ समांत का आना।
ध्रुवांत :- ध्रुव का अर्थ है जो अटल हो। किसी भी छंद का अंत कोई न कोई शब्द से तो होना ही है। अतः ध्रुवांत शब्द की परिभाषा है छंद के पद के अंत के अटल शब्द। उर्दू भाषा का रदीफ़ शब्द इसका समानार्थी है। यह अंत का ध्रुव शब्द एक वर्णी है, हैं, था, थी जैसी सहायक क्रिया या फिर ने, से, में जैसी विभक्ति भी हो सकता है। ध्रुवांत एक शब्द का भी हो सकता है या एक से अधिक शब्दों का भी।
समांत :- केवल ध्रुवांत के मिलने से छंद के पद सानुप्रासी नहीं हो सकते। इसके लिए ध्रुवांत से ठीक पहले ध्वन्यात्मक रूप से एक समान अंत वाले शब्द रहने चाहिए और ऐसे शब्द ही समांत कहलाते हैं। पदांत की तरह इसके भी नियम हैं।
1- समांतता के लिए एक शब्द के अंत में यदि (आ, ई, ऊ, ए, ओ, अं आदि) जैसी दीर्घ मात्रा है तो दूसरे शब्द के अंत में ठीक उसी मात्रा का रहना यथेष्ट है। नदी, ही, की, कोई आदि समांत हैं क्योंकी ई की समांतता है। आया, रोका, मेला समांत हैं। पुराने, के, पीले समांत हैं।
2- यदि एक शब्द का अंत लघुमात्रिक (अ,इ ,उ,ऋ) है तो समांत मिलाने के लिए यह लघुमात्रिक वर्ण उसी मात्रा के साथ दूसरे शब्द में भी रहना चाहिए। इसके साथ ही इस के उपांत वर्ण का भी स्वरसाम्य रहना चाहिए। जैसे पतन के समांत मन, उपवन, संशोधन आदि हो सकते हैं परन्तु दिन, सगुन आदि नहीं हो सकते। पतन का 'न' लघुमात्रिक है इसलिये 'न' के साथ साथ इसके पूर्व के वर्ण का अकार होना भी आवश्यक है। छवि के समांत रवि, कवि आदि हो सकते हैं।
हिन्दी के अधिकांश छंद चतुष्पदी होते हैं और इनमें क्रमागत दो दो पद समतुकांत रहते हैं। सवैया, घनाक्षरी आदि कुछ ही छंद ऐसे हैं जिनमें चारों पद की समतुकांतता आवश्यक है। इसी प्रकार द्विपदी छंदों के दोनों पद समतुकांत रहते हैं जैसे दोहा, बरवे, उल्लाला आदि। द्वि पदी छंदों में सोरठा इसका अपवाद है जिसमें तुक मध्य यति की मिलायी जाती है। कुछ छंदों में कविगण उस छंद के पद की द्विगुणित रूप में रचना कर तुकांतता दूसरे और चौथे पद की रखते हैं। हिन्दी में मुक्तक भी बहुत प्रचलित हैं जिनके प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ पद समतुकांत रहते हैं। हिन्दी में कई बहु यति छंद भी हैं जिन में सम पदांतता रखते हुये प्रथम दो यतियाँ की तुक भी आपस में मिलायी जाती है जैसे चौपइया, त्रिभंगी आदि। यह आभ्यंतर तुक कहलाती है।
हिन्दी में गजल शैली में भी रचना करने का प्रचलन तेजी से बढा है जिसमें ध्रुवांत समांत आधारित तुकांतता रहती है। हिन्दी के छंदों में रचना की प्रत्येक द्विपदी की तुकांतता अपने आप में स्वतंत्र है परन्तु इस शैली में तुकांतता स्वतंत्र नहीं है। प्रथम द्विपदी के आधार पर जो तुकांतता बंध गयी रचना में अंत तक वही निभानी पड़ती है। इस शैली के दो रूप का कुछ नवीन संज्ञाओं और अवधारणा के साथ इसके अगले पाठ में विस्तृत विवरण दिया जायेगा।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-05-20
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