Tuesday, April 7, 2020

ग़ज़ल (दीन की ख़िदमत से बढ़कर)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

दीन की ख़िदमत से बढ़कर शादमानी फिर कहाँ,
कर सको उतनी ये कर लो जिंदगानी फिर कहाँ।

पास आ बैठो सनम कुछ मैं कहूँ कुछ तुम कहो,
शाम ऐसी फिर कहाँ उसकी रवानी फिर कहाँ।

नौनिहालों इन बुजुर्गों से ज़रा कुछ सीख लो,
इस जहाँ में तज्रबों की वो निशानी फिर कहाँ।

कद्र बूढ़ों की करें माँ बाप को सम्मान दें,
कब उन्हें ले जाएँ दौर-ए-आसमानी फिर कहाँ।

नौजवानों इस वतन के वास्ते कुछ कर भी लो,
सर धुनोगे बाद में ये नौजवानी फिर कहाँ।

गाँवों की उजड़ी दशा पर गर किया कुछ भी न अब,
उन भरे चौपालों की बातें पुरानी फिर कहाँ।

लिखता आया है 'नमन' खून-ए जिगर से नज़्म सब,
ठहरिये सुन लें ज़रा ये नज़्म-ख्वानी फिर कहाँ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-08-17

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