बह्र:- 212*4
रोज ही काम को टाल के आलसी,
घर में रह खाट को तोड़ते आलसी।
ज़िंदगी ज़रिया आराम फ़रमाने का,
इस के आगे न कुछ सोचते आलसी।
आसमां में बनाते किले रेत के,
व्यर्थ की सोच को पाल के आलसी।
लौट वापस कभी वक़्त आता न जो,
छोड़ कल पे गवाँ डालते आलसी।
आदमी के लिए कुछ असंभव नहीं,
पर न खुद पे भरोसा रखे आलसी।
बोझ खुद पे औ' दूजों पे बन के जिएं,
ज़िंदगी के भँवर में फँसे आलसी।
हाथ पे हाथ धर यूँ ही बैठे 'नमन',
भाग्य को दोष दे कोसते आलसी।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-09-2016
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