कौन लाल ये छिपा हुआ है, जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में लिपटा।
दीन दशा मुख से बिखेरता, भीषण दुख-ज्वाला से चिपटा।।
किस गुदड़ी का लाल निराला, किन आँखों का है ये मोती।
घोर उपेक्षा जग की लख कर, इसकी आँखें निशदिन रोती।।
यह अनाथ बालक चिथड़ों में, आनन लुप्त रखा पीड़ा में।
बिता रहा ये जीवन अपना, दारुण कष्टों की क्रीड़ा में।।
गेह द्वार से है ये वंचित, मात पिता का भी नहिं साया।
सभ्य समझते जो अपने को, पड़ने दे नहिं इस पर छाया।।
स्वार्थ भरे जग में इसका बस, भिक्षा का ही एक सहारा।
इसने उजियारे कब देखे, छाया जीवन में अँधियारा।।
इसकी केवल एक धरोहर, कर में टूटी हुई कटोरी।
हाय दैव पर भाग्य लिखा क्या, वह भी तो है बिल्कुल कोरी।।
लघु ललाम लोचन चंचल अति, आस समेट रखे जग भर की।
शुष्क ओष्ठ इसके कहते हैं, दर्द भरी पीड़ा अंतर की।।
घर इसका पदमार्ग नगर के, जीवन यापन उन पे करता।
भिक्षाटन घर घर में करके, सदा पेट अपना ये भरता।।
परम दीन बन करे याचना, महा दीनता मुख से टपके।
रूखा सूखा जो मिल जाता, धन्यवाद कह उसको लपके।।
रोम रोम से करुणा छिटके, ये अनाथ कृशकाय बड़ा है।
सकल जगत की पीड़ा सह कर, पर इसका मन बहुत कड़ा है।।
है भगवान सहारा इसका, टिका हुआ है उसके बल पर।
स्वार्थ लिप्त संसार-भावना, जीता यह नित उसको सह कर।।
आश्रय हीन जगत में जो हैं, उनका बस होता है ईश्वर।
'नमन' सदा मैं उसको करता, जो पाले यह सकल चराचर।।
दीन दशा मुख से बिखेरता, भीषण दुख-ज्वाला से चिपटा।।
किस गुदड़ी का लाल निराला, किन आँखों का है ये मोती।
घोर उपेक्षा जग की लख कर, इसकी आँखें निशदिन रोती।।
यह अनाथ बालक चिथड़ों में, आनन लुप्त रखा पीड़ा में।
बिता रहा ये जीवन अपना, दारुण कष्टों की क्रीड़ा में।।
गेह द्वार से है ये वंचित, मात पिता का भी नहिं साया।
सभ्य समझते जो अपने को, पड़ने दे नहिं इस पर छाया।।
स्वार्थ भरे जग में इसका बस, भिक्षा का ही एक सहारा।
इसने उजियारे कब देखे, छाया जीवन में अँधियारा।।
इसकी केवल एक धरोहर, कर में टूटी हुई कटोरी।
हाय दैव पर भाग्य लिखा क्या, वह भी तो है बिल्कुल कोरी।।
लघु ललाम लोचन चंचल अति, आस समेट रखे जग भर की।
शुष्क ओष्ठ इसके कहते हैं, दर्द भरी पीड़ा अंतर की।।
घर इसका पदमार्ग नगर के, जीवन यापन उन पे करता।
भिक्षाटन घर घर में करके, सदा पेट अपना ये भरता।।
परम दीन बन करे याचना, महा दीनता मुख से टपके।
रूखा सूखा जो मिल जाता, धन्यवाद कह उसको लपके।।
रोम रोम से करुणा छिटके, ये अनाथ कृशकाय बड़ा है।
सकल जगत की पीड़ा सह कर, पर इसका मन बहुत कड़ा है।।
है भगवान सहारा इसका, टिका हुआ है उसके बल पर।
स्वार्थ लिप्त संसार-भावना, जीता यह नित उसको सह कर।।
आश्रय हीन जगत में जो हैं, उनका बस होता है ईश्वर।
'नमन' सदा मैं उसको करता, जो पाले यह सकल चराचर।।
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